Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

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Page 11
________________ रसोभोगावधिः कामे सद्भक्ष्य भोजनावधिः । अध्यात्मशास्त्रसेवायां रसोनिरवधिः पुनः ॥२१॥ कुतर्कग्रंथसर्वस्व गर्वज्वरविकारिणी। एति दग्निर्मलीभाव मध्यात्मग्रंथभेषजात्॥२२॥ ___ अर्थ-कामनो जे रस ते भोगवतां सुधी मधुर छे, भलां भोजननो जे रस ते जमवाना वखत सुधी मधुरपणे वर्ते छे, पण अध्यात्मशास्त्रनी सेवानो जे रस ते तो निरवधि छे केमके ते प्रारंभकालथी मांडीने सदा वधतो ज रहे छे, पण किवारे विरस न थाय ॥ २१ ॥ कुतर्कशास्त्रना सर्व रहस्यनो जे अहंकार, ते रूपी ताव तेहना विकारवाली थइ एहवी जे दृष्टि ते अध्यात्मशास्त्ररूप औषधना योगथी निर्मलपणाने पामे छे ॥२२॥ धनिनां पुत्रदारादि यथा संसारवृद्धये। तथा पांडित्यदप्तानां शास्त्रमध्यात्मवर्जितं ॥२३॥ अधेतव्यं तदध्यात्मशास्त्रं भाव्यं पुनः पुनः। अनुष्ठेयस्तदर्थश्च देयो योग्यस्य कस्यचित् ॥२४॥ अर्थ-धनवंत जनने जेम पुत्र अने स्त्री ते संसारनी वृद्धिनां कारण छे तेम अभिमाने भरायेला पंडित लोकने अध्यात्मशास्त्र विना मात्र संसारनी वृद्धि छे ॥ २३ ॥ ते माटे अध्यात्मशास्त्रने भणवू, वली वारंवार हृदयने विषे भाव, एना अर्थ- वारंवार चिंतन करवू अने जे पुरुषो योग्य होय तेनेज शीखवय्-पुस्तक आपq ॥ २४ ॥ ए रीते अध्यात्मशास्त्रना महात्म्यनो पहेलो अधिकार पूरो थयो.

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