Book Title: Adhyatmasara Author(s): Yashovijay, Veervijay Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal View full book textPage 9
________________ अध्यात्मशास्त्रने पाम्या नथी अने आचार्य-पंडितपणुं इच्छे छे ते पण व्यर्थ छे ॥११॥ कपटरूप पर्वतने भेदवाने वज्र समान, मैत्रताभावरूप समुद्रनी वृद्धि करवाने चंद्रमा समान एहवें अध्यात्मशास्त्र ते वृद्धि पामेलं एहवू जे मोहजालनुं वन तेहने बालवाने अर्थे दावानल समान छे ॥ १२॥ अध्वा धर्मस्य सुस्थः स्यात्पापचारैः पलायते । अध्यात्मशास्त्रसौराज्ये न स्यात्कश्चिदुपप्लवः॥१३॥ येषामध्यात्मशास्त्रार्थ तत्त्वं परिणतं हृति । कषायविषयावेशक्लेशस्तेषां न कर्हिचित् ॥१४॥ अर्थ-अध्यात्मशास्त्रनुं भलं राजप्रवर्तते थके कशोये उपद्रव थाय नहीं, धर्मनो मार्ग सुगम थाय अने पापरूप चोरटा नासी जाय ॥ १३ ॥ जे प्राणीना हृदयने विषे अध्यात्मशास्त्रना अर्थतत्त्वतः ज्ञान थयु छे तेने कषायरूप विषयना वेगनो क्लेश ते कदी ए न थाय ॥ १४ ॥ निर्दयः कामचंडालः पंडितानपि पीडयेत् । - यदि नाध्यात्मशास्त्रार्थबोधयोधकृपा भवेत् ॥१५॥ विषवल्लिसमां तृष्णां वर्धमानां मनोवने । __ अध्यात्मशास्त्रदात्रेण छिंदंति परमर्षयः॥१६॥ अर्थ-जो अध्यात्मशास्त्रना अर्थना बोधनी कृषा पंडित जेवाने पण न होय तो निर्दय एवो जे कामरूप चंडाल ते पंडितने पण पीडा कर्या विना रहे नही ।। १५॥ जे परमऋषीश्वर छे ते अध्यात्मशास्त्ररूप दातरडे करीने मनरूपी वनने विषे वृद्धि पामती एहवी तृष्णारूप झेहेरनी वेली तेने छेदी नाखे छे ॥१६॥Page Navigation
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