Book Title: Adhyatmasara Author(s): Yashovijay, Veervijay Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal View full book textPage 7
________________ 11 3 11 श्रीशैवेयं जिनं स्तौमि भुवनं यशसेव यः । मारुतेन मुखोच्छेन पांचजन्यमपूपुरत जीयात् फणिफणप्रांत संक्राततनुरेकदा | उद्धर्तुमिव विश्वानि श्रीपार्श्वो बहुरूपभाक् ॥ ४ ॥ अर्थ - शिवाराणीना पुत्र श्रीनेमनाथजी तेमने स्तनुं हुं. जे भगवंते पोताना यशे करीने जेम जगत्ने भयुं छे तेमज पोताना मुखथी प्रगट्यो जे वायुं तेणे करीने पांचजन्य नामे शंख ने पूरीने तेनो नाद कीधो || ३ || फणी के० शेषनाग तेनी फणना प्रांते जे मणी तेने विषे संक्रम्युं जे शरीर तेणे करीने त्रण जगत्नो उद्धारज जाणे करता होयनी एवा जे श्रीपार्श्वनाथ बहुस्वरूपना कर्त्ता ते जयवंता वर्तो ॥ ४ ॥ जगदानंदनः स्वामी जयति ज्ञातनंदनः | उपजीवंति यद्वा चामद्यापि विबुधाः सुधाम् ॥ ५ ॥ एतानन्यानपि जिनान्नमस्कृत्य गुरूनपि । अध्यात्मसारमधुना प्रकटीकर्तुमुत्सहे ॥ ६॥ अर्थ — जगतने आनंदना करनार, वली जेहनी अमृतसरखी वाणीने हजी सुधी पंडित लोको सेवे छे, अंगीकार करे छे एहवा ज्ञातनंदन जे श्री वीरजिन ते जयवंता वर्तो ॥ ५ ॥ ए पांचे परमेश्वरने तथा बीजा पण जिनोने तथा पोताना गुरुने नमस्कार करीने अध्यात्मनो सार जे रहस्य ते प्रगट करवाने हवे उत्साह करुं हुं ॥ ६ ॥ 7 शास्त्रत्परिचितां सम्यक् संप्रदायाच्च धीमतां । इहानुभवयोगाच्च प्रक्रियां कामपि ब्रुवे ॥ ७ ॥Page Navigation
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