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उत्पन्न होने वाला वृत्तिसंक्षय, उसकी आत्मा की - निर्वाण - प्राप्तिरूप है जिसे अन्य परिभाषा में विदेहमुक्ति कहते हैं। इस प्रकार वृत्तिसंक्षययोग के - 1. कैवल्य - प्राप्ति, 2. शैलेशीकरण' और 3. मोक्षलाभ, ये तीन फल हैं, जिनमें मानव-जीवन के आध्यात्मिक विकास की पूर्णता पूर्णरूप से निष्पन्न होती है। तथा प्रथम के चार योगों में आध्यात्मिक उत्क्रान्ति उत्तरोत्तर अधिकाधिक होती चली जाती है परन्तु उसकी पराकाष्ठा तो इस वृत्तिसंक्षय नामक पांचवें योग में ही उपलब्ध होती है। इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने मोक्ष प्रापकर (मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला) धर्मव्यापार को योग का लक्षण मानकर उसके पूर्वोक्त पाँच भेद बतलाये हैं और उसका पूर्वसेवा से आरम्भ करके वृत्तिसंक्षय में पर्यवसान किया है। सारांश कि पूर्वसेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान और समता एवं ध्यान और समता से वृत्तिसंक्षय और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष की प्राप्ति कही; अतः वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्वसेवा से लेकर समता पर्यन्त के सभी धर्मव्यापार साक्षात् किंवा परम्परा से योग के उपायभूत होने से योग कहलाते हैं। तब इसका फलितार्थ यह हुआ कि जैन - संकेत के अनुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जल दर्शन के सिद्धान्तानुसार असंप्रज्ञात ही मुख्य योग है। कारण कि इसी को ही - वृत्तिसंक्षय किंवा असंप्रज्ञात को ही मोक्ष के प्रति साक्षात् - अव्यवहित-कारणता प्रमाणित होती है। इसलिये साक्षात् मोक्षसाधक धर्मव्यापार इस जैऩयोग लक्षण से किंवा 'चित्तवृत्तिनिरोध' रूप पातञ्जल योग लक्षण से लक्षित होने वाला वास्तविक योग वृत्तिसंक्षय या असंप्रज्ञात ही है। इसी योग में आध्यात्मिक विकास को पराकाष्ठा प्राप्त होती है । परन्तु इस अवस्था तक पहुँचने के लिए साधक को प्रथम और कई प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करना पड़ता है। ये साधन भी मुख्य योग के साधक होने से योग नाम से अभिहित किये जाते हैं। प्रकृत में ये पूर्वोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता ये चार हैं।
महर्षि पतञ्जलि के योगलक्षण का अन्तर्भाव
प्रथम जो यह कहा गया है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग के इन अध्यात्मादि पाँच भेदों में ही महर्षि पतञ्जलि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योग को अन्तर्भुक्त करा दिया है, उसका सारांश इस प्रकार है:
अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता, इन चार योगों में तो संप्रज्ञात नामक योग
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1. योगों - मन, वचन, काया के व्यापारों के निरोध से मेरु के समान प्राप्त होने वाली पूर्ण स्थिरता का नाम शैलेशीकरण है (शैलेशो मेरुस्तस्येव स्थिरता सम्पाद्यावस्था सा शैलेशी' औपपातिक सू. सिद्धाधिकार पृष्ठ-113 अभयदेवसूरिः) ।
2. 'मुक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो' (मोक्षेण योजनाद् योगः सर्वोऽपि धर्मव्यापारः) ।
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