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(1) इच्छायोग-इस योग में साधक की इच्छा तो अनुष्ठान (धार्मिक क्रियाएँ) करने की जाग्रत हो जाती है, किन्तु प्रमाद (आलस) के कारण वह उन धार्मिक क्रियाओं को कर नहीं पाता। इसलिये इसे विकल-असम्पूर्ण धर्मयोग-इच्छायोग कहा जाता है।'
(2)शास्त्रयोग-यथाशक्ति,प्रमादरहित, तीव्र बोधयुक्त पुरुष के आगम-वचन, शास्त्रज्ञान के कारण अविकल-(अखण्ड-काल आदि की अविकलता-अखण्डता के कारण अविकल) सम्पूर्णयोग शास्त्रयोग कहा जाता है।
(3) सामर्थ्य योग-इस योग का विषय शास्त्रज्ञान की मर्यादा से ऊपर उठा हुआ होता है। यह योग प्रातिभज्ञान (असाधारण प्रतिभा) अथवा असाधारण आत्म-ज्योति से उत्पन्न ज्ञान-आत्मानुभव या स्वसंवेदन के अद्भुत प्रकाश-अनन्य आत्मचिन्तन एवं तत्त्वचिन्तन से उत्पन्न होता है। यह योग आत्म-दीप्ति से युक्त होता है अतः यह सर्वज्ञता का साक्षात् कारण है। इसीलिए सामर्थ्ययोग को उत्तम योग कहा गया है।
सामर्थ्ययोग दो प्रकार का है-(!) धर्मसंन्यासयोग और (2) योगसंन्यासयोग।
धर्मसंन्यासयोग में क्षमा आदि क्षयोपशमजनित भाव होते हैं और साधक के मन में अत्यल्प रागभाव भी रहता है। इसमें आत्म-परिणामों में यत्किंचित् चंचलता भी रहती है। धर्मसंन्यासयोगी आत्मोन्नति करते-करते योगसंन्यासयोग तक पहुँचता है। वहाँ वह काययोग का भी पूर्णरूप से निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इसी का दूसरा नाम अयोग अवस्था अथवा सर्वसंन्यासयोग अवस्था है। इसी को वृत्तिसंक्षययोग भी कहा है। इसी अवस्था में आत्मा मुक्ति प्राप्त करती है, आत्मा के सिवाय सब कुछ छूट जाता है। अतः यह अवस्था ही सर्वोत्तम योग है। योगदृष्टियाँ
इन तीनों योगों-इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग का सीधा आधार
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योग दृष्टिसमुच्चय 3 वही,4 वही, 8 वही,9 वही, 10 वही, 11 (अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः) तथा अध्यात्मतवालोक 7/12
* 70 * अध्यात्म योग साधना *