Book Title: Adhyatma Yog Sadhna
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 443
________________ हैं। यों मन्त्रशास्त्र में प्रमुख रूप से आठ प्रकार के मन्त्र बताये गये हैं; किन्तु इनके उत्तर भेद अनगिनत हैं। वस्तुतः 'मन्त्र' अक्षरों का संयोग या पिण्ड है। अक्षरों में कुछ शोधन बीज होते हैं, कुछ बीजाक्षर होते हैं, और कुछ अक्षर विभिन्न तत्त्वों से सम्बन्धित होते हैं। इनमें अभिधा, लक्षणा, व्यंजना शक्ति भी होती है। कुछ अक्षर संयुक्त और मिश्रित भी होते हैं। मन्त्र रचना में इन सबका समायोजन करते हुए अक्षरों का संयोजन इस प्रकार किया जाता है कि जिस अभिप्राय से मन्त्र - रचना हुई है, उसका जप करने वाले साधक का वह अभिप्राय पूरा हो जाए। सामान्यतः मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, कवच है, चिकित्सा है। यह चिकित्सा है-शारीरिक और मानसिक विकृतियों की, विकारों की । शरीर और मन में जो विकार उत्पन्न होते हैं, वे उन मंत्रों द्वारा उपशमित हो जाते हैं, उन विकारों का रेचन हो जाता है, वे समाप्त हो जाते हैं। * कवच के रूप में मंत्र बहुत प्रभावी कार्य करता है। पृथ्वी के वायुमंडल में, चारों ओर के वातावरण में जो दुर्भावों की, तीव्र ध्वनि की तथा विकार-वर्द्धक विचारों, संगीत आदि की तरंगें बह रही हैं, व्याप्त हो रही हैं, वे मंत्र जप द्वारा निर्मित भाव कवच के कारण साधक के शरीर और मन में प्रवष्टि नहीं हो पातीं, फलतः साधक का मन-मस्तिष्क और शरीर उन विरोधी और विकारी तरंगों से प्रभावित नहीं होते। इसी प्रकार जो रोग के कीटाणु वायु आदि के माध्यम से सामान्य व्यक्ति के शरीर में होकर रक्त में प्रवेश कर जाते हैं, मंत्र - कवच के कारण प्रवेश नहीं कर पाते। मंत्र जप से साधक के रक्त, स्नायुमंडल, नाड़ीमंडल, क्रियावाही तंत्रिका संस्थान में एक ऐसी प्रतिरोधात्मक शक्ति (विद्युत) उत्पन्न हो जाती है कि वह प्रतिक्रिया करने वाले, विभिन्न विकार और रोगों के जीवाणुओं (Bacteria) की शक्ति को शून्यप्राय या भस्मसात् कर देती है । जपयोगी (मंत्र जाप करने वाला साधक) की मानसिक और शारीरिक स्वस्थता का यही रहस्य है। इसके साथ ही मंत्र जप से साधक का तैजस् शरीर बलशाली बन जाता है। जिस भावना को हृदय में रखकर साधक मंत्र का जाप करता है, उसके अनुरूप तथा मंत्राक्षरों के वर्ण, तत्त्व, गंध, संस्थान आदि के प्रभाव से साधक को अपने लक्ष्य की प्राप्ति सुलभ होती है। * मंत्र - शक्ति - जागरण 367

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