Book Title: Adhyatma Yog Sadhna
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 501
________________ शुभाशंसा भारतीय साधना-क्षेत्र में योग का महत्वपूर्ण स्थान है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि-योग के ये प्रसिद्ध आठ अंग हैं, जिनमें दैहिक परिष्कार के साथ चित्तवृत्तियों की पवित्रता, एकाग्रता एवं निरोध का एक सुव्यवस्थित अभ्यासक्रम है। योग के इन आठ अंगों में अंतिम चार का अन्तर्जीवन-चिन्तन, मनन, ध्यान, निदिध्यासन आदि से सम्बन्ध है। मूलतः यह जीवन-शोधन का मार्ग है, असाम्प्रदायिक एवं सार्वजनिक है। यही कारण है, वैदिक परम्परा के साथ-साथ जैन तथा बौद्ध परंपरा में भी जैन योग एवं बौद्ध योग के रूप में उन परम्पराओं के विशिष्ट चिन्तन और अनुभूति-प्रसूत अभ्यासक्रम के साथ यह विकसित हुआ। योग शब्द जिस अर्थ में महर्षि पतञ्जलि द्वारा गृहीत है, प्राचीन जैन वाङ्मय में, आगम-साहित्य में उसका उस अर्थ में प्रचलन नहीं रहा। जैन दर्शन में योग शब्द कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में है। जब साधना जगत् में चित्त वृत्तियों के परिष्कार, अन्तर्जीवनं के सम्मार्जन, संशोधन, मन के नियमन आदि अर्थों में योग शब्द का प्रयोग बहुव्याप्त हो गया, तब जैन आचार्यों ने भी जैनदर्शन सम्मत अध्यात्मसाधना क्रम को जैन योग के रूप में एक नया मोड़ दिया। अनेकानेक विषयों के महान विद्वान् आचार्य हरिभद्र जैन जगत् के प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने योग शब्द की एक नूतन मौलिक व्याख्या दी। 'योग विंशिका' में उन्होंने "मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्म वावारो" के रूप में योग की परिभाषा करते हुए जो बताया, उसका सार यह है कि धर्म-साधना का समग्र उपक्रम योग है। जैन योग पर आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य शुभचन्द्र, उपाध्याय यशोविजयजी आदि मनीषियों ने बड़ा महत्त्वपूर्ण साहित्य रचा। अष्टांग योग के रूप में महर्षि पतञ्जलि ने जो विवेचन किया है, जैन आगमों में विकीर्ण रूप में भिन्न-भिन्न स्थानों पर तप, संवर, ध्यान, प्रतिसंलीनता आदि के सन्दर्भ में कहीं संक्षिप्त विस्तृत प्रतिपादन हुआ है। हमारे वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर, अनेक शास्त्रों के पारगामी मनीषी आचार्य सम्राट, परम पूज्य स्व. श्री आत्माराम जी म. सा. ने 'जैनागमों में अष्टांग योग' नामक पुस्तक की रचना कर इस सन्दर्भ में बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया। योग के आठों अंग आगम-साहित्य में कहाँ-कहाँ किस-किस रूप में वर्णित, विवेचित तथा व्याख्यात हुए हैं, इसका बहुत ही मार्मिक विश्लेषण उन्होंने किया, नो योग के तुलनात्मक, समीक्षात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान में रुचिशील जनों के लिए बड़ा उपयोगी है। यह पुस्तक विद्वत्समाज में बहुत समादृत हुई। जिज्ञासु वृन्द इससे लाभान्वित हुए। इसे प्रकाशित हुए काफी समय हो गया है। इस समय यह प्राप्त भी नहीं है। * अभिमत/प्रशस्ति पत्र * 423 *

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