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(1) अनित्य अनुप्रेक्षायोग-शरीरासक्ति-त्याग साधना
भगवान महावीर ने अनित्य भावना के साधक को एक साधना सूत्र दियासे पुव्वं पेयं, पच्छा पेयं भेउरधम्म, विद्धंसण-धम्म, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं, विपरिणामधम्म, पासह एवं रूवं।
__-आचारांग 5/2/509 अर्थात्-हे साधक! तुम अपने इस शरीर को देखो। यह पहले अथवा पीछे एक दिन अवश्य ही छूट जायेगा। इसका स्वभाव ही विनाश और विध्वंसन है। यह शरीर अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय-अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएँ होती हैं। शरीर के इस रूप को देखो।
शरीर की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता के बारे में दूसरा साधना सूत्र साधक को दियाणत्थि कालस्स णागमो।
__-आचारांग 2/2/239 शरीर मरणधर्मा है, यह क्षण-प्रतिक्षण मृत्यु की ओर जा रहा है, इस तथ्य को सभी जानते हैं; किन्तु उनका आचरण इसके अनुकूल नहीं होता। माता पुत्र उत्पन्न होते ही भविष्य की आशाएँ-आकांक्षाएँ संजोने लगती है; किन्तु इस तथ्य को नजरअन्दाज कर जाती है
मात कहे सुत बाढ़े मेरो। _ काल कहे दिन आवे मेरो॥ किन्तु अनित्यभावना का साधक इस लोक परम्परा और लोक धारणा से अलग हट जाता है, वह शरीर के यथार्थ और वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करता है। शरीर के सत्य को देखता है, कल्पना, व्यामोह और राग के आवरणों को तोड़कर सत्य का साक्षात्कार करता है। ___ अनित्य भावना का साधक कुछ सूत्रों के अनुसार अपनी साधना करता है। उसका पहला सूत्र होता है-'इमं सरीरं अणिच्चं' यह शरीर अनित्य है। दूसरा सूत्र है-'इमं सरीरं चयावचयधम्मयं'-यह शरीर चय-अपचय स्वभाव वाला है। कभी यह पुष्ट होता है तो कभी कृश हो जाता है। तीसरा सूत्र है-'इमं सरीरं विपरिणामधम्मयं'-विभिन्न प्रकार के परिणमन इस शरीर में होते रहते हैं। कभी भोजन-पानी से इस शरीर में परिवर्तन होता है तो कभी
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