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अनादिकालीन संस्कारों के कारण ये इन्द्रियाँ संसाराभिमुखी होकर अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ रही हैं। इनकी प्रमुख प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी है, विषयों में सुख लेने की है।
इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता हुआ तपोयोगी साधक इन्हें इनके विषयों की ओर जाने से रोककर बाह्याभिमुखी से अन्तर्मुखी बनाता है, आत्मा की ओर मोड़ता है।
ऐसा वह दो प्रकार से कर सकता है
(1) इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए विषयों में राग-द्वेष न करे, उनमें मन को न जोड़े।
(2) इन्द्रिय-विषयों को ग्रहणं ही न करे। इनमें से प्रथम भूमिका प्रवृत्ति की है और द्वितीय भूमिका निवृत्ति की है।
जिस समय तपोयोगी साधक प्रवृत्ति करता है, उस समय यह सम्भव ही नहीं कि उसे कर्णकटु और कर्णप्रिय शब्द सुनाई ही न पड़ें, सुन्दर-असुन्दर दृश्य दिखाई ही न दें, सुगन्ध या दुर्गन्ध का अनुभव ही न हो, अथवा शीतलता-कठोरता का स्पर्श ही न हो। संक्षेप में सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करती ही हैं। किन्तु तपोयोगी साधक उनमें हर्ष-विषाद नहीं करता, राग-द्वेषात्मक वृत्तियों को नहीं जोड़ता, इन द्वन्द्वात्मक स्थितियों में-इन्द्रिय-विषयों में सम और उदासीन रहता है। ___दूसरी स्थिति निवृत्ति की है, चित्त की एकाग्रता की है। यह ऊँची स्थिति है। जब साधक का चित्त एकाग्र हो जाता है तो वह इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण ही नहीं करता। वह सुनकर भी नहीं सुनता, देखकर भी नहीं देखता, इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण ही नहीं करता।
इस स्थिति में साधक अभ्यास के उपरान्त पहुँचता है, अथवा सतत अभ्यास से साधक को यह स्थिति प्राप्त होती है। इस स्थिति में उसकी इन्द्रियाँ अपने सम्बन्धों से असंयुक्त होकर साधक के चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाती हैं और फिर उस योगी की इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं।
1. 'प्रतिसलीनता तप' के प्रथम विभाग 'इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप' में अष्टांग योग के
पाँचवें अंग प्रत्याहार' का अन्तर्भाव हो जाता है जैसा कि पातंजल योगसूत्र के निम्न सूत्रों से प्रगट होता हैस्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। ततः परमावश्यतेन्द्रियाणां।
-पातंजल योगसूत्र 2/54/55 * बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना * 249 *