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की धारा अवचेतन मन, चेतन मन, तैजस् शरीर से गुजरती हुई स्थूल शरीर द्वारा अभिव्यक्त होती है। जैसे-क्रोध आने से आँखें लाल हो जाती हैं, अहंकार की स्थिति में शरीर सहज ही अकड़ जाता है। कभी-कभी स्थूल शरीर से अभिव्यक्ति नहीं भी हो पाती तो वह तैजस् शरीर तक ही रह जाती है।
कषायों के आवेग-संवेग मानव मस्तिष्क और तैजस् शरीर में हलचल उत्पन्न कर देते हैं और यदि उनकी प्रबलता तीव्र हुई तो उथल-पुथल ही मचा देते हैं।
मानसिक संकल्प-विकल्प प्रेक्षा में अभ्यस्त होने के उपरान्त साधक कषायों के आवेगों-संवेगों की प्रेक्षा करता है। वह अपने अवचेतन मन की प्रेक्षा करता है, उसे तटस्थ द्रष्टा बनकर देखता है तो चकित रह जाता है, कषायों का कितना भयंकर अंधड़ चल रहा है उसके अवचेतन मन में। यद्यपि उसका आसन स्थिर है, वाणी भी मौन है, मन में भी संकल्प-विकल्प अति न्यून हैं, उपशान्त हैं, मन-वचन-काय के योग भी शान्त जैसे दिखाई देते हैं, देखने वाले भी कहते हैं-साधक जी! शान्तरस में निमग्न हैं; और कषाय-प्रेक्षा से पहले साधक भी अपने मन को शान्त समझता है; किन्तु कषाय-प्रेक्षा द्वारा ही वह अशान्ति के मूल राग-द्वेष और कषायों तक पहुँचता है और आत्मिक अशान्ति के यथार्थ कारणों को समझता है।
कषाय-प्रेक्षा के प्रभाव से साधक के कषाय-जनित आवेग-संवेग उपशान्त होते हैं, साधक सच्ची आत्मिक शान्ति की ओर बढ़ता है। (5) अनिमेष-पुद्गल द्रव्य की प्रेक्षा
भगवान महावीर की साधना के वर्णन के संदर्भ में आगमों में एक सूत्र आया है
एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी'। अर्थात्-एक पुद्गल-निविष्ट दृष्टि-यानी एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करना।
किसी एक पुद्गल पर, भित्ति पर अथवा नासाग्र पर स्थिरतापूर्वक दृष्टि जमाकर अपलक देखते रहना अनिमेष-प्रेक्षा है।
अनिमेष-प्रेक्षा, साधक के लिए, आगमों में बारहवीं भिक्षु प्रतिमा में तिहिव की गई है। इस प्रेक्षा के परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। 1. (क) भगवती सूत्र श. 3, उ. 2 (ख) एगपोग्गलठित्तीए दिट्ठीए-एक पुद्गलस्थितया दृष्ट्या।
-दशाश्रुतस्कन्ध, आयारदसा, सातवीं दशा, बारहवीं भिक्षुप्रतिमा • 208 * अध्यात्म योग साधना *