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मूल है। सत्य धर्म की साधना शान्ति की साधना है। जिसके मन-वचन-काया अणु-अणु और रग-रग में सत्य प्रतिष्ठित होगा वही शान्ति की साधना कर सकता है और जिसका मन-मानस शान्त होगा वही सत्यधर्म का पालन उत्तम भावों से कर सकता है।
(7) संयम-संयम का अभिप्राय है-विवेकपूर्वक अपनी इच्छाओं का नियमन, मन और इन्द्रियों के प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाना तथा आन्तरिक वृत्तियों का परिमार्जन करके उन्हें पवित्र बनाना, उन्हें शान्त-उपशान्त करना। संयम, मन और इन्द्रियों के बाह्य प्रवाह के लिए तटबन्ध है। ___मन और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ते हुए चंचल बने रहते हैं, उनकी चंचलता तभी समाप्त होती है जब उनकी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है, चेतना के सहज-सरल प्रवाह का सम्पर्क पाते ही मन और इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं। यह शान्ति ही तितिक्षायोग है।
(8) तप-तप है शरीर पर मन का नियन्त्रण करने एवं वीतराग बनने की साधना। जब यह साधना श्रमण का सहज स्वभाव बन जाती है तब वह तप धर्म बन जाती है। उत्तम भावों से तप का आचरण, तपधर्म है।
इस तपधर्म के आचरण में कर्मनिर्जरा तीव्र गति से होती है, आत्मशान्ति की प्राप्ति होती है और मुक्ति निकट आती है।
तप का हार्द वीतराग भाव की वृद्धि और फल आत्म-स्वरूप की प्राप्ति है। स्वरूप स्थित आत्मा शान्त-प्रशान्त होता है।
(9) त्याग-सुख और शान्ति का साधन त्याग है। यह त्याग आन्तरिक परिग्रह-कषाय आदि तथा बाह्य परिग्रह-दोनों प्रकार के परिग्रहों का किया जाता है। . श्रमण जितना-जितना त्याग करता है, उतना-उतना वह शान्त और सुखी होता जाता है। त्यागधर्म के द्वारा वह तितिक्षायोग की साधना करता है। ... (10) ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का अभिप्राय है-(ब्रह्म अर्थात् शुद्ध आत्मभाव तथा चर्य का अर्थ है-रमण करना)-शुद्ध आत्मभाव में रमण करना।
इसका बाह्य रूप अथवा स्थूल रूप काम-भोग विरति है। काम-भोगों की इच्छा, चित्त की चंचलता का कारण बनती है, मन में
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तप का विस्तृत वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है।
*198 - अध्यात्म योग साधना