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(2) नैमित्तिकजप - यह जप किसी देव को प्रसन्न करने के लिए अथवा किसी प्रकार की कामनापूर्ति के लिए किया जाता है। इसी प्रकार से ( काम्यजप) भी किया जाता है।
(3) प्रायश्चित्तजप - प्रमादवश या अनजाने में कोई पाप - दोष हो जाये तो उसकी शुद्धि अथवा दोष परिहार के लिए किया जाने वाला जप प्रायश्चित्त जप कहलाता है।
( 4 ) अचलजप - यह एक आसन पर बैठकर स्थिर मन एवं स्थिर काय से किया जाता है, इसमें संख्या भी निश्चित होती है जिसका अतिक्रमण नहीं किया जाता; साथ ही वह जप-साधना निश्चित समय में की जाती है। (5) चलजप - वामन पण्डित के अनुसार - आते-जाते, उठते-बैठते, खाते-पीते, करते - धरते, सोते-जागते जो मन्त्र - जप किया जाता है, वह चलजप कहलाता है। यह जप कोई भी व्यक्ति कर सकता है। इसमें कोई नियम अथवा बन्धन नहीं है। ऐसे जप से मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है और उसे ऊर्ध्व गति की प्राप्ति होती है।
( 6 ) वाचिकजप - इस जप में मन्त्र का उच्चारण सस्वर किया जाता है, स्वर इतना उच्च होता है कि दूसरे भी सुन सकें ।
जपयोगी के लिए प्रारम्भिक अवस्था में यही जप सुगम होता है। आगे के जप श्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं।
मानव के सूक्ष्म शरीर में षट्चक्र अवस्थित हैं, उनमें सस्वर - जप से ध्वनियन्त्रों की टकराहट द्वारा वर्णबीज शक्तियाँ जागृत हो उठती हैं। इससे जपयोगी को वासिद्धि भी प्राप्त हो सकती है। वाक्शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा भाग है। इससे बड़े - बड़े काम हो सकते हैं।
(7) उपांशुजप-इसे भ्रमर-जप भी कहा जाता है। भ्रमर के समान गुंजारव करते हुए यह जप होता है। इसीलिए कुछ लोग इसे भ्रमर - जप कहते हैं।
उपांशु जप में जीभ एवं होठ नहीं चलते। आँखें झपी हुई रखते हुए जपयोगी श्वासोच्छ्वास के प्राणवायु के संचार के सहारे मन्त्र की आवृत्ति करता रहता है। इससे प्राण- गति धीमी होने लगती है, दीर्घश्वास का अभ्यास हो 'जाता है। प्राण सूक्ष्म हो जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होता है। कुछ काल के अभ्यास के बाद साधक को पूरक के साथ ही वंशी की-सी ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, यही अनहद नाद है।
योग के विविध रूप और साधना पद्धति 43