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(4) सूक्ष्मध्यान-यह ध्यान शाम्भवी मुद्रा द्वारा किया जाता है। शाम्भवी मुद्रा में ध्यानयोगी भृकुटि के मध्य दृष्टि को स्थिर करके एकाग्र चित्त से परमात्मा के दर्शन करता है। सूक्ष्म ध्यान में योगी की चित्तवृत्तियाँ अपने ध्येय पर स्थिर हो जाती हैं।
अभेद ध्यान- इस ध्यान में साधक किसी प्रकार का बाह्य आलंबन नहीं लेता। अर्द्धनिमीलित आँखें रखकर वह दृष्टि नासाग्र पर जमाता है तथा अपनी चित्तवृत्तियों को निष्पक्ष रूप से द्रष्टा मात्र होकर देखता है, दूसरे शब्दों में प्रेक्षाध्यान करता है। इस समय चित्त में जो भी काम, क्रोध, ईर्ष्या आदि के विकार तथा अन्य किसी प्रकार के विभाव दृष्टिगोचर हों, उन्हें हटाता जाता है। इस प्रक्रिया के बाद जो कुछ भी बचता है, वह आत्मा का शुद्ध भाव है, उसी पर योगी अपना ध्यान केन्द्रित करता है। प्रारम्भ में उसके ध्यान में कुछ चंचलता रहती है, किन्तु दृढ़ अभ्यास से वह चंचलता भी मिट जाती है, स्थिर हो जाता है, मन और आत्मा का अभेद स्थापित हो जाता है और यह अभेद स्थापित होते ही अभेद ध्यान सिद्ध हो जाता है तथा योगी कृतकृत्य हो जाता है।
मन
सुरतशब्दयोग
'सुरतशब्दयोग' राधास्वामी सम्प्रदाय में प्रचलित योग साधना का पारिभाषिक नाम है। यहाँ सुरत शब्द आत्मा का प्रतीक है। राधास्वामी मत का ऐसा मन्तव्य है कि आत्मा की जो धारा प्रवाहित होती है, उसमें शब्द भी होता है, उस शब्द का आनन्द लेने का नाम ही सुरतशब्दयोग है।
इस सम्प्रदाय में शब्द दो प्रकार के माने गये हैं- ( 1 ) आहत - - जो दो अर्थात् व्याघात से उत्पन्न होते हैं; स्वतः ही उत्पन्न होते हैं। अनाहत सुरत - शब्द - योग कहा जाता है।
वस्तुओं की टकराहट से उत्पन्न होते हैं, और (2) अनाहत-जो बिना व्याघात के शब्दों में सुरत अर्थात् ध्यान जोड़ने को ही
हठयोग के समान ही इस सम्प्रदाय में भी मानव शरीर के अन्दर षट् चक्र माने जाते हैं। साथ ही कमल और पद्मों की भी मान्यता है । सुरत-शब्द-योग द्वारा इन चक्रों, पद्मों और कमलों को जाग्रत किया जाता है । इसके लिए वे सुमिरन और ध्यान को आवश्यक मानते हैं। सुमिरन से अभिप्राय एक विशेष बीजमन्त्र का अन्तर् में जप या उच्चारण है और ध्यान से अभिप्राय अन्तर् में चेतन स्वरूप का चिन्तन है।
इनकी साधना करते-करते साधक शनै: शनै: राधास्वामी दयाल के स्थान को प्राप्त कर लेता है, दूसरे शब्दों में कृतकृत्य हो जाता है।
* 48 अध्यात्म योग साधना