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का स्वरूपानुसन्धानपूर्वक संहार कर अर्थात् नादमय सारी भूमिकाओं को त्याग कर स्वरूप में स्थितिकर उसी में लीन हो जाना।
यह मार्ग हठयोग की अपेक्षा सहज और सरल है।
नाद का अभिप्राय शब्द है। ऐसा माना जाता है कि सूक्ष्म शरीर के अन्दर स्थित अनाहत चक्र में अत्यन्त मधुर ध्वनि तरंगें सतत उठती रहती हैं, उस ध्वनि को अनहद नाद कहा जाता है। योगी सिद्धासन से बैठकर और
आँखों को अर्धोन्मीलित करके दृष्टि को अन्तर्मुखी रखे तथा दायें कान से सदैव अन्तर्गत नाद को सुने।
लययोग का मूलाधार प्रणव अथवा ॐ है। ॐ शब्द की रचना 'अ, उ, म्' इन तीन अक्षरों से हुई है। 'अ' मनोबिन्दु का सूचक है, 'उ' प्राणबिन्दु का और 'म्' अहंबिन्दु का।
योगी क्रमशः इन तीनों प्रकार के बिन्दुओं को गोपन करके तथा नाद सुनते-सुनते अपने स्वरूप में अवस्थित और लय हो जाता है, यही लययोग है। इस अवस्था में उसे अतीन्द्रिय और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव होता
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अस्पर्शयोग अस्पर्शयोग का अभिप्राय है-पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म आदि सभी सांसारिक प्रवृत्तियों से अलिप्त रहना। आनन्दगिरि ने अस्पर्शयोग को विशुद्ध अद्वैत बताया है।
अस्पर्शयोग की चर्चा गौड़पाद ने की है। वे ही इस योग के आविष्कर्ता माने जा सकते हैं।
__ अस्पर्शयोग बहुत कुछ अंशों में गीताकार द्वारा प्रतिपादित अनासक्ति योग ही है। अनासक्तियोग में भी कर्म और उसके फल के प्रति आसक्ति नहीं रखी जाती। आसक्ति के अभाव में आशा-तृष्णा का क्षय हो जाता है और फिर मुक्ति सुलभ हो जाती है।
किन्तु स्वयं गौड़पाद के शब्दों में ही अस्पर्शयोग योगियों के लिए भी दुर्दर्श हैअस्पर्शयोगो वै नाम, दुर्दर्शः सर्वयोगिभिः।
-गौड़पादीय कारिका 39 इस दुर्दर्शता का कारण यह है कि अनादिकालीन अविद्या, मोह तथा आशा-तृष्णा के संस्कार बड़ी कठिनाई से छूटते हैं।
* योग के विविध रूप और साधना पद्धति * 37*