________________
आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ...39 जंगली जानवरों या अन्य समस्याओं से भयमुक्त होने के लिए इसी मुद्रा का उपयोग करते थे।
• इस मुद्रा से निम्न शक्ति केन्द्र जागृत एवं प्रभावित होते हैं
चक्र- मणिपुर, अनाहत एवं विशुद्धि चक्र तत्त्व- अग्नि एवं वायु तत्त्व प्रन्थि- एड्रीनल, पैन्क्रियाज, थायमस, थायरॉइड एवं पैराथायरॉइड ग्रन्थि केन्द्र- तैजस, आनंद एवं विशुद्धि केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- पाचन संस्थान, यकृत, तिल्ली, नाड़ी तंत्र, आंते, नाक, कान, गला, मुख, स्वरयंत्र, हृदय, फेफड़ें, भुजाएँ, रक्त संचार प्रणाली।
• जैन सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति को पहले ज्ञान होता है, फिर वैराग्य और उसके बाद वह साधक अभय की स्थिति से गुजरता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए क्रमशः ज्ञान, वैराग्य और अभय मुद्रा का वर्णन किया है। भगवान महावीर ने अभय मुद्रा में चण्डकौशिक सर्प को भयमुक्त ही नहीं पापमुक्त भी कर दिया था। ईसा शूली पर चढ़ते समय अभय मुद्रा में थे। उन्होंने इस मुद्रा के द्वारा सर्व प्राणियों को पाप रहित एवं सत्य के प्रति निर्भीक रहने का संदेश दिया। जो व्यक्ति इस मुद्रा का अभ्यास करते हैं उनके स्नायु मंडल सम्बन्धी अनगिनत बीमारियाँ स्वाभाविक ही दूर हो जाती हैं। इस आणविक युग में यह मुद्रा अत्यन्त उपयोगी है। जो मानव किसी भी प्रकार के भय आदि से दु:खी है उन लोगों की चिकित्सा इस मुद्रा के द्वारा सम्भव हो सकती है। 1.5 तत्त्वज्ञान मुद्रा
यह ज्ञान मुद्रा का पांचवाँ प्रकार है। इस मुद्रा के नाम से ज्ञात होता है कि इस मुद्रा का अभ्यास आत्मतत्त्व की पहचान एवं प्रत्यक्षानुभूति के उद्देश्य से किया जाता है। विधि
सर्वप्रथम पद्मासन या सुखासन में बैठ जायें। फिर बायें हाथ की पृथ्वी मुद्रा (अंगूठा और अनामिका के अग्रभाग को मिलाकर) और दाहिने हाथ की ज्ञान मुद्रा (अंगूठा और तर्जनी के अग्रभाग को संयुक्त कर) बनाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखने से तत्त्वज्ञान मुद्रा बनती है।
निर्देश- पूर्व निर्दिष्ट किसी भी अनुकूल आसन में 15 से 20 मिनट यह मुद्रा करनी चाहिए।