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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ...115
संस्कृत व्याकरण के अनुसार व्यान वायु का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी उक्त अर्थ को ही सूचित करता है- 'व्यानिति सर्वशरीरं व्याप्नोति' अर्थात जो समस्त शरीर में व्याप्त है उसे व्यानवायु कहते हैं। 'वि' उपसर्ग विशेष का बोधक है, 'आ' उपसर्ग समग्रता का सूचक है अर्थात जो विशेष प्रकार से और समग्र रूप से परिव्याप्त है वह व्यान वायु कहलाती है। व्यान शब्द की रचना वि + आ + अन् + अच् से हुई है। इसमें वि + आ उपसर्ग हैं और अन् + अच् प्रत्यय हैं। इस मुद्रा से व्यान वायु साम्य स्थिति में रहती है परिणामत: इन्द्रियाँ, शरीर एवं चेतन मन स्वस्थ रहता है। विधि
ध्यान के लिए सर्वोत्तम पद्मासन या सुखासन में स्थिर हो जायें। तत्पश्चात अंगूठे के अग्रभाग के द्वारा हल्का दबाव देते हुए उसे मध्यमा के अग्रभाग से मिलायें, फिर तर्जनी अंगुली के अग्रभाग को मध्यमा अंगुली के नखस्थानीय भाग पर रखें, शेष अनामिका और कनिष्ठिका को सीधी रखना व्यान मुद्रा है।
निर्देश- 1. ध्यान योग्य किसी भी आसन में इस मुद्रा का प्रयोग कर सकते हैं 2. दिन या रात्रि के किसी भी वक्त में यह मुद्रा कर सकते हैं। 3. इसका प्रारम्भिक अभ्यास 10 से 16 मिनट तथा थोड़े दिनों के पश्चात 48 मिनट तक का अभ्यास करना चाहिए। सुपरिणाम
व्यान शब्द की परिभाषा के अनुसार यह वायु पूरे शरीर में व्यापक रूप से फैला हुआ है। फिर भी दोनों नेत्रों में, दोनों कर्णों में, दोनों कंधों में और कंठ में सूक्ष्म रूप से रहता है। व्यान मुद्रा का नियमित अभ्यास व्यान वायु को संतुलित करता है। इससे व्यान वायु अच्छे ढंग से अपना कार्य करती हैं।
इस मुद्रा के द्वारा निम्न चक्रों आदि का शोधन होने से अनेक फायदे होते हैं
चक्र- अनाहत एवं विशुद्धि चक्र तत्त्व- वायु, अग्नि एवं आकाश तत्त्व ग्रन्थि- थायमस, थायरॉइड एवं पैराथायरॉइड ग्रन्थ केन्द्र- आनंद एवं विशुद्धि केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- हृदय, श्वास, फेफड़ें, भुजाएँ, रक्त संचार प्रणाली, स्वरतंत्र, गला, मुँह, नाक, कान आदि।
• एक्यूप्रेशर के अनुसार मध्यमा अंगुली में साइनस के बिन्दु हैं उन पर दबाव पड़ने से सर्दी-जुकाम, सिरदर्द, कफ आदि का निवारण होता है।