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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन 107 सामर्थ्य आदि। वस्तुतः श्वास के साथ-साथ जो वायु भीतर जाती है उसे प्राण वायु कहते हैं। यह शरीर के विभिन्न अंगों में व्याप्त है। इस प्राण शक्ति से ही शरीर ऊर्जावान बनता है। यदि शरीर में प्राणशक्ति की न्यूनता अथवा अधिकता हो जाये तो असंतुलन पैदा हो जाता है उससे मनोदैहिक व्याधियों का प्रभाव बढ़ने लगता है। प्राण मुद्रा का प्रयोग जीवनदायिनी शक्ति का संतुलन और शरीर को ऊर्जा प्रधान बनाये रखने के लिए किया जाता है । यौगिक परम्परा में प्रचलित प्राण मुद्रा स्वास्थ्य लाभ की सूचक है।
विधि
प्राण मुद्रा से संबंधित दो विधियाँ है
प्रथम विधि - इस मुद्रा का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जायें। तत्पश्चात कनिष्ठिका अंगुली के अग्रभाग और अंगूठे के अग्रभाग को परस्पर मिलायें, अनामिका अंगुली के अग्रभाग को कनिष्ठिका के नाखून से स्पर्शित करवाएँ, शेष तर्जनी एवं मध्यमा अंगुलियों को सीधा रखना प्राण मुद्रा है।
दूसरी विधि - पूर्ववत आसन में स्थिर होकर अनामिका और कनिष्ठिका के अग्रभागों को अंगूठे के अग्रभाग से मिलायें (अंगूठे का इन अंगुलियों पर हल्का सा दबाव रहें) शेष तर्जनी और मध्यमा को सीधी रखने पर प्राण मुद्रा बनती है।
निर्देश - 1. इस मुद्रा के लिए पद्मासन अथवा सिद्धासन सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं इसलिए इन्हीं आसनों में से एक का चुनाव करें। इन आसनों से प्राण ऊर्जा तेजस्वी बनती है।
2. इस मुद्रा का प्रयोग प्रारम्भ में 16 मिनट करें। फिर उसे क्रमशः बढ़ाते हुए निर्धारित अवधि तक पूर्णता प्रदान करें । प्राण ऊर्जा को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए 48 मिनट का प्रयोग पूर्ण कहलाता है । कोई एक साथ पूर्ण प्रयोग न कर पायें तो वह दो या तीन बार में इसे पूर्ण कर सकता है।
3. इस मुद्रा की विशेषता है कि इसे बिना किसी आवश्यकता के कितनी भी देर किया जा सकता है। इसका शरीर पर किसी भी प्रकार का विपरीत प्रभाव नहीं होता, जबकि अन्य मुद्राओं को केवल आवश्यकता के समय ही किया जाता है अन्यथा उनके दुष्प्रभाव की संभावना बनी रहती है ।