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80... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे?
• यह मुद्रा स्थायी प्रभाव दिखाने वाले सर्दी-जुकाम जैसे रोगों में भी लाभकारी है।
• प्राकृतिक दृष्टि से इस मुद्रा में अग्नि (अंगूठा) एवं जल तत्त्व (कनिष्ठा) का अपने-अपने सजातीय से संयोग होता है। जिसके प्रभाव स्वरूप शरीर में इन तत्त्वों का संतुलन बना रहता है। जैसे सूर्योदय होने पर पंकज खिलता है वैसे ही अग्नि तत्त्व का सजातीय अग्नि तत्त्व से मिश्रण होने पर भीतरी हृदय का सूर्य कमल विकसित होता है। जैसे रात्रि में चन्द्र कमल खिलता है वैसे ही जल तत्त्व का जल तत्त्व से मिलन होने पर शुद्ध आत्मा रूपी चन्द्र कमल विकसित होता है।
• इस मुद्रा में अनामिका, मध्यमा एवं तर्जनी ये तीनों अंगुलियाँ अपनेअपने तत्त्व के सामने रहती है जिससे उनके गुणों का परस्पर संक्रमण होता है। इस मुद्रा के अतिशय से दूसरों को प्राण शक्ति प्रदान करने की क्षमता भी विकसित होती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से पंकज मुद्रा में स्थिर होकर कमलाकृति का ध्यान किया जाए तो अनासक्ति का विकास होता है। विचार पवित्र बनते हैं क्योंकि पंकज को पवित्र माना गया है। इस मुद्रा से स्वभाव सौम्य बनता है।14
• एक्युप्रेशर विशेषज्ञों के अनुसार यह मुद्रा टांसिल, गर्दन, लसिका ग्रन्थि आदि से सम्बन्धित रोगों का शमन करती है। 17. लिंग मुद्रा
संस्कृत में धातु का मूल रूप 'लिंग' है और शब्द का मूल रूप ‘लिंगम्' है। यहाँ शब्द रूप वाच्य है। तदनुसार लिंग के अनेक अर्थ होते हैं- निशान, चिह्न, प्रतीक, प्रतिमा, शिवलिंग, पुरुष की जननेन्द्रिय, सूक्ष्म शरीर आदि। प्रस्तुत प्रसंग में लिंग का अभिप्राय सूक्ष्म शरीर की सत्ता अथवा पुरुष की जननेन्द्रिय शक्ति से है। पुरुष की विशिष्ट शक्ति जननेन्द्रिय स्थान पर मानी गई है। पुरुष का वीर्य उसी भाग से निःसृत होता है जिसका संरक्षण मर्यादित जीवन या ब्रह्मचर्य पालन द्वारा ही किया जा सकता है। पुरुष के जननेन्द्रिय को लिंग भी कहते हैं। लिंग मुद्रा के अभ्यास से पुरुषत्व जागृत होता है। इसी के साथ पौरूषत्व को टिकाये रखने एवं तज्जनित शक्ति को संग्रहित एवं अभिवर्द्धित करने की भावना बलवती बनती है। लिंग मुद्रा का अन्तरंग प्रयोजन चेतन द्रव्य