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98... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे? नीचे की ओर करने से अंगुलियों की आकृति गाय के स्तनों (थनों) के सदृश हो जाती है इसे ही सुरभि मुद्रा कहते हैं।22
निर्देश- 1. सुरभि मुद्रा के लिए उत्कटासन (गाय का दूध निकालते वक्त हाथ-पाँवों की जैसी स्थिति रहती है वह आसन) श्रेष्ठ माना गया है। यदि इस आसन में कठिनाई का अनुभव हो तो अपवाद रूप से वज्रासन, सुखासन या पद्मासन में भी यह मुद्रा कर सकते हैं।
2. मुनि श्री किशनलालजी के मतानुसार सुरभि मुद्रा का अभ्यास 8 मिनट से प्रारम्भ करें। एक सप्ताह के अभ्यास के पश्चात इसे 16 मिनट करें। धीरे-धीरे इस अभ्यास को 48 मिनट पर्यन्त बढ़ाएँ। यदि एक साथ 48 मिनट का प्रयोग न कर सकें तो दो-तीन बार में उतना समय पूर्ण कर सकते हैं। ___ 3. यह प्रयोग निर्धारित आसन में बैठकर ही करें, क्योंकि यह मुद्रा कुछ कठिन होने के कारण अन्य मुद्राओं की भाँति चलते-फिरते नहीं की जा सकती है। ____4. इस मुद्रा की खास विशेषता यह है कि यदि इसका अभ्यास सुविधि पूर्वक कुछ सैकण्ड के लिए भी किया जाये तो पूर्ण लाभ मिलता है। सुपरिणाम
यह एक रहस्यमयी मुद्रा है। इसके खास तौर पर निम्न लाभ देखे जाते हैं
• इस सुरभि मुद्रा में वायु तत्त्व का आकाश तत्त्व के साथ संयोग होता है तथा पृथ्वी तत्त्व का जल तत्त्व के साथ संयोग होता है। वायु तत्त्व और आकाश तत्त्व के सम्मिलन से ब्रह्माण्ड चक्र स्थिर होता है। ब्रह्माण्ड चक्र की भाँति शरीर का नाभि चक्र स्वस्थ और स्थिर रहता है। नाभि केन्द्र हमारी स्वस्थता का मूल आधार है। नाभि केन्द्र की गड़बड़ी से ही शरीर रोग ग्रस्त बनता है। इस मुद्रा प्रभाव से जब नाभि केन्द्र स्वस्थ रहता है तब शरीर सम्बन्धी एवं उदर सम्बन्धी रोग भी शान्त हो जाते हैं।
• नाभि केन्द्र के संतुलन से पाचनतंत्र भी स्वस्थ रहता है। नाभि केन्द्र की स्वस्थता से मूत्र रोगों का भी शमन होता है। नाभि केन्द्र सुनियोजित रहने से ग्रन्थि तंत्र के स्राव संतुलित रहते हैं।
• जल तत्त्व और पृथ्वी तत्त्व के मिलन से सृजन शक्ति अर्थात बौद्धिक क्षमता विकसित होती है। इस मुद्रा से वात-पित्त और कफ की प्रकृति समभाव