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प्रस्तुति
'सुख का अर्थो संग्रह में प्रवृत्त होता है । जो सुख का अर्थी होता है, वह बार-बार सुख की कामना करता है। इस प्रकार वह अपने द्वारा कृत कामना को व्यथा से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है । सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है।"
भूख से कोई न मरे, इस व्यवस्था में वर्तमान युग सफल हुआ है, किन्तु मुट्ठी भर लोगों का संग्रह असंख्य लोगों को गरीबी का जीवन जीने के लिए विवश कर रहा है। दूसरी समस्या यह है- अति सम्पन्न लोग मानसिक तनाव, भय और आतंक का जीवन जी रहे हैं । ऐसा मार्ग खोजने में अभी सफलता नहीं मिली है, जिससे सबकी प्राथमिक आवश्यकताएं भी पूरी हों और अतिसंग्रह से उत्पन्न होने वाली समस्याएं भी मानवीय चेतना को क्रूर न बनाएं । व्यक्तिगत स्वामित्व को सीमित किए बिना वह मार्ग कभी भी खोजा नहीं जा सकेगा । पदार्थ सीमित है । उपभोक्ता की आवश्यकता असीम है, लालसा उससे भी अधिक है। इनके समीकरण का कोई भी गणित हमारे पास नहीं है। इसीलिए सचाई को ध्यान में रखकर महावीर ने कहा-यही महाभय है कि मनुष्य केवल पदार्थ की परिक्रमा कर रहा है। वह मानसिक स्वास्थ्य और उपभोक्तावादी मनोवृत्ति में सामंजस्य स्थापित करता है। हिंसा की समस्या का मूल है पदार्थ के साथ-साथ 'यह मेरा है'--इस मनोवृत्ति का जुड़ाव । पदार्थ किसी का नहीं है, यह सचाई है। इस सचाई को झुठलाने के प्रयत्न में से हिंसा उपजती है ।
महावीर ने कहा---'हिंसा के पत्र-पुष्प पर ही प्रहार मत करो, उसकी जड़ पर भी प्रहार करो।' जितना मेरापन कम, उतनी हिंसा कम । जितना मेरापन अधिक उतनी हिंसा अधिक । यह सूत्र अहिंसा का महाभाष्य है । अनेक विद्वान् आचारांग के सदेश को अहिंसा का संदेश मानते हैं । इस मान्यता का कारण इसका पहला प्रवचन है। उसमें निःशस्त्रीकरण का विस्तृत निरूपण है। अग्रिम प्रवचनों में परिग्रह और अपरिग्रह के बारे में सिद्धांत स्थापित किए गए हैं। उन्हें हमने गौण रूप में स्वीकारा है। हमारी प्रथम दृष्टि पत्र-पुष्प और फल तक ही जाती है, मूल तक नहीं जाती। मूलस्पर्शी दृष्टि के बिना समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हम अहिंसा का विकास कर हिंसा की समस्या को सुलझाना चाहते हैं। यह अग्रस्पर्शी दृष्टि का दर्शन है। मूलस्पर्शी दृष्टि का दर्शन इससे भिन्न है । उसका सूत्र है-परिग्रह की समस्या को सुलझाओ, हिंसा की समस्या सुलझेगी। प्रवृत्ति की उपस्थिति में परिणाम को नहीं मिटाया जा सकता। हिंसा परिणाम है। उसका हेतु है परिग्रह । इस सचाई के प्रति सचेत करने के लिए ही महावीर ने बार-बार कहा-पुरुष ! तू सत्य को जान । परम सत्य है-आत्मा चैतन्यमय है और पदार्थ अचेतन है । आत्मा का सर्वस्व चैतन्य है, जड़ता नहीं।' आचारांग की इस स्थापना ने आचारशास्त्र को एक नया कोण दिया और शांति की दिशा में चिन्तन को आगे बढ़ाया कि पश्यक बनो, हर घटना को देखो और पदार्थ-उपभोगका दृष्टिकोण बदलो। जैसे सत्य को न खोजने वाला पदार्थ का उपभोग करता है, वैसे ही पदार्थ का उपभोग मत करो, किन्तु उपभोग की प्रणाली को बदलो। तात्पर्य की भाषा में जीवनशैली को बदलो। इस सचाई के साक्षात्कार को आत्मा या परमात्मा के साक्षात्कार से कम मूल्य नहीं दिया जा सकता।
आगम सम्पादन का काम विक्रम संवत् २०११ में प्रारम्भ हुआ। दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि के टिप्पण हिन्दी में लिखे गए । गुरुदेव ने एक बार कहा-आचारांग का भाष्य संस्कृत में लिखा जाए । इस प्रेरणा ने नई दिशा की ओर प्रस्थान करा दिया । भाष्य संस्कृत में तैयार हो गया। उसके निर्माण में गुरुदेव की प्रेरणा और उनका वरदहस्त निरन्तर साथ रहा। इस भाष्य की लिपि करने में महाश्रमण मुनि मुदितकुमार और मुनि महेन्द्रकुमार संलग्न रहे । कुछ वर्षों तक यह कार्य अवरुद्ध-सा रहा । मुनि दुलहराजजी ने इस कार्य को अपने हाथ में लिया। अनेक प्रश्न और सुझाव सामने रखे । उनके आधार पर भाष्य का आकार बढ़ा और प्रकार में भी वृद्धि हुई । संस्कृत छाया, प्रूफ आदि के संशोधन में मुनि राजेन्द्रजी का भी काफी योग रहा। आचारांगभाष्य में महत्त्वपूर्ण बारह परिशिष्ट संलग्न हैं । इनके निर्माण में अनेक साधु-साध्वियों का श्रम रहा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद डा० नथमल टांटिया, डायरेक्टर अनेकांत शोधपीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा हो रहा है । इस कार्य में संलग्न हैं मुनि दुलहराजजी तथा मुनि धर्मेशकुमारजी। यह शीघ्र ही प्रकाश में आने वाला है।
___ इस प्रकार अनेक अंगुलियों का स्पर्श पाकर प्रस्तुत ग्रंथ प्रकाशन की स्थिति में आया । उन सबके प्रति मंगल भावना । पूज्य गुरुदेव के प्रति कृतज्ञतापूर्ण भावांजलि ।
आचार्य महाप्रज्ञ
अध्यात्म-साधना केन्द्र छतरपुर रोड, मेहरोली नई दिल्ली, २२ अक्टूबर ९४
१. आयारो, २११५१।
२. वही, ५॥३२॥
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