Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ प्रस्तुति जैन धर्म वर्तमान युग में प्रासंगिक है ? यह प्रश्न अनेक बार पूछा जाता है। इसका उत्तर बहुत सीधा है। यदि समता, अहिंसा और अपरिग्रह प्रासंगिक हैं तो जैन धर्म भी प्रासंगिक है। यदि उनकी प्रासंगिकता नहीं है तो जैन धर्म को प्रासंगिकता की वेदी पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, वह विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म है। उसका प्रारम्भ-बिन्दु है आत्मा का संज्ञान और उसका चरम-बिन्दु है आत्मोपलब्धि या आत्मा का साक्षात्कार । चेतन (आत्मा अथवा जीव) और अचेतन-दोनों के अस्तित्व की स्वीकृति ने जैनदर्शन का अनेकांतवादी दृष्टिकोण अपनाने का अवसर दिया। आत्मा का ज्ञान तब तक परिपूर्ण नहीं होता, जब तक अचेतन को नहीं जान लिया जाता और अचेतन का ज्ञान आत्मा को जाने बिना परिपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए आत्मा (चेतन) और अनात्मा (अचेतन)-दोनों की समग्रता का ज्ञान आवश्यक है। प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन में आत्मा की कर्मकृत विभिन्न अवस्थाओं को समझने का दृष्टिकोण दिया है। पर्यावरण की दृष्टि से उसका अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। समता और आत्मतुला-ये दोनों पर्यावरण के प्रदूषण से बचाव करने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस-जीवों के ये छह निकाय हैं। महावीर ने कहा--इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का अर्थ होगा अपने अस्तित्व का अस्वीकार । इनके अस्तित्व को मिटाकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व को बचा नहीं सकता। इनके अस्तित्व के प्रति प्रमत्त रहकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं रह सकता। हिंसा स्वयं प्रमाद है अथवा प्रमाद की निष्पत्ति है। अहिंसा अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक होना है। साथ-साथ दूसरे जीवों के अस्तित्व के प्रति जागरूक होना भी है। यह जागरूकता आत्मतुला के सिद्धांत से विकसित होती है। इसीलिए महावीर ने कहा-आत्मतुला का अन्वेषण करो-एयं तुलनन्नेसि ।' अहिंसा का सिद्धांत हिंसा के साधन को समझे बिना समग्रता से नहीं समझा जा सकता । इसीलिए प्रस्तुत आगम में परिग्रह और अपरिग्रह का विशद विवरण उपलब्ध है। हिंसा का मुख्य साधन है-परिग्रह। आधुनिक अर्थशास्त्रीय अवधारणा ने हिंसा को प्रोत्साहन दिया है। अर्थशास्त्रीय अभिमत है-अर्थ के प्रति राग उत्पन्न करो । महावीर कहते हैं-पदार्थ के प्रति विराग उत्पन्न करो। समाज के विकास का आधार है-रागात्मक प्रवृत्ति । इस सत्यांश को पूर्ण सत्य मान लेने के कारण ही हिंसा और आतंक को फैलने का अवसर मिला है। समाज का आधार विरागात्मक प्रवृत्ति भी है, इस सत्यांश को समाज के साथ जोड़ने पर एक नया दृष्टिकोण विकसित होता है। केवल रागात्मक प्रवृत्ति समाज को स्पर्धा और हिंसा की ओर ले जाती है। केवल विरागात्मक प्रवृत्ति से समाज की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं होतीं, इसलिए रागात्मक और विरागात्मक-दोनों के सन्तुलन से ही समाज की व्यवस्था को नया रूप दिया जा सकता है और हिंसा की बाढ़ को रोका जा सकता है। वैज्ञानिक युग ने विकास की नई अवधारणाएं दीं। पुराने चितन को नकारने की मनोवृत्ति विकसित हुई । परिस्थिति चने भी विकास की अवधारणा को बदलने में सहयोग दिया है । आजका विश्व इच्छा-नियन्त्रण, संग्रह-नियन्त्रण के सिद्धांत को अपना कर विशाल आबादी को रोटी, कपड़ा और मकान नहीं दे सकता। इसलिए संयम, सीमाकरण का सिद्धांत पुराना हो चुका है। नई समस्या को सुलझाने के लिए आवश्यक हो गया है नया चिन्तन और नया सिद्धांत । उसी के आधार पर बड़े-बड़े कारखाने चल रहे हैं और आर्थिक विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं पन्नों पर उतर रही हैं । महावीर ने असंग्रह का सिद्धांत दिया। वह जनसंख्या के आधार पर नहीं दिया। उन्होंने मानवीय मनोवृत्ति और संग्रह के परिणामों को ध्यान में रखकर असंग्रह अथवा इच्छा-संयम का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। बढ़ती हुई जनसंख्या की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने का जो प्रश्न है, उससे महावीर का कोई विरोध नहीं है। उनका विरोध बढ़ती हुई आकांक्षा की मनोवृत्ति से है । वर्तमान समाज में उस मनोवृत्ति के वे परिणाम दिखाई दे रहे हैं, जिनकी घोषणा प्रस्तुत आगम कर रहा है १. आयारो, ११४८ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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