Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Jaysundarsuri, Yashovijay Gani
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 396
________________ [श्रु०१। अ०४। उ०२। नि०२३२] वृत्तिसंयुतं श्रीमदाचाराङ्गसूत्रम् वक्खित्तचित्तेण न सुट्छ णायं, सकुंडलं वा वयणं न व ति॥२३१॥ फलोदयेण इत्यादि। सुगमम्, पूर्ववत्॥२३१॥ तदनन्तरं शौद्धोदनिशिष्यक आहनि०] मालाविहारम्मि मएऽज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण ण सुठु नायं, सकुंडलं वा वयणं न व ति॥२३२॥ मालाविहार० इत्यादि। पूर्ववत्॥२३२॥ एवमनया दिशा सर्वेऽपि तीर्थका वाच्याः। 'आर्हतः तु पुनः न कश्चिदागतः' इति राजा अभाणि। मन्त्रिणा तु 'आईतक्षुल्लकोऽपि एवम्भूतपरिणाम इत्येवं सम्प्रत्यय एषां स्याद्' इत्यतो भिक्षार्थं प्रविष्टः प्रत्युषसि एव क्षुल्लकः समानीतः। तेनापि गाथापादं गृहीत्वा बभाषे, तद्यथानि०] खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स। किं मज्झ एएण विचिंतिएण 'सकुंडलं वा वयणं ण व?' त्ति॥२३३॥ खंतस्सेत्यादि। अत्र च क्षान्त्यादिकं अपरिज्ञाने कारणं उपन्यस्तम्, न पुनः व्याक्षेपः इत्यतो गाथासंवादात् क्षान्ति-दम-जितेन्द्रियत्वा-ऽध्यात्मयोगाधिगतेश्च कारणाद् राज्ञो धर्मं प्रति भावोल्लासोऽभूत्। क्षुल्लकेन च धर्मप्रश्नोत्तरकालं पूर्वगृहीतशुष्केतरकर्दमगोलकद्वयं भित्तौ निक्षिप्य गमनमारेभे। पुनः गच्छन् राज्ञा उक्तः-'किमिति भवान् धर्मं पृष्टोऽपि न कथयति ?'। स च अवोचत्- 'हे मुग्ध ! ननु कथित एव धर्मो भवतः शुष्केतरगोलकदृष्टान्तेन'। एतदेव गाथाद्वयेनाहनि०] उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गती॥२३४॥ नि०] एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ ण लग्गति, जहा से सुक्कगीलए॥२३५॥ ॥ चतुर्थे द्वितीयः ॥ उल्लो सुक्को गाहा एवं लग्गति गाहा। अयमत्र भावार्थः- ये हि अङ्ग-प्रत्यङ्ग टि० १. सुट्ठु दिलृ ञ।। २. मालाविहारे मयि अज दिट्ठा ञ॥ ३. आर्हतः क्षुल्लको० खपुस्तकं विना।। ४. ०त्वा गाथा बभाषे घ ङ च । ०त्वा श्लोकः बभाषे ग॥ ५. ०योगे गय० ञ। जोगेसु सा(स)माहियस्स ख॥ ६. श्लोकसंवादात् ग।। ७. सुक्खो क-छपुस्तके विना।। ८. यावडिया झ॥ ९. उल्लो सो य लग्गती ख। तुल्लो सो तत्थ लग्गती छ। उल्लो सोऽत्थ लग्गई झ ठ। उल्लो तत्थ लग्गती ञ विना ॥१०. ण रज्जति ख॥११. ०गोलओ ॥२३५॥ चतुर्थे द्वितीयः झ। ०गोलए ॥२३५॥ चतु०ऽध्य० द्वि०उद्दे०नियुक्तिः ॥ठ॥ ३४४

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