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शीलांकाचार्यकृतकृतिविषयकसमालोचना ऐसी कल्पना की है। इसी प्रकार इसी प्रस्तावना के अन्तमें (परिशिष्टमें) आचारांग-सूत्रकृतांगके टीकाकार शीलाचार्य एवं प्रस्तुत ग्रन्थ चउपन्नमहापुरिसचरियके कर्ता एक हैं एसा भी अनुमान किया है । उन्हें प्रसतुत ग्रन्थकी प्रति उस समय प्राप्त नही हुई थी, अत: ऐसी कल्पना करना उनके लिए स्वाभाविक था; परन्तु मैने उपर असंदिग्धरूपसे सूचित किया ही है कि समकालीन होने पर भी ये दोनों शीलाचार्य एक नहीं किन्तु भिन्न हैं ।
आगमोद्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरिजीने विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति की प्रस्तावनामें आचारांग के टीकाकार शीलाचार्यके तत्त्वादित्य नामको(जो सभी प्रतियोंमें उपलब्ध होता है) कविकृत मानकर उन्हें तथा चउपन्न के कर्ता शीलाचार्य को अभिन्न बतलाया है, किन्तु यह विधान संगत प्रतीत नहीं होता । दोनों आचार्योंकी भिन्नताका निषेध करनेके लिये तत्त्वाचार्य के नामके लिए 'कविकृत' विशेषणका प्रयोग करके उसे प्रक्षिप्त माननेका उनका आशय हो या न हो, परन्तु उससे इतना तो फलित होता ही है कि उन्हें आचारांग-सूत्रकृतांगवृत्तिकार शीलाचार्य का दूसरा नाम तत्त्वादित्य स्वीकार्य नहीं है। उनके इस विधानसे कोई ऐसा भी समझ सकता है कि वह नाम स्वयं ग्रंथकारने नहीं लिखा है ऐसा श्री सागरानंदसूरिजीका मानना है । परन्तु जो नाम आचारांगकी उपलब्ध प्रातीनतम प्रतियोंमें लिरपवाद रूपसे उपलब्ध होता है उसका बिना किसी आधारके निषेध करना उचित नहीं है । किसी भी विद्वान्ने अन्य विद्वान्के ग्रन्थमें अपरनाम कल्पित करके जोड़ दिया हो ऐसा कभी नहीं हुआ । इतना ही नहीं, ऐसा दुस्साहस किसने और किस हेतुसे किया होगा इसका उत्तर जिसका कोई आधार नहीं ऐसे 'कविकृत' शब्दप्रयोगसे नहीं मिलता । मुनिश्री जिनविजयजीको तो चउपन्नमहापुरिसचरियकी प्रति नहीं मिली थी, अतः उन्होंने दोनोंके एकत्वका अनुमान किया था; परन्तु श्री सागरानंदसूरिजीको तो चउपन्न के कर्ता शीलाचार्यका 'विमलमति' नाम मिला है, फीर भी दोनोंकी भिन्नताके बदले एकके अपरनामको व्यर्थ मानकर उनका एकीभाव उन्होंने क्यों किया होगा यह हमारी समझ में नहीं आता ।
श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाईने जीतकल्पसूत्रकी उपर्युक्त प्रस्तावना का अनुसरण करके आचारांग के टीकाकार तथा चउपन्न के रचयिताको एक माना है । इसके विषयमें तो कुछ विशेष लिखने का नहीं है । किं तु जीतकल्पसूत्रकी प्रस्तावना में कोट्याचार्य शीलांक, अणहिल्लपुरके स्थापक वनराजके विद्यागुरु शीलगुणसूरि, आचारांग के टीकाकार शीलाचार्य और चउपन्न के रचयिता शीलाचार्य के एक होने के अनिश्चित अनुमान किये है(जो उसी प्रस्तावनामें किये गये परिशिष्टके आधार पर असंगत और अनिर्णीत कहे जा सकते है)उनके आधार पर वनराजके गुरु शीलगुणसूरि और दोनों शीलाचार्योंको एक जानकर श्री देसाईने उनकी स्तुति के रूपमें मुनिरत्नसूरिकृत अममस्वामिचरित्रका जो श्लोक उद्धृत किया है वह भी शीलगुणसूरि या शीलाचार्यकी स्तुतिरूपमें नहीं है, किन्तु उससे तो श्रीहेमचन्द्राचार्यकी स्तुति की गई है । वह श्लोक इस प्रकार है
गुरुर्गुर्जरराजस्य चातुर्विद्यैकसृष्टिकृत् । त्रिषष्टिनरसद्वृत्तकविर्वाचां न गोचरः ॥
इसमें आये हुए 'गुर्जरराज' शब्दका अर्थ कुमारपाल के बदले वनराज उसके विद्यागुरु शीलगुणसूरिका तथा त्रिषष्टिशलकापुरुषचरित्रके बदले चउपन्नमहापुरिसचरियकी कल्पना करके शीलाचार्यका ऐक्य सूचित करनेका आशय मालूम पडता है, परन्तु 'चातुर्विद्यैकसृष्टिकृत्' विशेषण जितना हेमचन्द्राचार्यके लिए उपयक्त लगता है उतना शीलगणसरि या शीलाचायके लिए उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । इसके अलावा
टि० १.देखो 'जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' पृ०१८०-८१ ।
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