Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Jaysundarsuri, Yashovijay Gani
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 488
________________ पञ्चमं परिशिष्टम् त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके निर्देशका आशय भी इसमें स्पष्ट अवगत होता है । सम्भावनाओं को विघान मानकर किया गया निर्णय कैसा असंगत होता है यह जाननेके लिए उपर्युक्त श्लोकका श्रीदेसाईकृत अर्थ एक उदाहरणरूप है। प्रस्तुत विचारके सन्दर्भ में एक बात विशेष सूचक है; अन्तमें इसका निर्देश करना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है। आचारांग एवं सूत्रकृतांगके टीकाकार अपना नाम तत्त्वादित्य एवं शीलाचार्य सूचित करते हैं, किन्तु कहीं कहीं प्रत्यंतररूपसे शीलांकका भी निर्देश मिलता है । इस परसे यह संभावना होती है कि उनका मूल नाम शीलाचार्य होगा किन्तु बादमें शीलाचार्य का और शीलांकाचार्यका एकीकरण हो जाने के कारण वे शीलांक नामसे भी प्रसिद्ध हुए । ३. चउपन्नमहापुरिसचरियके कर्ता शीलाचार्यका परिचय दिया जा चुका है। ४. जीवसमासवृत्तिमें ग्रन्थकार अपना नाम शीलांक सूचित करते है । इसमें अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी इसमें उपलब्ध न होनेसे ग्रन्थके साद्यन्त अवलोकनके अनन्तर ही कुछ कहा जा सकता है। सरसरी निगाहसे मैं सारा ग्रन्थ देख तो चुका हूँ, परन्तु उसके आधारपर किसी निर्णयपर आना इस समय कठिन है । ५. शीलाचार्यरचित पूजाविधिविषयक कोई कृति का जो निर्देश बृहट्टिपनिकामें आता है वह इस प्रकार है- 'श्रीशान्तिवेतालीयपर्वपंजिका स्नपनविध्यादिवाच्या श्री शीलाचार्यांया।' इस उल्लेख परसे ज्ञात होता है कि इस कतिका विषय पजाविधि रहा होगा। अब तक इसकी एक भी प्रति उपलब्ध नहीं हई अतः नाममात्रका उल्लेख करनेवाले उपर्युक्त उल्लेखके आधार पर इतनी मात्र संभावना की जा सकती है कि स्नपनविधि आदि विषयक कोई ग्रन्थ शीलाचार्यका था जिस पर वादिवेताल शान्त्याचार्यने पंजिका लिखी थी। ६. हेमचन्द्रीय देशीनाममालाकी टीकामें निर्दिष्ट शीलांक चउपन्नके शीलांक होने चाहिए ऐसे अनुमानका निर्देश मैने उपर किया ही है। ७. प्रभावकचरित्रमें निर्दिष्ट शीलांकके बारमें पहले कहा जा चुका है । ८. लगभग १३वी शतीकें आचार्य विनयचन्द्रने अपनी काव्यशिक्षाके अन्तमें व्यास आदि ब्राह्मण ग्रन्थकारोंके नामोंके साथ जैन ग्रन्थकारोंका भी नामनिर्देश किया है। उसमें शीलांकका नाम भी आता है। काव्यशिक्षाका वह पाठ इस प्रकार है भद्रबाहुर्हरिभद्रः शीलांकः शाकटायनः । उमास्वातिः प्र.......॥ (आगेका पत्र उपलब्ध नहीं) इसमें केवल नामका ही निर्देश होनेसे लेखकको कौनसे शीलांक अभिप्रेत हैं यह जानना कठिन है, तथापि काव्यशास्त्रमें स्मृत शीलांक ऐसे होने चाहिए जो व्याकरण, काव्य, कोश, चरित्र आदिके रचयिताके रूपमें ख्यातनाम हो । यह तर्क हमें ऐसी सम्भावनाकी ओर ले जाता है कि लेखकको शीलांक पदसे शायद चउप्पन्नके रचयिता शीलांक अभिप्रेत हो ।" टि० १. देखो ‘पत्तनस्थजैनभाण्डागारीयसूचि' (ओरिएण्टल इन्स्टिटयूट, बडौदा प्रकाशित) पृ.५० । ७४

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