Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Jaysundarsuri, Yashovijay Gani
Publisher: Divyadarshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 485
________________ ५. शीलाङ्काचार्यकृतकृतिविषयकसमालोचना - ले०अमृतलाल मोहनलाल भोजक ग्रन्थ "शीलांक वा शीलाचार्य के सम्बन्धमें भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानोंने कुछ आनुमानिक विचार प्रदर्शित किये हैं । उन्ही नामके एक विद्वान् द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन करते समय उपर्युक्त पूर्वभूमिका के आधार पर जो बातें ज्ञात हुई है उनका निर्देश करना यहाँ उपयुक्त होगा । इस समय शीलांक अथवा शीलाचार्यने निम्न ग्रन्थों की रचना की है- ऐसे उल्लेख मिलते हैं कर्ता १. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति शीलांक-कोट्याचार्य(निर्देशः प्रभावक चरित्र) २. आचारांग-सूत्रकृतांगटीका शीलाचार्य-तत्त्वादित्य-शीलांक ३. चउपन्नमहापुरिसचरिय शीलाचार्य-विमलमति-शीलांक ४. जीवसमासप्रकरणवृत्ति शीलांक ५. पूजाविधिप्रकरण(?) शीलाचार्य (निर्देशः बृहट्टिप्पनिका) ६. अज्ञात-अप्राप्य देशीशब्दकोश अथवा देशीशब्दकोशकी वृत्ति शीलांक (निर्देशः हेमचन्द्र) ७. एकादशांगवृत्ति शीलांक (निर्देशः प्रभावक चरित्र) ८. इनके अतिरिक्त विनयचन्द्रीय (विक्रमकी १३वी शती) काव्यशिक्षामें शीलांकका निर्देश है । १. इनमेंसे विशेषावश्यकभाष्यके के टीकाकार कोट्यचार्यका नाम शीलांक भी है- ऐसा विधान करनेवाले विद्वानोंमें से सबने इस विधान के आधार के रूपमें प्रभावकचरित्र के अतिरिक्त दूसरे किसी ग्रन्थ का प्रमाण नहीं दिया । उसमें विशेषावश्यकभाष्य की वृत्ति के रचयिता शीलांक को ही एकादशांगवृत्तिकार भी कहा है। उसमें ऐसा भी उल्लेख आता है कि ग्यारह अंगोकी वृत्तियों में से केवल आचारांग एवं सूत्रकृतांगकी वृत्तियों के अतिरिक्त शेष नौ अंगोकी वृत्तियोंके नष्ट होने पर शासन देवताने अभयदेवसूरिको उन अंगो की टीका लिखने के लिए प्रेरित किया । प्रभावकचरित्रकारका शासनदेवतावाला यह निर्देश या तो किसी निर्मूल दन्तकथाके उपर आधारित है या फिर स्वयं उनकी अपनी ही कल्पना है । अभयदेवसूरिके समयमें शीलांक अथवा अन्य किसी विद्वानकी अवशिष्ट नौ अंगो पर वत्ति होती तो "अर्थरूपी रत्नके साररूप देवता द्वारा अधिष्ठित तथा विद्या एवं क्रिया से बलवान् होने पर भी किसी पूर्वपुरूषने जिसका उन्मुद्रण (व्याख्या या टीका)नहीं किया वैसे स्थानांगका व्याख्यामूलक अनुयोग आरंभ किया जाता है ।" इस प्रकार अभयदेवसूरि स्वयं अपनी स्थानांगवृत्ति के प्रारम्भ में न लिखते । इससे तो यही सिद्ध होता है कि टि० १.(वायवर्गन सरता २ ते भाटे अमे महा सभा तरथी ते निर्देश २४ अश छी.) श्री शीलांकः पुरा कोट्याचार्यनाम्ना प्रसिद्धिभूः । वृत्तिमेकादशाङ्गया स विदधे धौतकल्मषः ॥ - प्रभावकचरित्र, भा०१, पृ०१६४ २."विविधार्थरत्नसारस्य, देवताधिष्ठतस्य, विद्या-क्रियावलवतापि पूर्वपुरुषेण कुतोऽपि कारणादनुन्मुद्रितस्य स्थानाङ्गस्योमुद्रणमियानुयोगः प्राधान्यते ॥" -स्थानाङ्गटीकाके प्रारम्भमें । ७१

Loading...

Page Navigation
1 ... 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496