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तलसी प्रज्ञा
TULASI-PRAJNA
QUARTERLY RESEARCH JOURNAL OF ANEKĀNTA SODHA-PITHA, JAIN VISHVA BHARATI
सितम्बर, १९६०
अङ्क २
अनेकांत शोध-पीठ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान)
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धर्म और दर्शन*
- आचार्य श्री तुलसी
धर्म और दर्शन ये दो शब्द हैं । प्रश्न है, धर्म और दर्शन एक हैं या दो ? धर्म क्या है ? दर्शन क्या है ? महापुरुषों ने अनुभव की आंख से जिसका साक्षात् किया, वह दर्शन है । उन्होंने वाणी से जो रास्ता बतलाया, वह धर्म है।
जैन-दर्शन क्या है ? जिन भगवान् ने आत्म-साक्षात्कार के स्तर पर जो देखा, वह दर्शन है । जिन का दर्शन जैन-दर्शन है । 'जिन' किसी का नाम नहीं है । यह गुणात्मक शब्द है । जो वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, वे जिन हैं। जितने तीर्थकर/केवली हुए हैं, वे सब जिन हैं । हमारे जिन/तीथंकरों की अनुभूतियां ही जैन-दर्शन है।
इसी तरह बुद्ध की वाणी बौद्ध-दर्शन कहलाती है । वेदों पर आधत दर्शन वैदिकदर्शन कहलाता है । वेद क्या है ? वेद ग्रन्थ हैं। वैदिक लोगों के मतानुसार वेद किसी मनुष्य द्वारा रचित नहीं हैं, सहज हैं । भगवान् के मुख की वाणी हैं । इसी क्रम में मुहम्मद साहब का दर्शन इस्लाम-दर्शन और क्राइस्ट का दर्शन ईसाई-दर्शन कहलाता है। जब भी कोई पुरुष द्रष्टा बनेगा, साक्षात्कार करेगा, उसकी वाणी दर्शन बन जाएगी।
धर्म दर्शन के द्वारा निर्दिष्ट मंजिल को पाने का रास्ता है । सत्य का आचरण धर्म है। अहिंसा का आचरण धर्म है। संक्षेप में कह सकते हैं, दर्शन हमारे लक्ष्य का निर्धारण करता है । धर्म हमें उसे पाने का रास्ता बतलाता है।
हम जैन-दर्शन और धर्म के प्रति आस्थाशील हैं। यद्यपि आस्था बहुत ऊंचा तत्त्व है, पर मजिल तक पहुंचने के लिए वह पर्याप्त नहीं है । आस्था के साथ-साथ तत्त्व की जानकारी भी अपेक्षित है।
भगवान् सिर्फ मार्ग बतलानेवाले हैं, चलना हमें स्वयं होगा । भगवान् ने सत्य तक पहुंचने का मार्ग बता दिया है। अब हम अपने विवेक और पुरुषार्थ का उपयोग करें। 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा'-आत्मा से स्वयं सत्य का अन्वेषण करो; महावीर का अन्तिम मत मानो। यह संदेश इस बात की ओर स्पष्ट इंगित करता है कि साधना के क्षेत्र में व्यक्ति स्वयं खोज करे । क्योंकि वह मनुष्य है, चेतन है विवेकशील है। वह भित्तिचित्र नहीं है।
हम प्रतिक्षण इस बात का अनुभव करते हैं कि हमारी चेतना सक्रिय है। इसलिए हमें सत्य खोजते रहना है । अनन्त सत्य के साक्षात्कार का यही मार्ग है।
* 'प्रवचन पाथेय' (सन् १९७८-७६) के प्रवचन से साभार
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प्रधान-सम्पादक डॉ. नथमल टाटिया
सम्पादक डॉ. मंगल प्रकाश मेहता
पास्ता
अनेकांत शोध-पीठ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान)
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___खण्ड १६
सितम्बर, १९६०
अंक २
अनुक्रमणिका
१. समणी कुसुमप्रज्ञा : उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन
२. डॉ० के० आर० चन्द्र : प्राकृत व्याकरण में प्रयुक्त मध्यवर्ती प और
व की परीक्षा
३. डॉ० रज्जन कुमार : पृथ्वीकाय : एक विवेचन ४. नंदलाल जैन : जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार
५. डॉ. परमेश्वर सोलंकी : 'त्रिलोकसार' का कल्की राजा और यूनानी
लेखकों का सैण्ड्राकोटस क्या एक हैं ?
६. चन्द्रकांत बाली, उपेन्द्रनाथ राय : सुमतितंत्र का शकराजा और
उसका कालमान (प्रतिक्रियाएं)
7. Muni Mahendra Kumar : Theory of Relativity and Space
Time
8. Dr. (Mrs.) Ratna Purohit : New Dimensions in Yoga
Philosophy
9. Jagat Ram Bhattacharyya : Some Problems of
Māgadhi Dialect
आजीवन शुल्क : रु० ५०१.००
वार्षिक शुल्क : रु. ३५.००
इस अङ्क का मूल्य : रु० २०.०० नोट—यह आवश्यक नहीं है कि इस अंक में प्रकाशित लेखों में उल्लिखित विचार
सम्पादक अथवा संस्था को मान्य हों।
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उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन
समणी कुसुमप्रज्ञा
उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार प्रधान आगम है । इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है । जार्ल शान्टियर, डा. गेरिनो, विटरनित्स, हर्मनजेकोबी आदि विद्वानों ने इसे आगम की सूची में ४१ वां आगम ग्रन्थ माना है। इसकी गणना मूलसूत्रों में की गई है । शान्टियर तथा प्रो० पटवर्धन के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र (Original-Text) कहा गया है। किंतु यह कथन युक्तिसंगत नहीं लगता क्योंकि दशवकालिक मूलसूत्र के अन्तर्गत है, किंतु आचार्य शय्यंभव द्वारा प्रतिपादित है। डा० शूबिंग ने प्रारंभिक साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इसे मूलसूत्र कहा है । फ्रांसीसी विद्वान् प्रो० गरिनो के अनुसार इस सूत्र पर अनेक टीकाटिप्पणियां लिखी गई इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया । जैन-तत्त्व-प्रकाश में उल्लेख मिलता है कि यह ग्रन्थ सम्यक्त्व की जड़ को मजबूत बनाता है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया है।
चूर्णिकालीन श्रुतपुरुष की मूल स्थापना में आचारांग और सूत्रकृतांग का स्थान था। उत्तरकालीन श्रुतपुरुष के मूलस्थान में दशवकालिक और उत्तराध्ययन आ गए। इन्हें मूलसूत्र मानने का यही सर्वाधिक संभावित हेतु है, ऐसा आचार्य श्री तुलसी का मंतव्य है। ____ मूलतः आगमों का अध्ययन उनसे प्रारम्भ होता है तथा उसमें मुनि के मूलगुणोंमहाव्रत, समिति आदि का निरूपण है, अतः ये मूल सूत्र कहलाते हैं।
मूलसूत्र की संख्या एवं उनके नामों के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है किंतु उत्तराध्ययन को सभी ने एकस्वर से मूलसूत्र माना है। कुछ लोग उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक-इन तीनों को ही मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत करते हैं । विटरनित्स ने इन तीनों के अतिरिक्त पिंडनियुक्ति को और ग्रहण किया है। कुछ मान्यताओं के अनुसार पिडनियुक्ति, ओधनियुक्ति सहित पांच मूलसूत्र स्वीकृत हैं। कहीं-कहीं आवश्यक को भी मूलसूत्र के अन्तर्गत परिगणित किया है। तेरापंथ की मान्यताओं के अनुसार दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार इन चार सूत्रों को मूलसूत्र के अन्तर्गत स्वीकृत किया गया है। मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की ११ वीं१२ वीं शताब्दी के बाद हुआ है ऐसा अधिक संभव लगता है क्योंकि उत्तराध्ययन की चूणि एवं टीका मैं ऐसा कोई उल्लेख नहीं है ।
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मूलसूत्रों की संख्या की भांति उसके क्रम में भी अंतर मिलता है । जैन साहित्य के बृहद् इतिहास में निम्न क्रम मिलते हैं ।
१. उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक । २. उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, पिंडनियंक्ति। ३. उत्तराध्ययन, दशवकालिक, आवश्यक, पिंडनियुक्ति तथा ओधनियुक्ति। ४. उत्तराध्ययन, आवश्यक, पिंडनियुक्ति तथा ओधनियुक्ति, दशवकालिक ।
उत्तराध्ययन का परिगणन धर्मकथानुयोग में किया गया है। किंतु आचार का प्रतिपादन होने से चरणकरणानुयोग तथा दार्शनिक विवेचन होने से द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत भी इसको रखा जा सकता है । दिगम्बर साहित्य में अंगबाह्य के १४ प्रकारों में सातवां दशवैकालिक और आठवां उत्तराध्ययन का स्थान है । नंदीसूत्र में कालिकसूत्रों की गणना में पहला स्थान उत्तराध्ययन तथा उत्कालिक की गणना में पहला स्थान दशवकालिक का है।
नंदी में "उत्तरज्झयणाणि" यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक तथा नियुक्ति में भी 'उत्तरज्झाए' ऐसा बहुवचनात्मक नाम मिलता है। चूणिकार ने छत्तीस उत्तराध्ययनों का एक श्रुतम्कंध (एक ग्रन्थ रूप) स्वीकार किया है। इस बहुवचनात्मक नाम से यह फलित होता है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एककर्तृक ग्रन्थ नहीं।
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्दों का प्रयोग है-उत्तरअध्ययन और उत्तर शब्द के अर्थ के बारे में विद्वानों में काफी विचार भेद है । उत्तरशब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं१. प्रधान, २. जवाब, ३. परवर्ती। हरिभद्र के अनुसार यहां उत्तर शब्द का प्रयोग प्रधान या अति प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है । प्रो० जेकोबी, बेबर तथा शान्टियर ने भी इसी तथ्य का उल्लेख किया है। इसके विपरीत "उत्तरकांड", "उत्तररामायण", "उत्तरखंड", उत्तरग्रन्थ आदि नामों की लंबी सूची मिलती है । जिसमें उत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती या अन्तिम अर्थ में हुआ है।
उत्तराध्ययन के नियुक्तिकार ने उत्तरशब्द के १५ निक्षेप किए हैं । नियुक्ति के अनुसार यह आचारांग सूत्र के बाद पढ़ा जाता था अत: इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा।' टीकाकर शांत्याचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि दशवैकालिक की रचना के बाद यह सूत्र दशवकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। जेकोबी उत्तर शब्द के इसी अर्थ से सहमत है। प्रो० लायमन के अनुसार आचारांग आदि ग्रन्थों के उत्तरकाल में रचा होने के कारण यह उत्तराध्ययन कहा जाता है ।
उत्तर शब्द का प्रयोग परवर्ती या अंतिम अर्थ में हुआ है, अतः शान्टियर ने उत्तराध्ययन का अर्थ किया है अन्तिम अध्याय । जैन परम्परा में यह मान्यता भी बहुत प्रसिद्ध है कि महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व ५५ अध्ययन पुण्य-पाप के तथा छत्तीस अपुटुवागरणाई अर्थात् बिना पूछे ३६ प्रश्नों के उत्तर दिए। अतः विद्वानों का यह कथन है कि यह छत्तीसं अपुट्ठवागरणाइं शब्द उत्तराध्ययन से ही संबंधित होना चाहिए क्योंकि जैन परम्परा में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है जिसके ३६ अध्ययन हों। इस कथन
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की पुष्टि में शान्टियर आदि विद्वान् उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं कि महावीर उत्तराध्ययन का कथन करते हुए परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
इउ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्माए, भवसिद्धीय सम्मए ।। (उ० ३६।२६८)
किन्तु इस कथन की सत्यता में संदेह है। विद्वानों की मान्यता है कि उत्तराध्ययन के महत्त्व को प्रकट करने के लिए बाद में उपरोक्त गाथा जोड़ दी गई है।
टीकाकार शान्त्याचार्य उत्तराध्ययन को महावीर निर्वाण के अंतिम उपदेश के रूप में मानने को तैयार नहीं हैं । अतः उन्होंने परिनिव्वुए का अर्थ स्वस्थीभूत किया है । उत्तर शब्द पूर्व सापेक्ष है । चूर्णिकार ने प्रस्तुत अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है।
१. स उत्तर-पहला अध्ययन २. निरुत्तर-छत्तीसवां अध्ययन ३. सउत्तर निरुत्तर-बीच के सारे अध्ययन ।
दिगम्बर आचार्यों ने भी उत्तर शब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है । धवलाकार के अनुसार उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है । यहां उत्तर शब्द समाधान सूचक है। अंगपण्णत्ति में उत्तर के दो अर्थ हैं-१. किसी ग्रन्थ के पश्चात् पढा जाने वाला २. प्रश्नों का उत्तर देने वाले अध्ययन ।
उत्तर के बाद दूसरा शब्द अध्ययन है। यद्यपि अध्ययन शब्द सामान्यतया पढ़ने के लिए प्रयुक्त होता है किंतु प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग परिच्छेद प्रकरण और अध्याय के अर्थ में हुआ है । नियुक्तिकार एवं टीकाकार शान्त्याचार्य ने इस शब्द पर नियुक्ति आदि की दृष्टि से काफी विमर्श किया है। किंतु इसका मूल अर्थ परिच्छेद या अध्याय के लिए ही हुआ है।
सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है-जिसमें शब्द कम तथा अर्थ विपुल हो । जैसेपातंजल योगसूत्र, तत्वार्थ सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि । उत्तराध्ययन सूत्र में परम्परागत मान्यताओं के विपरीत सूत्ररुपता का अभाव है तथा विस्तार अधिक है। यद्यपि आत्मारामजी ने अनेक उद्धरणों के माध्यम से इसे सूत्रग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है किंतु सामान्यव्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण इस ग्रन्थ में घटित नहीं होता है। शान्टियर का भी मानना है कि सूत्र शब्द का प्रयोग इसके लिए सटीक नहीं हुआ है क्योंकि विधिविधान, दर्शन नथ तथा व्याकरण आदि ग्रंथों में सूत्रात्मक शैली अपनाई जाती है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रयोग अधिक प्रचलित था। जैनों ने भी परम्परा में सूत्रात्मक शैली न होते हुए भी ग्रंथ के साथ सूत्र शब्द जोड़ दिया।
नियुक्तिकार के अनुसार यह ग्रंथ किसी एक कर्ता की कृति नहीं किंतु यह संकलन ग्रथ है । उनके अनुसार इसके कर्तृत्व को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है । 'अंगप्पभवा जिणभासिया च पत्तेयबुद्ध संवाया' ।
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१. अंगप्रभवः -दूसरा अध्ययन (परीह्यविभत्ती) २. जिनभाषित:-दसवां अध्ययन (दुमपत्तयं) ३. प्रत्येक बुद्ध भाषितः-आठवां अध्ययन (काविलीयं) ४. संवाद समुत्थितः-नवां मोर तेईसवां अध्ययन (नमिपव्वज्जा)
वादिदेव शांतिसूरि ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि उत्तराध्ययन सूत्र का दूसरा अध्ययन दृष्टिवाद से लिया गया है । द्रुमपुष्पिका नामक दसवां अध्ययन महावीर द्वारा प्ररूपित है । कापिलीय नामक आठवां अध्ययन प्रत्येकबुद्ध कपिल ने प्रतिपादित किया है तथा केशिगौतमीय नामक तेईसवां अध्ययन संवाद रूप में प्रतिपादित है। (उशाँटी १५:६) यद्यपि उत्तराध्ययन में सभी अध्ययनों की विषय वस्तु बहुत व्यवस्थित और सुनियोजित है फिर भी यह आशंका होती है कि क्या सभी अध्ययन एक व्यक्ति द्वारा निरूपित हैं । इस प्रश्न के समाधान में जेकोबी का मंतव्य है कि इस प्रथ में अभिव्यक्ति की भिन्नता है। शैली की भी भिन्नता है । एक लेखक की कृति में ऐसा नहीं हो सकता । पर ये सब कब रचे गए, इसका व्यवस्थित रूप कब बना, यह कहना कठिन है। किंतु वे अपनी मान्यता प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि इसका अधिकांश भाग बहुत पुराना है ।
कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि उत्तराध्ययन के प्रथम १८ अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन । किंतु इस मत की पुष्टि का कोई सबल प्रामण नहीं है। किंतु इतना निश्चित है कि इसके कई अध्ययन प्राचीन हैं तथा कई अर्वाचीन ।
____ आचार्य श्री तुलसी के मंतव्यानुसार उत्तराध्ययन के अध्ययन ई० पू० ६०० से ईसवी सन् ४०० लगभग हजार वर्ष की धार्मिक एवं दार्शनिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवधिगणी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्ययनों का संकलन कर इसे एकरूप कर दिया । इन सब तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि यह संकलनसूत्र है, एक कर्तृक नहीं। इसका प्रवचन भी किसी एक काल में न होकर विभिन्न समयों में हुआ है । विंटरनित्स इसी मत से सहमत हैं । कुछ अंश बादमें स्थविरों द्वारा जोड़े गए हैं। इसका प्रमाण है 'कोशिगौतमीय अध्ययन' । महावीर स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करते । दूसरी बात सम्यक्त्व पराक्रम में जो प्रश्नोत्तर हैं वे अंगसूत्रों को प्रश्नोत्तर शैली से बिलकुल भिन्न हैं । जार्ल शान्टियर का अभिमत है कि यह प्रारम्भ में मूल रूप से बौद्ध ग्रंथ धम्मपद और सुत्तनिपात के समान था। प्रारम्भ में संभवतः इसमें सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करने वाले अध्ययन नहीं थे। केवल संन्यासी जीवन की दिव्यता एवं अनेक आधार से सम्बन्धित धार्मिक कथाएं संकलित थीं । कालान्तर में यह अनुभव किया गया कि इसमें धार्मिक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक विषयों का और समावेश किया जाए । अतः परवर्ती काल में इसमें सैद्धान्तिक, दार्शनिक आदि विषय जोड़ दिए गए ।
कुछ विद्वानों की अभिधारणा है कि उत्तराध्ययन में शुद्ध सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करने वाला गद्य भाग अपेक्षाकृत अर्वाचीन और शेष भाग प्राचीन है।
उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन तथा कल्पसूत्र, हरिवंशपुराण, त्रिषष्टिशलाका
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पुरुष चरित्र आदि ग्रन्थों के उल्लेखों से प्रतीत होता है कि इसके कम-से-कम कुछ अंशों के व्याख्याता महावीर रहे हैं । किंतु परिवर्तन एवं परिवर्धन का क्रम महावीर निर्वाण से प्रारम्भ होकर वलभी वाचना के समय तक चलता रहा। रचनाकाल
उत्तराध्ययन का उल्लेख दिगम्बर ग्रंथों में आदर के साथ उल्लिखित है। इससे स्पष्ट है कि संघभेद होने से पूर्व ही यह एक साथ ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था । अन्यथा दिगम्बर परम्परा में इसका उल्लेख नहीं मिलता। ___शांत्याचार्य के अनुसार दशवकालिक की रचना के बाद यह दशवकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। इस बात से स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन की रचना दशवकालिक से पूर्व हो चुकी थी। दशवकालिक के कर्ता शय्यंभव सूरि हैं जिनका समय वीर निर्वाण के ७५ वर्ष बाद माना जाता है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन की प्राचीनता एक ओर तो महावीर निर्वाण काल तक जा पहुंचती है तो दूसरी ओर ऐसे भी उल्लेख हैं जिससे उत्तराध्ययन के अध्ययनों की परवर्तिता सिद्ध होती है । इस सूत्र में वर्णित जातिवाद, दासप्रथा, यज्ञ एवं तीर्थस्थान आदि का वर्णन प्राचीनता के द्योतक हैं। अध्ययन एवं विषयवस्तु
उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययन हैं तथा १६३८ श्लोक हैं। इसके प्रत्येक अध्ययन अपने आप में पूरे हैं और उनमें आपस में कोई सम्बन्ध परिलक्षित नहीं होता। समवायांग में जिन ३६ अध्ययनों का नामोल्लेख मिलता है वे वर्तमान में उपलब्ध उत्तराध्ययन के अध्ययनों के नामों से कुछ भिन्न हैं । नामों की भिन्नता होने पर भी विषयगत भिन्नता नहीं हैं । नियुक्तिकार द्वारा निर्दिष्ट नामों में भी कुछ वैषम्य दिखाई देता है।
नाम
उत्तराध्ययन १. विनयश्रुत २. परीषहप्रविभक्ति ३. चातुरंगीय ४. असंस्कृत ५. अकाभमरणीय ६. क्षुल्लक निग्रंथीय ७. उरभ्रीय ८ कापिलीय ६. नमिप्रव्रज्या १०. द्रुमपत्रक ११. बहुश्रुतपूजा
नियुक्तिकार १. विनयश्रुत २. परीषह ३. चतुरंगीय ४. असंस्कृत ५. अकाभमरण ६. निग्रंथ ७. औरभ्र ८. कापिलीय ६. नमिप्रव्रज्या १०. द्रुमपत्रक ११. बहुश्रुतपूजा
समवाओ १. विनयश्रुत २. परीषह ३. चातुरंगीय ४. असंस्कृत ५. अकाभमरणीय ६. पुरुषविद्या ७. औरभ्रीय ८. कापिलीय ६. नमिप्रव्रज्या १०. दुमपत्रक ११. बहुश्रुतपूजा
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१२. हरिकेशीय १२. हरिकेश
१२. हरिकेशीय १३. चित्रसंभूति १३. चित्रसंभूति
१३. चित्रसंभूत १४. इषुकारीय १४. इषुकारीय
१४. इषुकारीय १५. सभिक्षुक १५. सभिक्षु
१५. सभिक्षुक १६. ब्रह्मचर्यसमाधि स्थान १६. समाधिस्थान
१६. समाधिस्थान १७. पापश्रमणीय १७. पापश्रमणीय
१५. पापश्रमणीय १८. संजतीय १८. संयतीय
१८. संजतीय १६. मृगापुत्रीय १६. मृगचारिका
१६. मृगचारिका २०. महानिग्रंथीय २०. निग्रंथीय
२०. अनाथप्रव्रज्या २१. समुद्रपालीय २१. समुद्रपालीय
२१. समुद्रपालीय २२. रथनेमीय २२. रथनेमीय
२२. रथनेमीय २३. केशिगौतमीय २३. केशिगौतमीय २३. गौतमकेशीय २४. प्रवचनमाता २४. समिति
२४. समिति २५. यशीय २५. यज्ञीय
२५. यज्ञीय २६. सामाचारी २६. सामाचारी
२६. सामाचारी २७. खलुंकीय २७. खलुंकीय
२७. खंलुंकीय २८. मोक्षमार्गगति २८. मोक्षगति
२८. मोक्षमार्गगति २६. सम्यक्त्वपराक्रम २६. अप्रमाद
२६. अप्रमाद ३०. तपोमार्गगति ३०. तप
३०. तपोमार्ग ३१. चरणविधि ३१. चरण
३१. चरणविधि ३२. प्रमादस्थान ३२. प्रमादस्थान
३२. प्रमादस्थान ३३. कर्मप्रकृति ३३. कर्मप्रकृति
३३. कर्मप्रकृति ३४. लेश्याध्ययन ३४. लेश्या
३४. लेश्याध्ययन ३५. अनगारमार्गगति ३५. अनगारमार्ग
३५. अनगारमार्ग ३६. जीवाजीवविभक्ति ३६. जीवाजीवविभक्ति ३६. जीवाजीवविभक्ति
जेकोबी की मान्यता है कि उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग में समानता है। किंतु उत्तराध्ययन विस्तार से एवं निपुणता से रचा गया है। इसकी विषय वस्तु संक्षेप में इस प्रकार है
१. मुनि को अपनी मूलचर्या का अवबोध देना। २. उदाहरणों एवं घटनाओं द्वारा मुनि जीवन को यशस्वी बनाना। ३. अध्यात्मपथ में आने वाले खतरों से मुनि को अवगत कराना।
४. मुनि को जैन सिद्धान्तों की संक्षिप्त जानकारी देना। भाषा शैली
इसकी मूल भाषा अर्धमागधी प्राकृत है परन्तु कहीं-कहीं महाराष्ट्री प्राकृत के प्रयोग भी बहुलता से मिलते हैं। इसमें व्याकरण सम्बन्धी विशिष्ट प्रयोग भी मिलते
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हैं जो आज भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इसमें सूक्त और सुभाषितों का बहुलता से प्रयोग हुआ है। विंटरनित्स ने इसे श्रमण काव्य की कोटि में रखा है।
इस ग्रंथ की शैली अन्य आगमों की भांति जटिल एवं समासप्रधान नहीं है अपितु सुबोध और सरस है । उत्तराध्ययन की भाषा कितनी प्राचीन है तथा कितनी अर्वाचीन है इसकी विस्तृत चर्चा शान्टियर, जेकोबी और विंटरनित्स आदि विद्वानों ने की है । इसमें संवादात्मक शैली में गंभीर अर्थ का प्रतिपादन है । २३ वां और २६ वां अध्ययन भाषा की दृष्टि से प्राचीन लगता है। अन्य ग्रंथों से तुलनीय प्रसंग
उत्तराध्ययन में अनेक ऐसे स्थल, प्रसंग, कथानक या गाथाएं हैं जो उसी रूप में या परिवर्तन के साथ बौद्ध एवं वैदिक साहित्य विशेषकर महाभारत में मिलती हैं । किञ्चित इस प्रकार के अनेक प्रसंगों की तुलना विटरनित्स, हर्मन जेकोबी, ल्यूमेन तथा जालेशान्टियर आदि विद्वानों ने की है । धम्मपद से इसके अनेक पद्य तुलनीय हैं। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर ग्रंथ मूलाचार में भी इसके विषय में साम्य है। उत्तराध्ययन में द्रव्य, गुण, पर्याय की परिभाषाएं हैं। इसकी तुलना क्रमश: वैशेषिक दर्शन के द्रव्य, गुण और कर्म से की जा सकती है ।
राजा नमि की कथा बौद्ध और वैदिक दोनों परम्पराओं में मिलती है। हरिवंश मुनि की कथा कुछ अंतर के साथ बौद्धों के मातंग जातक में मिलती है। इस अध्ययन की अनेक गाथाएं भी तुलनीय है । चित्रसंभूत कथा तथा इषुकार कथा की तुलना क्रमशः चित्रसम्भूत जातक तथा हत्थिपाल जातक से की जा सकती है । रथनेमीय अध्ययन में श्रीकृष्ण का वर्णन वैदिक साहित्य से तुलनीय है । मृगापुत्र की कथा भी बौद्ध साहित्य में मिलती है। संदर्भ : १. जैन तत्व प्रकाश, पृ० ४३ . २. नंदी टीका, पृ० ७२ ३. उनि ३; कम उत्तरेण पगयं आयारएसेव उवरिगाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु ___ अज्झयणा हुंति नायत्वा ।। उ. चूणि ४. उशांटो प ५; आरतस्तु दशवकालिकोत्तरकालं..... इति ५. सेक्रेट बुक्स आफ द इस्ट ६. धवला, पृ० ८७ ७. उशांटी ५५
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प्राकृत व्याकरण में प्रयुक्त मध्यवर्ती प और व की परीक्षा
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प्राकृत व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार और वकार के सम्बन्ध में ध्वनि-परिवर्तन के जो नियम दिये हैं वे शिलालेखों और साहित्य में कहां तक औचित्य रखते हैं उसी का यहां अध्ययन किया जा रहा है। इस विश्लेषणात्मक अध्ययन से स्पष्ट होगा कि साहित्य और व्याकरण में कितना अन्तर है ।
मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों (टवर्ग के सिवाय) के प्रायःलोप के विषय में हेमचन्द्र का सूत्र इस प्रकार है :
कगचजतदपयवां प्रायो लुक् (८-१.१७७)
इस सूत्र से स्पष्ट है कि अन्य अल्पप्राण व्यंजनों की तरह पकार का भी प्रायःलोप होता है।
इस सूत्र के पश्चात् अन्य स्थल पर पकार के विषय में जो सूत्र दिया गया है वह इस प्रकार है
पो वः (८.१.२३१)
इस सूत्र की वृत्ति में कहा गया है कि पकार का प्रायः वकार होता है । सूत्र की वृत्ति इस प्रकार है
____ स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानावेः पस्य प्रायो वो भवति ।
ये दोनों सूत्र क्या एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं ? इन दोनों का समाधान वृत्ति में इस प्रकार किया गया है
एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपवकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः ।
अर्थात् श्रुतिसुखानुसार लोप या व किया जा सकता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि दोनों सूत्रों में जिस प्रायः शब्द का उपयोग किया गया है वह निरर्थक बन जाता है । व्याकरणकार क्या एक तरफ परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं और दूसरी तरफ उसी में संशोधन कर रहे हैं क्या ? इन विधानों में स्पष्टता का अभाव दृष्टिगोचर हुए बिना नहीं रहता।
वररुचि के व्याकरण में भी यही दोष नजर आता है। उनके प्राकृत-प्रकाश में पहले प्रायः लोप और पुनः प्रायः व होने का आदेश है । वृत्ति में फिर कहा गया है-जहां पर लोप नहीं हो वहां पर व बन जाता है*विभागाध्यक्ष, प्राकृत-पालि विभाग, गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद-6
- तुलसी प्रज्ञा
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कगचजतदपयवा प्रायो लोपः (२.२)
पोवः (२.१५ )
वृत्ति :- प्रायोग्रहणाद्यत्र लोपो न भवति तत्रायं विधिः ।
त्रिविक्रम अपने प्राकृत शब्दानुशासनम् में हेमचंद्र का ही शब्दश: अनुसरण करते हैं । ( देखिए --सूत्र १.३.८; १.३.९ और १.३.५५ एवं अन्तिम सूत्र की वृत्ति) ।
मार्कंडेय भी अपने प्राकृत सर्वस्व में ( सूत्र नं० २०२ और २.१४ ) ऐसा ही विधान करते हैं । उन्होंने हेमचंद्र और वररुचि की तरह कोई समाधान नहीं किया है।
इस दृष्टि से भरतनाट्यशास्त्र का विधान कुछ अलग सा लगता है । उन्होंने अन्य मध्यवर्ती व्यंजनों के साथ में पकार का लोप नहीं रखा है परन्तु लोप के बदले में पकार के वकार में बदलने की बात अलग से उदाहरण देकर कही है। लोप के सूत्र में पका उल्लेख ही नहीं है—
किगतदथवा लोपमत्थं च से वहन्ति सरा ( १७.७ ) फिर पकार के लिए अलग से सूचित किया है किआपण मावाणं भवति पकारेण वत्वयुक्तेन (१७.१४)
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व्याकरणकारों के इन परस्पर विरोधी विधानों एवं भरतमुनि के आदेश को ध्यान में लेते हुए क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि प्रायः लोप का जो सूत्र है उसमें पकार का समावेश नहीं करके उसके लिए ऐसा विधान बनाते कि पकार का लोप या वकार वैकल्पिक है । शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर ऐसा नियम बनाना भी उचित नहीं ठहरता है । मेहेण्डले द्वारा किये गये अध्ययन का सार यह है कि शिलालेखों में मध्यवर्ती पकार का अधिकतर वकार पाया जाता है ( देखिए पृ० २७३ से २७५) । पिशल महोदय (१४७ ) के अनुसार भी मध्यवर्ती पकार का लोप कभी-कभी ही होता है जबकि अधिकतर वकार ही होता है । साहित्यिक उदाहरण भी यही तथ्य स्पष्ट करते हैं । विविध ग्रंथों की भाषा का विश्लेषण यहां पर उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है
(अ) साहित्य में मध्यवर्ती प का लोप या वकार
( प्रन्थ-नाम) प
यथावत् या व
१
(i) सेतुबन्धम् आश्वास २ (ii) गाथासप्तशती
शतक ३,१ से ५० गाथा
(iii) स्वप्नवासवदत्तम् अंक १,२,३ ६
(iv) इसि भासियाई
(क) अ. २६, वर्द्धमान
(ख) अ. ३१, पार्श्व
o
खण्ड १६, अंक २ ( सित०, ६० )
०
२५
३४
२६
२३
११
या लोप
(v) उत्तराध्ययन, अ. १३
( आल्सडर्फ के अनुसार नो ( ६ ) के संस्करणानुसार ] प्राचीन पद्यों का विश्लेषण ) १
१३
३
०
[शार्पेण्टियर एवं पुण्यविजयजी
८
०
प्रतिशत वकार
६०
६२
७४
१००
६१
६३
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(vi) विशेषावश्यक भाष्य २ ७३ .
(१०१ से २०० गाथाएं) (vii) पज्जोसवणा (कल्पसूत्र २३२
से २६१ संपा. पुण्यविजयजी) १२ (viii) बृहत् कल्पसूत्र, अ. १ १७ ।
(घासीलालजी) (ix) सूत्रकृ० इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ संस्करण (ख) म० ज० विद्यालय (x) पण्णवणासूत्र (सूत्र १ से ७४, ३ २०
१३६ से १४७) (xi) षट्खण्डागम (१.१ से ८१ सूत्र) ३ १६ (ब) व के लोप की स्थिति
__ मध्यवर्ती वकार का प्रायः लोप होता है ऐसा जो नियम दिया गया है वह भी उचित नहीं लगता है । पिशल महोदय (१८६) के अनुसार कभी-कभी ही लोप होता है। मेहेण्डले के अनुसार (पृ० २७४-२७५) शिलालेखों में मध्यवर्ती वकार का लोप क्वचित् ही होता है । साहित्य में व का लोप
यथावत्
प्रतिशत यथावत् (i) स्वप्नवासवदत्तम् (अंक १,२,३) ० ४६
१०० (ii) गाथासप्तशती (३.१-५०) १० १२ (iii) सेतुबन्धम् (सर्ग २.१ से ४६) १५
स्वप्नवासवदत्तम् जैसी प्राचीन कृति में व का लोप नहीं मिलता है जबकि परवर्ती महाराष्ट्री'प्राकृत कृतियों गा० स० श० और से० ब० में व का लोप मिल रहा है । क्या इसी कारण वररुचि को व के लोप का सूत्र में उल्लेख करना पड़ा या परवर्ती सम्पादकों पर वररुचि का प्रभाव पड़ा । नीचे दिये जा रहे अर्धमागधी और शौरसेनी के प्राचीन ग्रन्थों की भाषा का विश्लेषण भी यही साबित करता है कि उनमें वकार का प्रायः लोप नहीं मिल रहा है।
लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (iv) इसिभासियाई (क) अ० २६ वर्धमान
० १४
१०० (ख) अ० ३१ पाव
१०० (v) सूत्रकृ• इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ
१०० (शेषांश पृष्ठ ३४ पर
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पृथ्वीकाय: एक विवेचन
डॉ० रज्जन कुमार*
__इस संसार में ऐसे भी जीव पाए जाते हैं जो बाह्य अनुभूतियों का संवेदन मात्र एक इन्द्रिय की सहायता से ही करते हैं, इसलिए इन्हें एकेन्द्रिय जीव कहा जाता है। क्रम से जीवों का विकास होता जाता है और उसके इन्द्रियों की संख्या बढ़ती जाती है। जीव के विकास एवं इन्द्रियों की संख्या में गहरा संबंध है। यह व्यावहारिक एवं स्वअनुभव की ही बात है, क्योंकि हम देखते हैं कि ज्यों-ज्यों जीवों का विकास होता जाता है त्यों-त्यों उनकी सांसारिक अनुभूतियों के संवेदन करने की क्षमता बढ़ती जाती है । जैसे-एकेन्द्रिय में मात्र स्पर्श करने की क्षमता होती है, परन्तु इससे विकसित जीव द्वीन्द्रिय में स्पर्श और रस अर्थात् स्वाद ग्रहण की क्षमता होती है। तात्पर्य यह है कि एकेन्द्रिय में जहां मात्र स्पर्शन् इन्द्रिय होती है, वहीं द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसन् इन्द्रिय होती है । इसी तरह त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि जीव को समझना चाहिए। यह स्पष्ट ही है कि एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय अधिक विकसित है, द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय से पंचेन्द्रिय क्रम से अधिक विकसित जीव है।
प्रत्येक इन्द्रिय का अपना अलग-अलग विषय होता है तथा एक इन्द्रिय अन्य दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकती है । अतः ज्यों-ज्यों जीवों में विभिन्न तरह की इन्द्रियों का विकास हो जाता है त्यों-त्यों क्रम से उनमें बाह्य संवेदनाओं की अनुभूति की क्षमता बढ़ती जाती है । इन्द्रियों की संख्या विकसित जीवों में क्रम से क्यों बढ़ती जाती है इसे इस तरह समझा जा सकता है-जीव का जब विकास होगा तब उसकी आवश्यकताएं बढ़ेगी और बढ़ी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए साधन की आवश्यकता होगी। चूंकि संवेदनाओं की अनुभूति इन्द्रियों के द्वारा ही संभव है अतः इन्द्रिय की संख्या और जीव के विकास का सम्बन्ध समझ में आ जाता है।
जीव-विज्ञान भी इस बात से सहमत है कि जीवों के विकास के साथ-साथ इन्द्रियों की संख्या में भी वृद्धि होती है । यद्यपि जीव वैज्ञानिकों ने मात्र इन्द्रियों के आधार पर ही जीव की विकासशीलता का मापदंड निर्धारित नहीं किया है, परंतु इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है । क्योंकि जीव के विभिन्न वर्गों के विभाजन में यह बात परिलक्षित हो जाती है कि छोटे-छोटे जीवों में इन्द्रिय की संख्या कम होती है और निरंतर विकास के फलस्वरूप उनमें इन्द्रिय की संख्या बढ़ती जाती है। उदाहरण स्वरूप * रिसर्च एसोसिएट, भोगीलाल लेहरचंद शोध संस्थान, दिल्ली खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
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अमीबा एक अत्यंत सूक्ष्म जीव है, इसमें मात्र एक इन्द्रिय स्पर्श की होती है और इसी इन्द्रिय की सहायता से वह अपना सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करता है । तात्पर्य यह है कि जैनग्रंथों की ही तरह जीव विज्ञान में भी एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का उल्लेख मिलता है।
पंचसंग्रह' में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "जो जीव एक स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा ही अपने विषय को जानता है, देखता है, भोगता है, स्वामित्व करता है और उसका सेवन करता है, वह एकेन्द्रिय जीव है।" तात्पर्य यह है कि एकेन्द्रिय जीव अपने जीवन की सारी क्रियाओं का सम्पादन मात्र एक इन्द्रिय (स्पर्श) की सहायता से करता
जैनग्रंथों में एकेन्द्रिय जीवों को पांच वर्गों में विभाजित किया गया है:१. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तेजस्काय, ४. वायुकाय और ५. वनस्पतिकाय ।
१. पृथ्वीकाय --- पृथ्वीकाय ही जिन जीवों का शरीर है, वे पृथ्यीकाय कहलाते हैं। ___ काय का अर्थ शरीर होता है। २. अप्काय–'अप्' अर्थात् जल ही जिन जीवों का शरीर या काय होता है, उन्हें __ अप्काय कहा जाता है। ३. तेजस्काय-तेज या अग्नि ही जिन जीवों की काया या शरीर है, वे तेजस्काय
जीव हैं। ४. वायुकाय-वायु या हवा ही जिनका काय है, वे वायुकाय जीव कहलाते हैं। ५. वनस्पतिकाय-लतादि वनस्पति हो जिनका काय है, उन्हें वनस्पतिकाय जीव
कहा जाता है।
जैनग्रंथों में इस तरह से कुल पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों का उल्लेख मिलता है और इन पांचों का क्रम इस प्रकार है-पहले पृथ्वीकाय तत्पश्चात् क्रम से अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । यह क्रम क्यों रखा गया इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया जा सकता है-पृथ्वी समस्त प्राणियों को आधार प्रदान करती है। आधारकर्ता होने के कारण इसे प्रथम स्थान पर रखा गया है। अप्कायिक पृथ्वी के आश्रित हैं, इस कारण अप्कायिक को ग्रहण किया गया है। तत्पश्चात् उनके प्रतिपक्षी अग्निकाय को रखा गया है । अग्नि वायु के सम्पर्क में आने पर बढ़ती है, इसी कारण इसके बाद वायुकाय को रखा गया है। वायु दूरस्थ लतादि के कम्पन से अनुभव में आती है और इसीलिए वनस्पतिकाय को सबसे अत में और वायुकाय के बाद रखा गया
एकेन्द्रिय जीवों की इस विवेचना के पश्चात् अब हम पृथ्यीकाय जीव की विस्तृत चर्चा करेंगे । यह तो स्पष्ट ही हो गया है कि पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय जीव है और एकेन्द्रिय जीवों के जो विभिन्न वर्गीकरण किए गए हैं उनमें पहला स्थान पृथ्वीकाय का ही है। पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय जीव है और एकेन्द्रिय जीवों के जो विभिन्न वर्गीकरण किए गए हैं उसमें पहला स्थान पृथ्वीकाय का ही है। पृथ्वीकाय जीव का शरीर स्वयं पृथ्वी ही है इसे स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है क्योंकि यह भ्रांति हो सकती है कि पृथ्वी में जीव तो हैं ही। लेकिन पृथ्वीकाय जीव कहने का अर्थ यही है कि पृथ्वी स्वयं सजीव है,
१२
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इसकी सजीवता पृथ्वी में उपस्थित जीवों पर आधारित नहीं है। जैनग्रंथों में पृथ्वीकाय का विभाजन दो प्रकार से किया गया है -(क) सूक्ष्मपृथ्वीकाय और (ख) बादर पृथ्वीकाय।
(क) सूक्ष्मपृथ्वीकाय-सूक्ष्म कर्म के उदय से जिन जीवों की उत्पत्ति होती है, उन्हें सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव कहते हैं । यह अत्यंत सूक्ष्म होता है, यह न तो किसी का घात कर सकता है और न स्वयं किसी के द्वारा इसका घात संभव है । तात्पर्य यह है कि सूक्ष्मपृथ्वीकाय का प्रतिघात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु से संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय का प्रत्यक्ष इंद्रियों के द्वारा संभव नहीं है अर्थात् यह इंद्रियों का विषय नहीं बन सकता है । ये सूक्ष्मपृथ्वीकाय जीव नाना प्रकार के होते हैं और संपूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं ।
सूक्ष्मपृथ्वीकाय जीव दो प्रकार के होते हैं - (१) पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय और (२) अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय ।
(१) पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय - स्वयोग्य अर्थात् अपने योग्य पर्याप्ति सहित जो जीव होता है, वह सूक्ष्म पर्याप्ति पृथ्वीकाय जीव कहलाता है। पर्याप्ति जीव की एक शक्ति है जिसके द्वारा वह पुद्गल या तत्व में उपस्थित रस, रूप आदि को ग्रहण कर लेता है और इसकी सहायता से इंद्रिय, शरीर आदि का निर्माण करता है। जैनग्रथों में छह प्रकार की पर्याप्तियों का उल्लेख मिलता है -(१) आहार पर्याप्ति, (२) शरीर पर्याप्ति, (३) इंद्रिय पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति और (६) मन पर्याप्ति ।
१. माहार पर्याप्ति-बाह्य आहार को रस रूप में परिवर्तित करने की शक्ति आहार पर्याप्ति है । इस पर्याप्ति शक्ति के द्वारा जीव आहार पुद्गल को रस में परिवर्तित करता है । आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में यह जीव की पाचन क्रिया का ही दूसरा नाम है।
२. शरीर पर्याप्त--जिस शक्ति के द्वारा आहार रस को सात धातुओं-(१) रस, २. रक्त, ३. मांस, ४. चर्बी, ५. हड्डी, ६. मज्जा और ७. वीर्य में परिवर्तित किया जाता है-इन्हीं सात धातुओं से शरीर का निर्माण होता है। शरीर पर्याप्ति शक्ति संभवतः बाधुनिक विज्ञान में प्रतिपादित चयापचय की क्रिया का ही नाम हो । चयापचय की क्रिया के द्वारा ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रासायनिक परिवर्तन होते हैं और इनके फलस्वरूप शरीर का निर्माण होता है।
३. इन्द्रिय पर्याप्ति-शरीर पर्याप्ति के द्वारा जो धातु बनते हैं उन धातुओं को इंद्रिय रूप में परिवर्तित करने की शक्ति का नाम इन्द्रिय पर्याप्ति है। आधुनिक जीव विज्ञान में काय निर्माण की प्रक्रिया जिसे मारफोलॉजी कहा जाता है, वह संभवतः इंद्रिय पर्याप्ति ही है । क्योंकि काय निर्माण की क्रिया के द्वारा ही जीव के शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण होता है । चूंकि इन्द्रिय भी शरीर का ही अंग है और वस्तुतः यह भी शरीर हैं और इन्द्रिय पर्याप्ति के द्वारा इन्द्रियों का ही निर्माण होता है।
४. श्वासोच्छवास पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल को ग्रहण कर श्वासोखण्ड १६, अंक २, (सित., ..)
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च्छ्वास के रूप में परिणत करने की शक्ति श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहलाती है। जैनग्रंथों में प्रतिपादित श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति आधुनिक जीव विज्ञान सम्मत श्वास क्रिया का ही दूसरा नाम है । श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल को ग्रहण करना और इसे श्वासोच्छवास के रूप में परिणत करने का अर्थ अगर आधुनिक जीव विज्ञान से जोड़ा जाए तो यही कहा जा सकता है कि ऑक्सीजन गैस ग्रहण करना और कार्बनडाइआक्साइड गैस को छोड़ना। क्योंकि श्वसन का यही रूप है और यह सिद्ध भी किया जा चुका
५. भाषा पर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषारूप में परिणत करे और उसका आधार लेकर अनेक प्रकार की ध्वनि के रूप में छोड़े, वही शक्ति भाषा पर्याप्ति कही जाती है।
भाषा पर्याप्ति ध्वनि विज्ञान और स्वर-रज्जु से संबंधित है । ध्वनि-विज्ञान के अनुसार कोई भी ध्वनि तभी श्रवण योग्य होगी जब उसकी शक्ति २० हर्ज से लेकर २००० हर्ज तक होगी। हज ध्वनि-विज्ञान की एक इकाई है। जीव-विज्ञान के अनुसार ध्वनि का बनना स्वर-रज्जु की बनावट पर भी निर्भर करता है। स्वर-रज्जु की बनावट ऐसी होती है कि जब जीव कोई ध्वनि निकालना चाहता है तो उसी परिप्रेक्ष्य में स्वर-रज्जु से संबंधित स्नायु पर बल डालता है और परिणामस्वरूप ध्वनि निकल पड़ती है। जिन जीवों में स्वर-रज्जु नहीं होता है, वे ध्वनि या शब्द उत्पन्न नहीं कर सकते हैं।
६. मन पर्याप्ति --मन को ग्रहण करने योग्य पुद्गल परमाणु को मन के परिणामी भावों में व्यक्त करने की शक्ति मन पर्याप्ति है। मन पंचेन्द्रिय के समान बाह्य संवेदनाओं को ग्रहण नहीं करता है । दुःख, सुख, दया आदि आंतरिक मनोभावों का संवेदनं मन के द्वारा ही होता है । जीव विज्ञान में भी बाह्य संवेदनाओं के अतिरिक्त आंतरिक संनेदनाओं यथा दुःख, सुख आदि ग्रहण करने हेतु आंतरिक इन्द्रियों की सत्ता मानी गई है । यद्यपि ये सभी सुख-दुःखादि भाव तंत्रिका तंत्र द्वारा गृहीत किए जाते हैं, परंतु मन जैसी सत्ता से इसे जोड़ा भी तो जा सकता है ।
तात्पर्य यह है कि जैनग्रंथों में जो पर्याप्ति की यह अवधारणा पाई जाती है, वह आधुनिक विज्ञान सम्मत ही जान पड़ती है, परंतु हमारा विषय यह नहीं है, पर्याप्ति के सम्बंध में मात्र हमें इतना ही कहना है कि एकेन्द्रिय में सिर्फ चार तरह की पर्याप्तियां पाई जाती हैं -आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास । मन और भाषा पर्याप्ति का अभाव होता है। एकेन्द्रिय असंज्ञी जीव है अतः इनमें मन पर्याप्ति का अभाव स्वयं समझ में आ जाता है । एकेन्द्रिय में मात्र स्पर्श इन्द्रिय है और भाषा या शब्द को श्रवण करने के लिए श्रवणेन्द्रिय अनिवार्य है और इसका अभाव एकेन्द्रिय में होता है, इसलिए उनमें भाषा पर्याप्ति का भी अभाव पाया जाता है । पृथ्वीकाय एकेन्द्रय जीव है अतः इसमें भी चार पर्याप्तियां-आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोश्वास ही पाई जाती हैं ।
२. अपर्याप्ति सूक्ष्म पृथ्वीकाय-जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियां पूर्ण नहीं कर पाते हैं, उन्हें अपर्याप्त जीव कहा जाता है। जो सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ
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पूर्ण नहीं कर पाते हैं, उन्हें अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय कहा जाता है । अपर्याप्त जीव दो प्रकार के होते हैं - (अ) लब्धि से अपर्याप्त और ( ब ) करण से अपर्याप्त ।
(अ) लब्धि से अपर्याप्त- जो जीव अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं, उन्हें लब्धि से अपर्याप्त जीव कहा जाता है । लब्धि का अर्थ होता है कुछ उपलब्ध करना और जो जीव बिना कुछ उपलब्ध किए ही मर जाता है, उसे लब्धि से अपर्याप्त जीव कहा जाता है ।
(ब) करण से अपर्याप्त जीव-जिन जीवों की पर्याप्तियां अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, परंतु भविष्य में पूर्ण होंगी और उनमें ऐसी सामर्थ्य भी है, तो ऐसेही सूक्ष्म अपर्याप्त जीव को करण से अपर्याप्त जीव जहा जाता है ।
मनुष्य या पशु के शुक्राणु को अपर्याप्त जीव की श्रेणी में रखा जा सकता है । यह सामान्य सी बात है कि शुक्राणु को जब उचित माध्यम मिलता है तो वे एक पूर्ण विकसित जीव बनते हैं और सभी तरह की पर्याप्तियों से युक्त होते हैं । परंतु उचित माध्यम नहीं मिलने के कारण ये नष्ट हो जाते हैं और एक पूर्ण विकसित जीव नहीं बन पाते हैं । इस दृष्टि से पर्याप्ति पूर्ण करने से पूर्व मर जाने के कारण ये लब्धि से अपर्याप्त जीव हैं तथा पर्याप्ति पूर्ण करने की क्षमता इनमें होती है अतः ये करण से अपर्याप्त भी हैं ।
(ख) बादर पृथ्वीकाय जीव-बादर नाम कर्म के उदर से जिस जीव की उत्पत्ति होती है उसे बादर जीव कहा जाता है और इस बादर नाम कर्म के पृथ्वीकाय से जुड़ जाने पर ऐसे जीव को बादर पृथ्वीकाय जीव कहते हैं । बादर का दूसरा अर्थ स्थूल भी होता है । इसका शरीर प्रतिघात सहित होता है । स्थूलता के कारण ये दूसरों का प्रतिघात तो करते ही हैं और स्वयं इनका भी प्रतिघात संभव है । इनका प्रत्यक्षीकरण इन्द्रियों के द्वारा संभव है । चूंकि ये स्थूल होते हैं अतः इनका स्थान इस लोक में निश्चित होता है । सूक्ष्र जीव की तरह ये लोक में चारों ओर व्याप्त नहीं होते हैं । " बादर पृथ्वीका जीव दो प्रकार के होते हैं" - ( क ) श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय और (ख) रूक्ष बादर पृथ्वीकाय ।
(क) लक्षण बादर पृथ्वीकाय - कोमल, मृदु मृत्तिका या मिट्टी ही जिन जीवों का शरीर है, उन्हें लक्षण बादर पृथ्वीकाय जीव कहा जाता है । जनग्रंथों में सात प्रकार के श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख मिलता है २ १. कृष्ण श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय, २ . नील लक्षण बादर पृथ्वीकाय, ३ रक्ताभ (लाल ) श्लक्षण बादर पृथ्वी४. पीत लक्षण बादर पृथ्वीकाय, ५. शुक्ल या श्वेत श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय, ६. पाण्डू लक्षण बादर पृथ्वीकाय और ७ पनक श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय । परंतु आचारांग नियुक्ति में मात्र पांच प्रकार के ही श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख किया गया है - कृष्ण, नील, लाल, पीला और शुक्ल ।"
काय,
लक्षण बादर के प्रकार में संख्या का यह अंतर क्यों आया है यह एक शोध का विषय है क्योंकि अगर इस प्रकरण पर विचार किया जाए तो हमारे समक्ष दो तीन तें प्रकाश में आती हैं । जैनग्रंथों में पांच प्रकार के वर्णों का उल्लेख मिलता है और
खण्ड १६, अंक २ ( सित०, ६० )
१५.
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संभवत: नियुक्तिकार ने आचारांग निथुक्ति में इसी के आधार पर पांच प्रकार के श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख किया हो। इनके द्वारा प्रतिपादित कृष्ण, नीला, लाल, पीला और सफेद रंग जैन ग्रंथों में प्रतिपादित पांच वर्षों से मेल खाते हैं। परतु प्रज्ञापना और उत्तराध्ययन सूत्र में जो सात प्रकार के श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का विवरण मिलता है, वह किस आधार पर है यह एक शोध का विषय है। अगर हम इन सात वर्णो को भौतिक विज्ञान में प्रतिपादित सात रंगों के साथ तुलना करना चाहें तो इनमें अंतर आ जाता है । भौतिक विज्ञान में सात मौलिक रंग हैं—बैंगनी, जम्बुक, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल तथा जैन ग्रंथों (प्रज्ञापना और उत्तराध्ययन) में श्लक्षण बादर के भी सात रंग बताए गए हैं- कृष्ण, नीला, रक्ताभ, पीला, श्वेत, पाण्डू और पनक (हरा) । अत: इन दोनों का भी अंतर स्पष्ट है । श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय के सात भेदों का संक्षिप्त विववण प्रस्तुत किया जा रहा है
१. कृष्ण-काले रंग की मिट्टी २. नील-नीले रंग की मिट्टी ३. रक्त-रक्त के समान लाल रंग की मिट्टी ४. पीत-हल्दी के समान पीले रंग की मिट्टी ५. शुक्ल-श्वेत मिट्टी ६. पाण्ड-- श्वेत और पीले रंग के मेल से बनी मिट्टी अर्थात् हल्के पीले रंग की
मिट्टी ७. पनक-गहरे हरे रंग की मिट्टी।
(ख) रूक्ष बादर पृथ्वीकाय-किसी विशेष परिस्थिति या कारणवश जिन पृथ्वीकाय जीवों का शरीर कठोर या रूक्ष हो जाता है, उन्हें खर या रूक्ष बादर पृथ्वीकाय कहा जाता है । रूक्ष बादर पृथ्वीकाय अनेक प्रकार के होते हैं। जैनग्रंथों जैसे आचारांग नियुक्ति, उत्तराध्ययन सूत्र," पंचसंग्रह, मूलाचार" में इनकी कुल संख्या ३६ मानी गई है परंतु प्रज्ञापना सूत्र" में ४० । यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र की मूल गाथा में ३६ संख्या का ही उल्लेख है, परंतु जब इन जीवों का नाम गिनाया जाता है तब संख्या ४० तक पहुंच जाती है । चालीस प्रकार के खर बादर पृथ्वीकाय के नाम निम्नलिखित हैं--१. शुद्ध मिट्टी, २. शर्करा, ३. बालू, ४. उपल-पत्थर, ५. शिला, ६. लवण, ७. ऊष, ८. लोहा, ६. ताम्बा, १०. त्रपुक, ११. सीसा, १२ चांदी, १३. सोना, १४ वन-हीरा, १५. हरिताल, १६. हिंगुल, १७. मैनसिल, १८. सस्यक, १६- अंजन, २०. प्रवाल, २१. अभ्रक, २२. अभ्रक बालू, २३. गोमेद, २४. रूचक, २५ अंक, २६. स्फटिक, २७. लोहिताक्ष, २८. चंदन, २६. गेरु, ३०. हंसगर्भ, ३१. भुजमोचक, ३२. मसारगल्ल, ३३. चंदप्रभ, ३४. वैडूर्य, ३५. जलकांत, ३६. सूर्यकांत, ३७. मरकत, ३८. पुलक, ३६. इन्द्रनील और ४०. सौगंधिक।
उपर्युक्त ४० प्रकार के रूक्ष बादर पृथ्वीकाय के जो नाम गिनाए गए हैं उनमें से १ से ३६ तक तो क्रम सही है तथा बाद का अर्थात् ३७ से ४० तक का क्रम सही नहीं है। यह इसीलिए किया गया क्योंकि कुछ ग्रंथों में ३६ तो कुछ में ४० संख्या का
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उल्लेख मिलता है अतः ३६ तक का जिस क्रम से उल्लेख मिलता है उसे ज्यों-का-त्यों लिख दिया गया और जो बाकी बच गए उन्हें उनके बाद जोड़ दिया गया है ।
खर बादर पृथ्वीकाय के जो ये चालीस भेद गिनाए गए हैं उन्हें चार कोटियों में रखा गया है । प्रथम कोटि में पृथ्वी के चौदह भेद यथा पृथ्वी, शर्करा, बालू, सिला, लवण, सोना, लोहा, तांबा, हीरा आदि को रखा गया है। तत्पश्चात् हडताल आदि के आठ भेद गिनाए गए हैं । तृतीय गाथा में गोमेद आदि नो मणियों का उल्लेख मिलता है तथा चौथी और अंतिम गाथा में चंदन आदि सुगंधित नौ मणियों का विवरण दिया गया है । इस तरह से कुल चालीस प्रकार के खर बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख जैन ग्रंथों में उपलब्ध होता है ।
अगर हम इन चालीस प्रकार के बादर पृथ्वीकाय पर दृष्टि डालें तो ऐसा लगता है कि ये सभी या तो पृथ्वी के बदले रूप हैं, पृथ्वी से प्राप्त खनिज हैं तथा चंदन आदि सुगंधित द्रव्य हैं । इनमें जीव इसलिए मान लिया गया है कि ये पृथ्वी के ही भाग हैं और पृथ्वी स्वयं जीव है | अगर रसायन विज्ञान पर विचार किया जाए तो हमारे समक्ष यह विवरण अवश्य उपस्थित होता है कि प्रारंभ में रसायन शास्त्रियों ने तत्वों की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए उन्हें जो चिह्न या नाम प्रदान किया वह विभिन्न जीवों नक्षत्रों आदि के नामों पर आधारित था । दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने उन तत्वों में उन जीवों और नक्षत्रों का स्वरूप देखा जिनके साथ उन्हें जोड़ा गया । अर्थात् रसायनवेत्ताओं के तत्वों के नामकरण की पद्धति जीवों की प्रकृति पर आधारित थी। बाद में यह परंपरा गलत साबित हुई और अब तक १०३ तत्वों के बारे में वैज्ञानिकों को जो जानकारी उपलब्ध हुई है, वे सब जीवधारियों से बिलकुल अलग हैं । अर्थात् ये सब जीव नहीं हैं ।
जैनाचार्यों ने पृथ्वीकाय के जो ४० भेद गिनाए हैं उनमें से बहुत का समावेश इन १०३ तत्वों के अंतर्गत हो जाता है । जैसे- लोहा, सोना, तांबा, चांदी आदि । अत: आधुनिक विज्ञान के आधार पर इनमें जीव के लक्षण देखे जाएं तो हमें सफलता नहीं मिलेगी । अर्थात् इन्हें जीव नहीं माना जा सकता है । परंतु जैनग्रंथों में इन्हें पृथ्वीकाय जीव कहा गया है और यह जैनाचार्यों का अपना मौलिक चिंतन है । इसके पीछे वे अपना तर्क भी देते हैं और उसी के आधार पर उन्होंने इन्हें जीव कहा है । खर बादर पृथ्वीकाय के दो भेद हैं" ? - १. अपर्याप्तक और २. पर्याप्तक
१. अपर्याप्तक - वे खर बादर पृथ्वीकाय जो या तो अपनी पर्याप्तियों से पूर्णतया असंप्राप्त हैं अथवा उन्हें विशिष्ट वर्ण आदि प्राप्त नहीं हुए हैं, अपर्याप्तक खर बादर पृथ्वीकाय कहलाते हैं । इस दृष्टि से उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वे कृष्ण आदि वर्ण वाले हैं। शरीर आदि पर्याप्तियां पूर्ण हो जाने पर ही बादर जीवों में वर्णा प्रकट होता है, अपूर्ण होने की स्थिति में नहीं । ये अपर्याप्तक जीव उच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं । इसीलिए उनमें स्पष्ट वर्णादि संभव नहीं है । इसी दृष्टि से उन्हें 'असंप्राप्त' कहा गया है ।
२. पर्याप्तक - वे खर बादर पृथ्वीकाय जो अपनी पर्याप्तियां पूर्ण कर लेते हैं
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पर्याप्तक कहलाते हैं । पर्याप्तक जीवों के वर्णादि के भेद से हजारों भेद कहे गए हैं।" क्योंकि जो बादर पृथ्वी काय पर्याप्तक हैं वे अपने योग्य चार पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेते हैं और उनके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के भेद से ही हजारों भेद बन पाते हैं । जैसे- - वर्ण के पांच भेद, गंध के पांच तथा स्पर्श के आठ भेद होते हैं फिर प्रत्येक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श में अनेक प्रकार की तरतमता होती है । जैसे- भ्रमर, कोयल और काजल आदि में कृष्ण वर्ण की न्यूनाधिकता का पाया जाना । अतः कृष्ण, कृष्णतर, कृष्णतम,...... असंख्यात् कृष्ण आदि कृष्ण के अनेक भेद हो गए। इसी प्रकार नील, पीतादि वर्ण के विषय में भी समझना चाहिए। गन्ध, रस और स्पर्श से संबंधित भी ऐसे ही अनेक भेद होते हैं । इसी प्रकार वर्णों के परस्पर मिलने से भी कई प्रकार के वर्ण निष्पन्न होते हैं। जैसे—धूसर वर्ण, चितकबरा आदि । इसी प्रकार एक गन्ध में
दूसरी गन्ध के मिलने से, एक रस में दूसरे रस के मिश्रण दूसरे स्पर्श के संयोग से हजारों भेद गंध, रस, स्पर्श की तरह बादर पृथ्वीकाय के लाखों योनि भेद वर्ण, गंध, रस निष्पन्न हो जाते हैं ।
करने से, एक स्पर्श के साथ अपेक्षा से हो जाते हैं । इस और स्पर्श के आधार पर
इस तरह जैनग्रंथों में प्रतिपादित पृथ्वीकाय की चर्चा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैनाचार्यों ने पृथ्वीकाय का जो विवरण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है वह आध्यात्मिक भावना से पूर्ण होने के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है। पृथ्वीकाय बाह्य संवेदनाओं की अनुभूति अपनी एक मात्र इंद्रिय स्पर्शन् की सहायता से करता है तथा वह चार पर्याप्तियों से युक्त होता है, यद्यपि कुछ पृथ्वीकाय अपर्याप्तिक भी होते हैं । पृथ्वीकाय इन्द्रिय के द्वारा संवेदनाओं को ग्रहण करता है और चार पर्याप्तियां यथा - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास के द्वारा क्रम से आहार ग्रहण, शरीर तथा इन्द्रिय का निर्माण एवं श्वांस प्रश्वांस की क्रिया का सम्पादन किया जाता है । आधुनिक विज्ञान में उसे जीव कहा जाता है जो आहार लेता हो, उस आहार का पाचन करता हो, पाचक आहार को रस में परिवर्तित कर उस रस से शरीर के अंगों का निर्माण करता हो तथा श्वासोच्छ्वास की क्रिया सम्पादन करता हो एवं बाह्य संवेदनाओं की अनुभूति भी करता हो । पृथ्वीकाय जीव पर्याप्ति शक्ति और स्पर्श इंद्रिय की सहायता से इन सब क्रियाओं का सम्पादन करता है, तात्पर्य यह है कि यह जीव है । इसे जीव कहलाने हेतु आधुनिक विज्ञान सम्मत सभी लक्षण इसमें मिलते हैं । यही कारण है कि जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित पृथ्वीकाय की यह अवधारणा वैज्ञानिक तथ्यों से पूर्ण है ।
पृथ्वीका की अवधारणा में बादर पृथ्वीकाय के अंतर्गत सात प्रकार की मृत्तिका तथा ४० प्रकार के मिट्टी, पत्थर, लोह, चांदी, सोना, हडताल, गोमेद, चंदनादि को भी जीव मान लिया गया है। ये सभी जीव हैं । इसके पीछे जैनाचार्यों का तर्क मात्र इतना ही है कि पृथ्वी स्वयं जीव है और ये सभी किसी न किसी रूप में पृथ्वी से जुड़े हैं । मात्र इतना ही कह देने से इन सबको जीव नहीं माना जा सकता है। हां, धार्मिक भावना के आधार पर इन्हें जीव माना जा सकता है और इस अर्थ में यह आध्यात्मिक
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भावना से जुड़ जाता है। खैर, जो भी हो, पृथ्वीकाय की यह अवधारणा जैनों का एक अपना मौलिक चिंतन है और जैन ग्रंथों में इस पर व्यापक चर्चा हुई है जिसका संक्षिप्त रूप यहां प्रस्तुत किया गया है। संदर्भ: १. पंचसंग्रह, १२६६ २. ठाणांग, ६।३।४८०, प्रज्ञापना, पद १, सू० १२, अणुओगद्वाराई, ५, षट्खंगागम,
१११, १, ३९-४२१२६४-२७२, कर्मग्रंथ ४, गाथा १०, तत्त्वार्थसूत्र, २।२२, तिलोयपन्नति, ५२२७८, राजवार्तिक, ९७१११६०३।३१, गोम्मटसार, जीवकांड, १८११४१४ ३. प्रज्ञापना, मलयगिरि टीका, पृ० ६९-७० ४. आचारांग नियुक्ति, ११२७१ प्रज्ञा. १३१३, जीवाभिगम, १८, 'उत्तराध्ययनसूत्र',
३६७० ५. आचारांग नियुक्ति, १।१।२, टीका ७१, धवला, ३३१,२,८,७।३३११२ गोम्मटसार जीव
कांड १८४४१६।१४, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १२७, प्रवचनसार, १६८।२३०॥१३ ६. आचारांग नियुक्ति, १।२।२१७१, उत्तराध्ययन सूत्र, ३६७८ ७. ठाणं, २।१२८, जीवाभिगम, १।१४, प्रज्ञापना, १११४, उत्तराध्ययन सूत्र, ३६७०,
अणुओगद्दाराइं, ७ ८. भगवई, शतक, ६,४॥६३, प्रवचनसारोद्धार, द्वार २३२, गाथा, ३१, कर्मग्रन्थ, प्रथम
भाग, गाथा ४६ ६. भगवई, ८।१।१८, समवाओ, १४।१, कर्मग्रंथ प्रथम भाग, गाथा, ४६, प्रज्ञापना,
१११४, टीका १०. आचारांग नियुक्ति, ११११२१७१, टीका, धवला, ६।१६-१, २८१६१८ ११. आचारांग नियुक्ति, १।१२।७२, प्रज्ञापना, १११५, उत्तराध्ययन सूत्र, ३६।७१ १२. प्रज्ञा०, १११६, उ० सू० ३६७२ १३. सोहा य पंचवण्णा'......। एवं तत्र श्लक्ष्णबावर पृथिवी कृष्णनील लोहितपीत शुक्ल भेदात्पञ्चधा।
-आचारांग नियुक्ति, ११११२७२, टीका १४. आचारांग नियुक्ति, १।१।२।७३-७६ १५. उत्तराध्ययनसूत्र, ३६१७३,७४,७५,७६,७७ १६. पंचसंग्रह, ११७७ १७. मूलाचार, २०६,२०७,२०८,२०६ १८. प्रज्ञापना सूत्र, १११७ १९. आचारांग नियुक्ति, १३११२,७६ टीका, प्रज्ञापना, ११२५ २०. आचारांग नियुक्ति, १३१२२७७, टीका, प्रज्ञापना, १२२५
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अभक्ष्यता के आधार
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जैन शास्त्रों में अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य के रूप में भक्ष्य पदार्थों चार वर्गों के निरूपण के साथ सामान्य जन और साधुओं को कौन-से पदार्थ आहार के रूप में ग्रहण करने चाहिये, इस पर चर्चा अपेक्षया कम है, पर कौन-से खाद्य ग्रहण नहीं करने चाहिये, इस पर विस्तृत विवरण पाया जाता है । आचारांग में साधुओं को अपक्व, अशस्त्रपरिणत तथा अल्पफल- बहुउज्झयणीय वनस्पति या तज्जन्य खाद्यों का अप्रासुक होने के कारण निषेध किया गया है। वहां अर्धपक्व, अयोनिबीज - विध्वस्त एवं किण्वित ( (बासी, सड़े) पदार्थों के भक्षण का भी निषेध है । इस निषेध का मूल कारण जीवरक्षा की भावना एवं अहिंसक दृष्टि ही माना जाता है । सामान्यतः इस प्रकार का निषेध श्रावकों पर भी लागू होना चाहिये । इस दृष्टि का स्पष्टीकरण समंतभद्र, वट्टेकर, पूज्यपाद, अकलंक तथा अन्य आचार्यों ने भी किया है। उन्होंने खाद्यों की अभक्ष्यता के आधार के रूप में (i) त्रस जीव-घात (ii) प्रमाद परिहार (iii) अनिष्टता और (iv) अनुप - सेव्यता को माना है ।" इसके साथ, आचारांग के अल्पफल बहु- उज्झयणीय को (v) अल्पफल - बहुविघात में परिणत कर दिया है । इससे बहुफल - आल्पघाती पदार्थों की आंशिक भक्ष्यता संभव लगती है । भास्कर, नंदि और आशाधर आदि उत्तरवर्ती आचार्य एवं पंडित भी इन्हीं पांचों कोटियों को अभक्ष्यता का आधार मानते हैं । इनसे स्पष्ट है कि अभक्ष्यता का आधार केवल अहिंसक ही नहीं है, अपितु मादकता, रोगोत्पादकता एवं अनुपसेव्यता भी है जो स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए हानिकारक है। शास्त्री ने उपरोक्त मतों के समन्वय से खाद्यों की अभक्ष्यता के पांच आधार लोक विरुद्धता के आधार को पूर्वाचार्यों ने अनुपसेव्यता की कोटि में माना है । अकलंक ने तो अखाद्य वस्तुओं को ही अनुपसेव्य कोटि में माना है । इन आधारों को सारणी १ में संक्षेपित किया गया है । इस सारणी में आधारों की संख्या अधिक है, फिर भी, चूंकि बिन्दु ६ व ७ वनस्पतियों से संबंधित हैं, अतः इन्हें कोटि - २ में ही समाहित करने पर अभक्ष्यता के मुख्य आधार पांच ही मननीय हैं। अनेक ग्रंथों में विभिन्न कोटियों के कुछ उदाहरण भी दिये गये हैं । कुछ उदाहरण अनेक कोटियों में आते हैं । आगमकाल में अनेक अपक्व, अशस्त्र - परिणत एवं अप्रासुक वस्तुओं के अनेषणीय मानने का उल्लेख मिलता है पर दिगम्बर ग्रंथों में मूलाचार के उत्तरवर्त्ती काल में इस मान्यता के उल्लेख *जैन केन्द्र, रीवा, म० प्र०
बताये हैं । इनमें
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जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार
मंदलाल जैन*
तुलसी प्रचा
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नहीं हैं। इसका कारण अन्वेषणीय है । सभी प्रकार की कोटियों के अन्तर्गत विभिन्न पदार्थों का पहले श्रावक के बारह व्रतों के आधार पर भोगोपभोग परिमाण एवं प्रोषधोपवास आदि के रूप में और बाद में अष्टमूलगुण और बाइस अभक्ष्यों के रूप में वर्गीकरण किया गया है ।
आधार
१. सजीव घात, बहुघात बहुवध, बहु-जंतु योनि
स्थान
२. स्थावर जीव घात ( अनंत कायिक )
३. प्रमाद / मादकतावर्धक पदार्थ
४. रोगोत्पादक / अनिष्ट पदार्थ
सारणी १ : अभक्ष्यता के आधार
हेतु
दो या अधिकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति, उपस्थिति से हिंसा, स जीवों की हिंसा
५. अनुपसेव्यता / लोकविरुद्धता ६. अल्पफल - बहुविघात
हिंसा
प्रत्येक / अनंतकाय जीवों की कंदमूल, बहुबीजक, कोंपल, अदरख, मूली, कच्चे फल, आर्द्र हरिद्रा
आलस्य, उन्मत्तता, चित्तविभ्रम
स्वास्थ्य के लिये अहितकर
स-स्थावर जीव हिंसा
७. अपक्वता / अशस्त्र प्रति हतता / अनग्निपक्वता
वनस्पति-- हमारे प्रमुख खाद्य
उदाहरण
पंच उदुंबर फल, अचार /
मुरब्बा आदि, द्विदल, चलितरस, रात्रि भोजन, मधु-मांसादि
मद्य, गांजा, भांग, अफीम चरस, तंबाकू आदि नशीले पदार्थ
इनके कारण सभी वनस्पति सजीव एवं अप्रासुक रहते हैं जल
प्याज, लहसुन आदि गन्ने की गंडेरी (तेंदू, कलींदा, कांटे एवं गूदेदार पदार्थ
सामान्यतः हमारे खाद्य पदार्थों में कुछ जनित (दूध, दही, घृत आदि) तथा कुछ संगृहीत ( मधु आदि) को छोड़कर अधिकांश वनस्पति या वनस्पतिज ही होते हैं । आचारांग और दशवैकालिक' में मूल, कंद, पत्र, फल, पुरुप, बीज, प्रवाल, त्वचा, शाखा तथा स्कंध के रूप में वनस्पति की दस प्रकार की अवस्थायें बताई गई हैं । उनका रूढ़, बहुसंभूत, स्थिर, उत्सृत, गर्भित, प्रसूत एवं संसार चरणों में क्रमिक विकास होता है । आगमों एवं शास्त्रों में इन्हें प्रत्येक काय एवं अनंतकाय ( साधारण, निगोद) के रूप में वर्गीकृत किया है । इनके अन्य नाम भी हैं । इनसे कभी-कभी साधारण जन को भ्रांति भी हो जाती हैं । प्रत्येक काय के वनस्पतियों में एक पूर्ण शरीर में एक जीवता पाई जाती है। जबकि अनन्तकाय कोटि में एक शरीर में अनेक जीवता पाई जाती है । इनके शरीर के विभिन्न अंगों से नया प्रजनन हो सकता है । इसलिये शास्त्रों में इन्हें सामान्यतः अभक्ष्य ही, अहिंसक दृष्टि से, बताया है । सरस" ने सभी वनस्पतियों को चौदह रूपों में बताया
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है। जीव विचार प्रकरण के अनुसार प्रत्येक वनस्पति फल, फूल, त्वचा, मूल, पत्र और बीज के रूप में पाई जाती है और इसका भक्ष्यभाग प्रायः पृथ्वी, मिट्टी, भूमि या जल-तल के ऊपर ही होता है । ये १२ प्रकार की होती हैं। इसके विपर्यास में, प्रायः अनन्तकाय वनस्पति मिट्टी के अन्दर उत्पन्न होते हैं, कंद रूप में होते हैं । पर, इनके कुछ लक्षण ऐसे भी हैं जो इनके मिट्टी के ऊपर उत्पन्न होने पर भी लागू होते हैं । इनके २० भेद हैं । इसके नाम व उदाहरण सारणी २ में दिये गये हैं। इससे पता चलता है कि सामान्यतः प्रत्येक वनस्पति की १,२,६,७,९ एवं १२ कोटियों के २१३ वनस्पतियों के विभिन्न अवयव हमारे लिये भक्ष्य माने जा सकते हैं । पर इनमें से बहुबीजी ३३ प्रकारों को दसवीं सदी के बाद अभक्ष्य ही बताया गया है। इनमें तेंदू, कथा, बेल, बिजौरा, आंवला, फणस, अनार, पंचोदुंबर, पीपर,सरसों, नीम और अनेक अप्रचलित वनस्पतियां समाहित हैं। अनेक वृक्षों की त्वचादि खाद्य के रूप में तो नहीं, पर औषधों के काम आती है। इनमें कुछ (उदुंबर) की अभक्ष्यता तो अनेक कारणों से मानी गई है, पर अनेकों के उपयोग सामान्य हैं चाहे वे सैद्धांतिक दृष्टि से अमक्ष्य ही क्यों न हों । शंकर' ने बताया है कि अनन्तकायों के २० भेदों के बावजूद इस कोटि की ३२ सुज्ञात
सारणी २ : प्रत्येक और साधारण वनस्पतियां ब. प्रत्येक वनस्पति । १२
ब. अनन्तकाय बनस्पति:२० १. वृक्ष
१. कंद प्याज, लहसुन, आलू आदि (अ) एकबीजी-आम आदि ३० २. अंकुर अंकुरित दालें
(ब) बहुबीजी-तेंदू, कैंथा आदि ३३ ३. किसलय नई रक्तिम पत्तियां २. गुच्छ : बेंगन, अरहर आदि ४६ ४. भूमिस्फोट कुकुरमुत्ता ३. गुल्म (झाड़ीदार) : गुलाब, २४ ५. आद्रक त्रिक अदरख, हल्दी, कचूर
मोगरादि ६. गाजर गाजर ४. वलय (गोलाकार) : ताड़, १७ ७. मौथा मोथा, नागर मौथा
चीड़ आदि ८. बथुआ की भाजी बथुमा, पालक आदि ५. लता : पद्म, नाग आदि १० . थेग
भाजीदार कंद ६. बेल : पान, तरबूज, जरामासी ४१ १० पल्लक विशिष्ट शाक ७. गांठ : गन्ना, वेत्र, वंशादि १६ ११. गडूची गिलोय (औषधि) ८. तृण : दर्भ, कुश, अर्जुन आदि १८ १२. गुग्गुल औषधि ६. हरिन (पत्र शाक) : बथुआ, २८ १३. छिन्नरुह खल्लड़, खरसान १०. जलरुह : काई, कुमुद आदि २७ १४. थोर कांटेदार औषध वृक्ष ११. कुहण (अंकुरित) : कुकुरमुत्ता, १० १५. कुमारी पौधे
कुणक १६. बेल शतावरी, सुआवेल १२. औषधि (अन्न) : गेहूं, धान, २६ १७. पणक फंगस
मूंगादि १८. शैवाल काई
-- १६. कोमल फल कच्चे फल ३६६ २०. गूढ़ शिर जूट, सन आदि
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वनस्पतियां हैं जो सैद्धांतिक दृष्टि से अभक्ष्य हैं । इनमें कुछ ऐसे पदार्थ और कोटियां हैं जो दोनों भेदों में आती है। उदाहरणार्थ-विभिन्न पत्र शाक या भाजिया प्रत्येक वनस्पति की हरित कोटि में आती हैं। इनका अनंतकायों में अनेक नामों से समाहरण है। मूली, हरित और कंद--दोनों में है। बेल की कोटि दोनों ओर है । पर इनके अन्तर्गत वनस्पतियों के नाम भिन्न हैं।
आगमों के अनुसार अर्धपक्व, अनग्निपक्व, अशस्त्रप्रतिहत वनस्पति चाहे वे किसी कोटि के हों, अभक्ष्य माने गये हैं, अन्य दशाओं में वे भक्ष्य हैं। मूलाचार में भी इनके अनग्निपक्वता की दशा में अनेषणीयता की चर्चा है। आचारांग और दशवकालिक में जल और उसके विभिन्न ओषनों के अतिरिक्त, लगभग तत्कालीन प्रचलित १०० वनस्पतियों के नाम दिये हैं। निशीथचूणि में भी तत्कालीन भक्ष्यों के रूप में प्रयुक्त होनेवाली ७२ वनस्पतियों के नाम हैं। यह मत समीचीन नहीं लगता कि सामान्य जनों के लिये वणित अभक्ष्यता के सिद्धांत श्रमणों पर लागू नहीं होते। अभक्ष्यों को धारणा का विकास
ऐसा प्रतीत होता है कि आगमोत्तर काल में भक्ष्याभक्ष्य विचार में अपक्वता एवं अशस्त्र प्रतिहतता की धारणा में परिवर्धन हुआ। जब उत्तरकाल में वनस्पतियों का वर्गीकरण हुआ, तब प्रत्येक कोटि की तुलना में अनंतकायिक कोटि का, अहिंसक दृष्टि से, सापेक्ष अभक्ष्यता का मत प्रस्तुत किया गया। इस दिशा में दिगम्बराचार्यों का अधिक योगदान रहा। उनके विवरण पर्याप्त निरीक्षण-क्षमता और उसकी तीक्ष्णता को व्यक्त करते हैं । शांतिसूरि ने भी ग्यारहवीं सदी में इसी मत का अनुकरण किया है। समय के साथ उत्तरवर्ती आचार्यों ने यह सोचा कि सामान्य जन का आहार साधु के समान प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। अतः उन्होंने अहिंसक दृष्टि बनाये रखते हुए श्रावकों के आहार संबंधी अनेक सूत्र बनाये। इस हेतु सर्वप्रथम व्रतों की धारणा प्रस्तुत की गई। इनके अन्तर्गत आहार को नियंत्रित करनेवाली भोगोपभोग परिमाण एवं प्रोषधोपवास आदि की प्रवृत्तियां विकसित हुई। प्रवचनसार" में तो केवल अरस, मधु और मांस रहित आहार को ही युक्ताहारी बताया है । समय के साथ, इनमें पर्याप्त कठोरता आने लगी। तब सरलता की दृष्टि से, अहिंसक दृष्टि के विकास एवं व्यवहार के लिये हिंसामय/ हिंसाजन्य खाद्यों के निषेध के लिये मूल गुणों या सार्वकालिक व्रतों की धारणा प्रतिपादित की गई । यह प्राचीन दिगम्बर या श्वेताम्बर ग्रंथों में नहीं देखी जाती । पांचवीं सदी के समन्तभद्र के मिश्र वर्गीकरण (अभक्ष्य त्याग, ब्रतपालन) की तुलना में आठवीं सदी के जिनसेन ने अष्ट सार्वकालिक व्रतों में केवल आठ अभक्ष्य पदार्थों को ही रखा११.३] मद्य, मांस, मधु का त्याग [ये जेवी क्रिया से प्राप्त होते हैं या इनमें सूक्ष्म एवं त्रस जीव दृष्टिगोचर होते हैं] और [४-८] पंचोंदुबर फल त्याग [इनमें भी सूक्ष्म जीव होते हैं] फलतः प्रारम्भ में मूलतः आठ पदार्थ हो अभक्ष्य माने जाते थे ।२ इन्हें सोमदेव, चामुंडराय, देवसेन, पद्मनंदि, आशाधर पंडित, राजमल, मेधावी और कुंथुसागर ने भी स्वीकृत किया है । शिवकोटि ने अपनी रत्नमाला में इन आठ मूलगुणों को बाल मूल गुण कहा है और वास्तविक मूलगुण समन्तभद्र के ही माने हैं। कहीं-कहीं मधु के खण्ड १६, बंक २ (सित०, ६०)
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स्थान पर चूत त्याग मूलगुण कहा गया है । यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सप्त व्यसनों की परम्परा कब से चाल हुई, पर इनमें भी मद्य-मांस को व्यसन [अभक्ष्य, त्याग] माना है। मधु यहां भी छूट गया लगता है। कुंदकुंद ने भी मद्य को अयुक्ताहार में सम्मिलित नहीं किया है । इससे प्रतीत होता है कि मधु और मद्य की तर्कसंगत अभक्ष्यता विवाद का विषय रही है। आजकल अंडे को मांसाहार के रूप में मानने के और उसकी अभक्ष्यता के वैज्ञानिक कारण उपलब्ध हैं, पर शास्त्रों में वणित मूलगुणों की किसी भी सूची में इनका नाम नहीं है । इसके विपर्यास में औपपातिक सूत्र में आहार-ग्रास का मानक बताया गया है। क्या सूत्रकाल में बिहार में अण्डे का इतना प्रचलन था कि वह मानक बन सके ? दिगम्बरों ने अच्छा किया कि १००० चावलों के दानों को ग्रास का मानक बताया। समय की मांग है कि इनकी अभक्ष्यता को कहीं न कहीं धार्मिक मान्यता अवश्य दी जावे चाहे आठ की जगह नौ या दस मूलगुण ही क्यों न हो जावें ? आशाधर ने तो सभी मान्यताओं का समाहार कर नये रूप में आठ मूलगुण बताये हैं । इनमें उपरोक्त अभक्ष्यों के अतिरिक्त अन्य गुण भी सम्मिलित किये गये हैं।
भभितगति ने रात्रिभोजन त्याग मिलाकर मूलगुणों की संख्या ६ कर दी । अमृतचंद्र ने मक्खन, अनन्त काय एवं रात्रि भोजन की अभक्ष्यता बताकर इनकी संख्या ११ कर दी । उत्तरवर्ती समयों में अभक्ष्य पदार्थों की संख्या बढ़ती गई। समंतभद्र एवं पूज्यपाद ने मूली, अदरख, मक्खन, नीम व केतकी के फूलों को अभक्ष्य बताया था। हेमचंद्राचार्य ने द्विदल को सर्वप्रथम अभक्ष्यों में गिनाया। आगमों के अनुरूप आशाधर ने भी नाली, सूरण (कंदमूल), द्रोण पुष्प आदि सभी प्रकार के अनंतकायों को अभक्ष्य बताया । सोमदेव ने प्याज को उसी कोटि में रखा । उन्होंने कच्चे दूध से बने दही आदि के नये व पुराने द्विदल को अभक्ष्य बताते हुए कलींदा न खाने का भी उल्लेख किया है। वर्षा ऋतु में अदलित द्विदल धान्य व पत्रशाक नहीं खाना चाहिये। सात प्रकार की अनन्तकाय वनस्पतियों में बीजोत्पन्न गेहं आदि धान्य भी समाहित किये जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह वर्णन एक अतिरेक है । इसका समाहार नेमचंद्राचार्य ने पहले ही यह कह कर दिया था कि सभी वनस्पति दोनों प्रकार के होते हैं। अपने जन्म से अन्तर्मुहूर्त तक वे अनंतकाय ही होते हैं, उत्तरवर्ती समय में इनमें विशेष भेद हो जाता है । आजकल यह भी माना जाता है कि ये सभी वनस्पति संक्रमित या रोगाक्रांत होने पर दूसरे सूक्ष्म जीवों का आधार बन जाते हैं। अत: आश्रयाश्रयी भाव से भी ये अभक्ष्यता की कोटि में आ सकते हैं।
ऐसा संभव है कि आशाधर के उत्तरवर्ती समय में जैसे-जैसे नये वनस्पतियों एवं खाद्यों का ज्ञान होता गया, उनकी भक्ष्याभक्ष्य कोटि पर विचार किया जाने लगा। आजकल इनके समेकीकृत वर्गीकरण के रूप में २२ अभक्ष्य माने जाते हैं। साध्वी मंजुला के अनुसार इ का सर्वप्रथम उल्लेख धर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ में मिलता है। दौलतराम के जैन प्रिया कोष में भी इनका नाम है । इन नामों को सारणी ३ में दिया जा रहा है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक सूची में कुछ अन्तर है । जीव विचार प्रकरण में द्विदल का नाम नहीं है, इसके बदले कच्चे नमक का नाम है। इसी प्रकार दौलतराम
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मद्य
मधु
ने हिम तथा मृत्तिका जाति के पदार्थ छोड़ दिये हैं। इसके बदले 'घोल बड़ा लिया है जो द्विदल या चलितरस का ही एक रूप है। इन अभक्ष्यों की जैन संप्रदाय में पर्याप्त मान्यता है । इनका आधार उपरोक्त पांच आधारों में से एकाधिक है।
सारणी ३ : विभिन्न प्रन्यों में अभक्ष्यों के रूप १. धर्मसंग्रह" जीव विचार प्रकरण दौलतराम" अनंतकाय विचार२० १-४. चार विकृतियां चार विकृतियां चार विकृतियां चार विकृतियां मद्य मद्य
मद्य मांस मांस
मांस
मांस मधु
मधु
मधु मक्खन मक्खन
मक्खन
मक्खन ५-६. पांच उदुंबर फल पांच उदुंबर फल पांच उदुंबर फल पांच उदुंबर फल १०. बर्फ बर्फ
बर्फ ११. ओला ओला
ओला
ओला १२. विष विष
विष
विष १३. रात्रि भोजन रात्रि भोजन
रात्रि भोजन रात्रि भोजन १४. बहुबीजक बहुबीजक
बहुबीजक बहुबीजक १५. अज्ञात फल अज्ञात फल
अज्ञात फल अज्ञात फल १६. अचार मुरब्बा अचार मुरब्बा
अचार मुरब्बा अचारादि १७. अनंतकायिक अनंतकाय
कंदमूल
अनंतकाय बेंगन
बेंगन १६. चलित रस चलित रस
चलित रस चलित रस २०. आमगोरस
द्विदल संपृक्त द्विदल २१. तुच्छ फल तुच्छ फल
तुच्छ फल तुच्छ फल २२. मृत्जाति कच्ची मिट्टी
मृत्जाति २३. - अपक्व लवण २४. -
धोलबड़ा धोलबड़ा २५.
गारी यहां यह भी स्पष्ट करना चाहिये कि दिगम्बर ग्रन्थों में अनेक कोटियों के पर्याप्त उदाहरण नहीं पाये जाते । साथ ही, इनके अनेक नामों से ऐसा लगता है कि ये समयसमय पर जोड़े गये हैं। यही कारण है कि अनेक नामों से पुनरावृत्ति दोष का आभास होता है। उदाहरणार्थ ---चलित रस कोटि में मद्य, मक्खन, अचार-मुरब्बा एवं द्विदल की कोटियां समाहित हो जाती हैं । बहुबीजक में बैंगन आ जाता है। पुनरावृत्तियां सुधारी जानी चाहिये । वर्तमान युग में इन अभक्ष्यों पर पुनर्विचार को आवश्यकता है। नवयुग में अभक्ष्यों को कुल चार कोटियों में वर्गीकृत किया जा सकता है : खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
बेंगन
१८. बगन
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१. किण्वित
मद्य
मक्खन
चलितरस
द्विदल
धोलबड़ा
२. परिरक्षित
अचार-मुरब्बा
३. त्रस / स्थावर जीव
घात
मांस
मधु
पंचोदुंबर
अनंतकाय
बहुबीजक
बैंगन
४. विविध
विष
बर्फ
बोला
अपक्व लवण
इनकी अभक्ष्यता के संबंध में शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक चर्चा आगे की जा रही है । किण्वित अभक्ष्य पदार्थ
तुच्छ फल
अज्ञात फल
मृतजाति
रात्रिभोजन
(१) मद्य एवं मादक पदार्थ
वर्तमान में प्रचलित बाइस अभक्ष्यों में प्रायः सभी प्रकार के किण्वित एवं विकृत पदार्थं समाहित होते हैं । इनमें चार महा विकृतियां मुख्य हैं: मद्य, मक्खन, मधु और मांस । इनमें से प्रथम दो मद्य और मक्खन किण्वन से उत्पन्न होते हैं । इनके अतिरिक्त 'नव पदार्थ' में दूध, दही, घृत, गुड़, मिठाई और तैल को भी विकृतियां ही माना है । " इनमें भी दही और घृत किण्वन उत्पाद हैं । अन्यों की विकृतिता विचारणीय है । इन छहों को समय-सीमा में अभक्ष्य नहीं माना जाता। यहां केवल अभक्ष्य विकृतियों पर ही विचार किया जाएगा। इनमें पहला स्थान मद्य का है ।
वस्तुतः मद्य शब्द से वे सभी पदार्थ ग्रहण किये जाने चाहिये जो उसके समान मादक प्रभाव उत्पन्न करते हैं । इनके अन्तर्गत गांजा, अफीम, चरस तथा एल. एस. डी., हीरोइन आदि नये संश्लेषित पदार्थ भी समाहित होने चाहिये । पुराने समय में इनका समुचित ज्ञान / प्रचार न होने से, संभवतः इनका अल्लेख न हो पाया हो, पर ये सभी मादक और नशीले पदार्थ हैं । शास्त्री " ने इन सभी का अभक्ष्यों की मादक कोटि में समाहार किया है । फिर भी, मद्य में यह विशेषता तो है ही कि यह किण्वन या चलितरसन की क्रिया से प्राप्त होता है जबकि अन्य अनेक मादक पदार्थों के निर्माण में यह क्रिया समाहित नहीं हैं ।
मद्य या उसके विविध रूपों के विषय में शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक जानकारी सारणी ४ में दी गई है । इससे एतद्विषयक प्राचीन एवं नवीन तथ्यों के ज्ञान की तुलना की जा सकती है । मद्य के निर्माण और प्रभावों का शास्त्रीय विवरण उपासकाध्ययन, सागारधर्मामृत, पुरुषार्थ - सिद्धि-उपाय तथा श्रावक धर्म प्रदीप आदि में पाया जाता है । वैज्ञानिकों ने भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त अध्ययन किया है । इससे पता चलता है कि विभिन्न प्रकार के मद्यों का निर्माण कुछ विशिष्ट परजीवी वनस्पतियों की कोशिकाओं की विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप होता है । यह विकास प्रक्रिया एक रासायनिक क्रिया है जिसके कारण ये कोशिकायें अपने विकास हेतु शर्करामय पदार्थो को विदलित करती हैं । इसके फलस्वरूप मद्य द्वितीयक उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है ।
इस प्रक्रिया में
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ऊष्मा निकलती है, साथ ही जल की वाष्प एवं कार्बन डाइऑक्साइड प्राप्त होते हैं। इनसे उपकरण में पर्याप्त फेन बनता है और उफान-सा आता दिखता है। उपकरण भी गरम हो जाता है । आयुर्वेद में भी भासव-अरिष्ट बनाते समय ऐसी ही स्थितियों को नियंत्रित करने के लिये स्थूल उपाय किये जाते हैं। संभवतः इसी प्रकार के निरीक्षणों के कारण मद्य-निर्माण के समय जीवोत्पत्ति या मद्य के बिन्दुओं में जीवों के अस्तित्व का मत आचार्यों ने प्रस्तुत किया । यद्यपि इस प्रक्रिया में सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व से सम्बन्धित यह निरीक्षण महत्त्वपूर्ण है पर उसकी भूमिका की चर्चा आधुनिक दृष्टि से मेल नहीं खाती।
सारणी ४ : मद्य-संबंधी प्राचीन एवं नवीन तथ्य प्राचीन
नवीन १. उत्पादन (१) मद्य सुराबीज, गुड़ आदि को (१) विभिन्न प्रकार के मद्य शर्करा युक्त
सड़ाकर (किण्तितकर) बनाया (महुआ, गुड़, धान्यादि) पदार्थों के जाता है।
यीस्ट कोशिकीय किण्वन से प्राप्त होते
(२) इसके निर्माण के समय अनेक (२) ये कोशिकायें परजीवी वनस्पति हैं। ये रसज/त्रस जीव उत्पन्न होते अपने विकास के लिये शर्कराओं को
विद्वेलित करती हैं और मद्य बनता है। (३) मद्य के रस में भी जीव (३) जब इस क्रिया में मद्य की मात्रा उत्पन्न होते हैं।
१०-१५% से अधिक हो जाती है, तब इनकी सक्रियता स्वयमेव समाप्त हो जाती है और मद्य निर्माण बंद हो जाता
(४) मद्य की एक बूंद में अनेक (४) शुद्ध मद्य एथिल ऐल्कोहल नामक
जीव उत्पन्न होते हैं। यौगिक है । विभिन्न पेय मंदिराओं में यदि वे बाहर फैलें, तो तथा आसव-अरिष्टादि औषधों में इसकी पूरा संसार उनसे भर मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। जाएगा।
(४) किण्वन की क्रिया से आजकल बहुतेरे
खाद्य, औषध और औद्योगिक पदार्थ बनाये जाते हैं। इस क्रिया से निर्मित लगभग ८४ पदार्थों की सूची शीम और
विक ने अपनी पुस्तक में दी है। २. प्रभाव (१) मद्यपान से रसज/त्रस जीवों (१) यह वाष्पशील पदार्थ है और त्वचा पर की हिंसा होती है।
पड़ने पर यह शीघ्र वाषित होता है जिससे त्वचा का तापमान कम होता है
और ताजगी का अनुभव होता है। खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
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(२) उच्च सांद्रण में यह कोशिकाओं से जल
खींचकर उन्हें अक्रिय बना देता है, विकृत कर देता है । इससे यह कीटाणु
नाशक एवं प्रतिरोधी होता है । (३) तनु मद्य क्षुधावर्धक होता है। यह पेट
की आंतों में हिस्टमीन एवं गैस्ट्रीन विमोचित कर स्रावों को बढ़ाता है।
यह मनोवैज्ञानिकत: उत्तेजक एवं ऊष्मादायी होता है ।
१५% से उच्च सांद्रण का मद्य नावों की गतिशीलता रुद्ध करता है, श्लेष्मा-झिल्ली को उत्तेजित करता है, गैस, वमन एवं मितली लाता है तथा पेट और आंतों को एन्जाइमी क्रिया को
प्रतिबंधित करता है। (२) मद्य मन को मोहित करता (४) यह केन्द्रीय नाड़ी तंत्र को अवनत कर
है। मद्यपान से अभिमान, सुखाभास या तनाव-शैथिल्य का आभास भय, क्रोध आदि हिंसक देता है। इस कारण ही मद्यपायी वृत्तियां उदित होती हैं। व्यक्ति समस्त प्रतिबंधों से मुक्त होकर मद्यपान धार्मिक गुणों को निंदनीय या असामाजिक व्यवहार नष्ट करता है।
करता है। यह उन्माद, मूर्छा, मिर्गी (५) मद्य मस्तिष्क के जालकों एवं सक्रियता एवं मृत्यु तक का कारण नियंत्रक केन्द्रों को प्रभावित कर उन्हें होता है।
अक्रिय करता है। यह दृष्टि की मद्य दुर्गति का कारण है। तीक्ष्णता एवं मस्तिष्क व मांसपेशियों मद्य चित्त-विम्रम उत्पन्न की समन्वय-क्षमता कम करता है। करता है।
(६) यह वेदनाहर नहीं है, फिर भी यह मद्य कु-योनिज भोजन है। वेदना की अनुभूति-गम्यता की सीमा मद्य पायियों की संगति भी को बढ़ाता है और सुखाभास देता है। दोष जनक है।
(७) ५.६ ग्राम से अधिक मद्य पीने पर
मात्रानुसार प्रभाव बढ़ते हैं और बेहोशी तक आ जाती है। इसकी अधिक मात्रा सुषुम्ना को प्रभावित करती है, हृदय को कंपन बढ़ाती है, रक्तचाप बढ़ाती है एवं हृदय-पेशियों को हानि पहुंचाती
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(८) मद्य के प्रभाव से यकृत वसीय अम्लों का
संश्लेषण एवं संचय अधिक करने लगता है। इससे भूख कम होती है और गैस बनता है । मद्यपान से मूत्रलता बढ़ती और मूत्र-नियंत्रक हार्मोन का उत्पादन कम होता है। मद्य वासना का उत्तेजक है शरीर-तंत्र में मद्य का अधिकांश यकृत में चयापचित होकर उष्मा उत्पन्न करता है। लगभग ०.६ लीटर मद्य
मारक हो सकता है। ३. उपचार
मद्य के व्यसन को दूर करने में मनोवैज्ञानिक विधियों, योग, खानपानपरिवर्तन तथा डाइ-सल्फिराम-जैसी
औषधियां सहायक होती हैं। ___ सारणी ४ से यह स्पष्ट है कि मद्य निर्माण के समय वनस्पति कोशिकायें बाहर से डाली जाती हैं। वे विकसित होती हैं और अपनी जनसंख्या में अल्प काल में ही अपार वृद्धि कर लेती हैं । मद्य के किंचित् अधिक सांद्रण होने पर ये कोशिकायें विकृत होकर अक्रिय हो जाती है, अधिकांश अवक्षेपित हो जाती हैं। इसलिये मद्य से और मद्य में जीवोत्पत्ति की बात वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यपूर्ण नहीं है। हां, यह अवश्य है कि आसव, अरिष्ट या अनेक मदिराओं का आसेवन नहीं किया जाता, अतः उनमें एकेन्द्रिय तथा अक्रियकृत वनस्पति कोशिकायें विलयन, कोलायड या निलंबन के रूप में बनी रहती हैं । लेकिन उत्तम कोटि की मदिराओं के आसवित होने से उनमें यह दोष नहीं पाया जाता । ऐसा प्रतीत होता है कि यह शास्त्रीय विवरण अनासवित मद्यों के आधार पर किया गया है क्योंकि सामान्य जन इनका ही उपयोग करते हैं। मद्योत्पादी वनस्पति की ये कोशिकायें त्रस हैं या स्थावर--इस पर पिछली सदी के वैज्ञानिकों में विवाद रहा है। इनके लिये स्थावर और त्रसों के बीच एक पृथक् जीव श्रेणी मानी गई थी। पर अब इन्हें वनस्पति की श्रेणी में ही लिया जाता है । फलतः स जीव घात का सिद्धांत मद्य की अभक्ष्यता का आधार नहीं मानना चाहिये। इसके अन्य प्रभाव ही इसकी अभक्ष्यता को पुष्ट करते हैं।
शास्त्रों में मद्य की अभक्ष्यता के कारणों में उसके अनेक व्यक्तिगत व सामाजिक कुप्रभावों को निरूपित किया गया है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह माना जाता है कि मद्य की अल्पमात्रा (६-१० मिली०) औषध, ताजगी, ज्वर-शमन आदि अनेक कारणों से लाभदायी हो सकती है पर अधिक मात्रा हृदय, यकृत, वृक्क तथा मस्तिष्क के कुछ सक्रिय भागों को प्रभावित करती है। इस कारण ही सुखाभास, मोहकरता एवं खण्ड १६, अंक २ (सित, ..)
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असामाजिकता के लक्षण प्रकट होते हैं । यह सुखाभास की अनुभूति ही इसके व्यसन का कारण बनती है। शास्त्रों में मद्य के जिन प्रभावों के वर्णन हैं, वे अधिक मात्रा में मद्यपान से शरीर-तंत्र के विभिन्न घटकों पर होने वाले प्रभावों के निरूपक हैं। वैज्ञानिकों ने इन दृष्ट प्रभावों के अन्तरंग कारणों का भी ज्ञान किया है। उनकी शोधों ने यह भी बताया है कि अफीम में विद्यमान कोडीन-मोर्फीन, गांजे-चरस-भांग में विद्यामान कनोविनोल की क्रिया भी, संरचनात्मक भिन्नता के बावजूद भी, शरीर-तंत्र के सक्रिय अवयवों पर मद्य के समान ही होती है । एल. एस. डी. हीरोइन और वर्तमान स्मैक के भी समरूप प्रभाव होते हैं। ये मद, मोह एवं विभ्रम उत्पन्न करते हैं। वैज्ञानिक मद्यपायी की विभिन्न निंदनीय एवं असामाजिक प्रवृत्तियों की भली-भांति व्याख्या कर सकता है । अतः औषधीय या बाह्यतः संपकित (मर्दनादि) मद्यमात्रा से अधिक मद्यपान हमारे लिये हानिकारक है । निशीथ चूर्णि" में भी मद्य के व्यसन को सोलह सामाजिक बुराइयों में गिना गया है, फिर भी, बीमारी में उसकी भक्ष्यता स्वीकृत है। दिगंबराचार्य इसे स्वीकृत नहीं करते । इस प्रकार, स्थावर-जीव-घात, मादकता, विकृति एवं अनुपसेव्यता (लोक विरुद्धता) के कारणों से मद्य की अभक्ष्यता और भी प्रयोगसिद्ध रूप से पुष्ट हुई है । इसमें उत्पाद दोष भी है और प्रभाव-दोष भी है । इसके समान अन्य मादक द्रव्यों के उपयोग के प्रति भी भारत सरकार तक चिन्तित है। उनमें उत्पाद दोष चाहे न भी हो, प्रभाव दोष तो है ही। सरकार दृश्य-श्रव्य एव दूरदर्शन के माध्यम से इनके कुप्रभावों के प्रति जन-जागरण कर रही है । जैनों के लिये यह प्रसन्नता की बात है । (२) मक्खन
मद्य के समान मक्खन को भी विकृति माना गया है। पर यह मान्यता कब प्रचलित हुई, यह स्पष्टतः ज्ञात नहीं क्योंकि इसका उल्लेख अनेक आगमों में भी है। आ० हरिभद्र, अमृतचंद्र, अमितगति, आशाधर तथा दौलतराम कासलीवाल ने बताया है कि दूध से बने दही को मथकर मक्खन निकालने के बाद उसे एक-दो मुहर्त (१-१३ घंटे) में तपाकर घृत के रूप में परिणत कर लेना चाहिये । इसके बाद मक्खन में उसी वर्ग के असंख्यात संमूर्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं । इसके खाने से मधु और मांस के समान दोष होता है । वस्तुतः मक्खन दूध या मलाई के आंशिक किण्वन से प्राप्त होता है । उग्रादित्य ने बताया है कि इसके गुण दूध से मिलते-जुलते होते हैं ।२५ १. दूध : शीत, मधुर, चिक्कण, हितकर, रोगनाशक, कामवर्धक, पुष्टिकर, अमृत २. मक्खन : शीत, मधुर/अम्ल, पथ्य, हितकर, रोगनाशक, अतिवृष्य - ३. घृत : शीत, पाचक, - दृष्टिवर्धक, रोगनाशक मेध्य, पुष्टिकर, रसायन ४. दही : उष्ण, अम्ल, चिक्कण, मलावरोधी, वातनाशक, वृष्य, विषहर, गुरु ५. तक्रः उष्ण, अम्ल, रुक्ष, कषाय, मलशोधक, कफनाशक -- अग्निवर्धक, लघु
दूध और मक्खन में यह अन्तर है कि दूध में पानी अधिक, वसा कम होता है और मक्खन में वसा अधिक (८५%) और जल तथा अन्य पदार्थ कम (१५%) होते हैं । वस्तुतः मक्खन बनाने की प्रक्रिया दूध के तैल-जल इमल्शन को जल-तल
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इमल्शन में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है। इसे सरल करने के लिये यह पाया गया कि यदि प्रासुक या पैस्चुरीकृत दूध या मलाई को लैक्टिक एसिड बैसिली नामक बैक्टीरियाई किण्व या तक्त दही, तक्र या अम्ल पदार्थों से ऋतु व तापमान के अनुसार १०-१८ घंटे तक उपचारित किया जाए, तो दूध का दसीय भाग किंचित् किण्वित होने के कारण सरलता से पृथक् किया जा सकता है । इस क्रिया में दूध के कुछ विलेय अंश खट्टे लैक्टिक अम्ल या दही में परिणत होकर मक्खन में कुछ खटास पैदा करते हैं और उसे विशिष्ट स्वाद व गंध देते हैं। फलतः मक्खन में न केवल दूध की वसा ही रहती है, अपितु उसमें विद्यमान कैल्सियम आदि के लवण तथा केसीन आदि प्रोटीन भी रहते हैं।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि मक्खन प्राप्त करने में बेक्टीरियाई परिवर्तन होता है । ये बेक्टीरिया एक-कोशिकीग सूक्ष्म जीवाणु माने जाते हैं और अपने विकास के समय दूध के वसा-विहीन कुछ अवयवों को लैक्टिक अम्ल जैमे पाचक घटकों में परिणत कर उसे और भी उपयोगी बनाते हैं। इसी आधार पर दही और मट्ठ को स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम खाच माना गया है। वस्तुत: दही, तक और मक्खन-सभी दूध की विकृतियां हैं। इसीलिये आज इन्हें भोजन का अनिवार्य घटक माना जाता है। फलतः यह स्पष्ट है कि मक्खन का प्रभाव उत्तम है । संभवतः यही कारण है कि पहले इसे अभक्ष्य नहीं माना जाता था। इसकी अभक्ष्यता की मान्यता उत्तरवर्ती है। इसमें शास्त्रीय दृष्टि से उत्पाद दोष माना जा सकता है, परंतु प्रभाव दोष नहीं। अतः मद्य के विपर्यास में, यह बहुफल-अल्पधाती है और मद्य निषेध की तुलना में, इसके विषय में अल्प विवरण ही मिलता है । यदि बुद्धि एवं वीर्य-वर्धकता कोई दोष है, तो मक्खन निश्चित रूप से इस दोष से दूषित है । वैज्ञानिक दृष्टि से, मक्खन वसीय होने से उससे शरीर तंत्र के चालन के लिये अन्न की तुलना में दुगुनी ऊर्जा प्रदान करता है, अनेक विटमिन और लवण प्रदान करता है । इस आधार पर मक्खन की अभक्ष्यता गृहस्थ के लिये उतनी मतत्त्वपूर्ण न हो जितनी साधु के लिये संभावित है। (३-४) चलितरस और द्विदल
चलित रस शब्द से ऐसे खाद्य पदार्थों का बोध होता है जिनके प्राकृतिक रस या स्वाद में कुछ दिनों रखे रहने पर, किण्वित होने पर और संभवत: संधानित करने पर परिवर्तन आ गया हो । वैज्ञानिक दृष्टि से तो दूध को भी चलितरस मानना चाहिये क्योंकि यह अनेक प्रकार के आहार-घटकों के जीव-रासायनिक परिवर्तन के फलस्वरूप सवित होता है । पर यह खट्टा नहीं होता, अत: इसे चलितरस या विकृति नहीं माना जाता। इसीलिये इसके उपयोग में धार्मिक प्रतिबंध नहीं है। पर इसके किण्वन से उत्पन्न सभी उत्पाद चलितरस होते हैं। संभवत: घी चलितरस इसलिये नहीं माना जाता कि वह भी खट्टा नहीं होता । यह सामान्य धारणा है कि जल युक्त, बासे खाद्य पदार्थ (इन्हें वायुजीबी जीवाणु अपना घर बनाकर, विकसित होते समय अंशतः विदलित करके उन में खटास आ जाती है) अथवा किण्वन क्रिया से तैयार किये पदार्थों में विकृति के कारण खटास आ जाती है और वे विकारी हो जाते हैं । इस दृष्टि से सभी दक्षिण भारतीय प्रमुख खाद्य (इडली, डोसा, उत्तपम् ढोकला, मट्ठा आदि) अभक्ष्यता को कोटि
६, अंक २ (सित०, ६०)
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में जाते हैं । उत्तर भारत की जलेबी, बड़ा, छोले-भटूरे, दहीबड़ा, आधुनिक युग की ब्रेड-विस्किट आदि और नान, खमीर का चूर्ण, बासी रोटी और भात, नीबू का सिरका आदि भी चलित रस में ही समाहित होते हैं क्योंकि उपरोक्त सभी पदार्थ मूल खाद्यों के किण्वन से तैयार किये जाते हैं। संभवतः इस प्रक्रम से बननेवाला सर्वप्रथम खाद्य 'मदिरा' ही होगी, इसलिये चलित रसों के भक्षण में भी मदिरा के समान दोष माना गया है।
अहिंसा की सूक्ष्म धारणा एवं प्राकृतिक चिकित्सकों के मन से हमारे आदर्श आहार में तो प्राकृतिक पदार्थों के सामान्य या उबले हुए रूप उनके पीसने या उबालने से प्राप्त चूर्ण या रस एवं दूध-फल ही होना चाहिये । परन्तु मानव ने यथासमय आकस्मिक रूप में अनुभव किया कि खाद्यों को अग्नि पर पकाने से या किण्वित कर उपयोग करने से उनकी सुपाच्यता एवं रसमयता अधिक रुचिकर हो जाती है। इन क्रियाओं में खाद्यों के दीर्घाणु किंचित् वियोजित होकर लघु हो जाते हैं जिससे उनके स्वांगीकरण में पाचनतंत्र को भी कम मेहनत करनी पड़ती है । इसलिये कच्चे, उबले या अकिण्वित खाद्यों की तुलना में सामान्य आहार में अन्य प्रकार के खाद्य अधिक होते हैं । इनकी अभक्ष्यता का आधार इनमें जीवाणुओं (यीस्ट, बेक्टीरिया, फंजाई) को उत्पत्ति माना जाता है जो अहिंसक दृष्टि का निरूपक है । पर ये सभी जीवाणु अब वनस्पति कोटि के ही माने जाते हैं और ये ही किसी-न-किसी रूप में हमारे आहार के घटक हैं । इन जीवाणुओं की एक विशेषता यह भी है कि ये प्राय: एक कोशिकीय हैं और जीवन तत्त्व के निम्नतम स्तर के निरूपक हैं। इनकी तुलना में, अन्य वनस्पतियां बहुकोशिकीय होती हैं । वस्तुतः 'विश्वग् जीवचिते लोके' से शरीर और परिवेश में व्याप्त इन्हीं सूक्ष्म जीवाणुओं का उल्लेख है । इनके बिना हम जीवित ही कैसे रह सकते हैं ? यहां यह सूचना भी मनोरंजक होगी कि आचारांग चूला में अनेक प्रकार के धोबनों (आटा, तिल, तुष, चावल, मांड आदि) की भक्ष्यता चलित-रस (खट्टे) होने पर ही मानी गई है । आगमों में अन्यत्र भी ऐसे खट्टे पान-भोजनों का उल्लेख है। यद्यपि यह विवरण श्रमणों के लिये है, फिर भी यह तो स्पष्ट है कि यह चलितरसता किण्वन या विकृति के बिना नहीं हो सकती । स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐसे धोबन सुपाच्य एवं पाचक होते हैं। फलतः चलितरसी पदार्थों की अभक्ष्यता की समग्र धारणा पुनर्विचार चाहती है । इसका आधार उत्पाद दोष न होकर शरीर एवं मन पर होनेवाला शुभा-शुभ प्रभाव माना जाना चाहिये।
हेमचंद्राचार्य और सोमदेव ने द्विदल को अभक्ष्य बताया है । इसका सामान्य अर्थ ऐसे अन्नों से है जिनके दो समान टुकड़े किये जा सकते हों। प्रायः सभी दलहन द्विदल होते हैं । शास्त्रों में पुराने द्विदल को अभक्ष्य कहा है क्योंकि बरसात में, पुराने हो जाने पर या अन्य परिस्थितियों में वे धुन जाते हैं और उनमें जीवाणु तो क्या, त्रस जीव भी पाये जाते है। यह सामान्य अनुभव की बात है। इससे पुराने द्विदल चलित रस भी हो जाते हैं । अतः जीव वात की दृष्टि से इनको अभक्ष्यता निर्विवाद है। यही नहीं, यह भी बताया गया है कि द्विदलों को कच्चे दूध या उससे बने दही-मठे के साथ नहीं खाना चाहिये । इससे बूंदो का रायता, बड़े, धोल बड़े आदि सभी अभक्ष्यता की कोटि
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में मा जाते है । द्विदलों की अभक्ष्यता से हमारे आहार का एक प्रमुख प्रोटीनी घटक ही समाप्त हो जावेगा। शास्त्रीय दृष्टि से, ऐसे खाद्यों में सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं। यह तो वातावरण एवं किण्वन का प्रभाव है। आशाधर ने इस विषय में कुछ उदारता दिखाई है । बे पकाये हुए दूध से बने दही-मछे से मिश्रित द्विदल को भक्ष्य मानते हैं। फलतः द्विदल एवं दही-मट्ठा मिश्रित द्विदल खाद्यों की अभक्ष्यता पुराने या विकृत द्विदलों पर ही लागू माननी चाहिये, नये द्विदलों पर नहीं । अतः द्विदल के बदले विकृत या पुराने द्विदल' शब्द का उपयोग करना चाहिये। फिर भी, यदि चलित-रस की अभक्ष्यता है, तो आशाधर का मत खंडित ही रहेगा। यदि किण्वन से प्राप्त पदार्थों की कोटि एक ही बनाई जाती, तो अधिक अच्छा था। इससे अभक्ष्यों को संख्या कम होगी।
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(शेषांश पृष्ठ १० का) (ख) जंबूविजयजी
१०० (vi) उत्तराध्ययन० अ० १३ चित्तसंभूत ० (vii) पण्णवणा सूत्र
(१ से ७४,१३६ से १४७) . (viii) षट्खण्डागम अ० १.१ से ८१ सूत्र ५ (ix) बृहत्कल्पसूत्र अ० १ (घासीलालजी) २ (x) विशेषावश्यक भाष्य १०१ से २०० ८ (xi) पज्जोवसणा सूत्र २३२ से २६१ ७ ६८
११ साहित्य में उपलब्ध प्रयोगों से स्पष्ट हो रहा है कि मध्यवर्ती पकार का प्रायः लोप नहीं मिलता है । उसका मुख्यत: वकार ही होता है। जैन और जैनेतर दोनों ही साहित्य में कम से कम ७४ प्रतिशत और अधिक से अधिक ६२ से १०० प्रतिशत पका व मिलता है । तब फिर व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार के विषय में प्रायःलोप का नियम कैसे बनाया होगा।
मध्यवर्ती वकार के प्रायः लोप का नियम तो बिलकुल ही उचित नहीं ठहरता
।
कहना पड़ेगा कि पकार और वकार के विषय में प्राकृत व्याकरणकारों के नियम शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के विपरीत जाते हैं। कम से कम प्राचीनतम साहित्य की प्राकृत भाषा पर यह नियम लागू नहीं होता है अतः अर्धमागधी भाषा पर भी ये नियम लागू नहीं होते हैं।
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'त्रिलोकसार' का कल्की राजा और यूनानी लेखकों का
सैण्डाकोटस क्या एक हैं ?
डॉ. परमेश्वर सोलंकी*
श्री भारत धर्म महामंडल द्वारा संरक्षित श्री निगमागम पुस्तक भाण्डार की ओर से संवत् १९६३ में 'कल्कि पुराण' का प्रकाशन हुआ था। काशी से प्रकाशित यह कल्की पुराण महर्षि वेदव्यास प्रणीत कहा गया किन्तु वास्तव में वह युग-परिवर्तन की कामना का परिचायक है और किसी क्रान्तदर्शी कवि की कृति है। इसके तीन अंश और ३५ अध्यायों में मात्र १३६६ श्लोक हैं जबकि 'पुराणोपपुराणसंख्यामान' अनुसार कल्कि पुराण में ६१०० श्लोक बताए गए हैं।
कल्कि पुराण का मंगलवाक्य भी उसे किसी संस्कृत कवि की कृति प्रतिज्ञापित करता है
"यदोर्दण्ड कराल सर्प कवल ज्वालाज्वल द्विग्रहाः
नेतुः सत्कर वालदण्डदलिताभूपाः क्षिति क्षोभकाः । शश्वत् सैन्धववाहनो द्विजजनिः कल्कि: परात्माहरिः
पायात्सत्ययुगादिकृत्स भगवान्धर्मप्रवृत्ति प्रियः ॥" भयंकर अत्याचारों से पृथ्वी की शांति को भंग करने वाले राजागण जिसके भुजभुजङ्गविषज्वाल से भस्म होंगे, जिसकी भंयकर तीक्ष्ण खंगधार से अत्याचारी राजाओं को दण्डित किया जाएगा वह ब्राह्मणवंशोत्पन्न सिन्धुदेशीय अश्वरोही सत्यादि युगों के अवतरणकर्ता धर्म प्रवृत्तिप्रिय भगवान् कल्की परमात्मा हरि तुम्हारी रक्षा करे ! ... इस पुराण की प्राचीनता के संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है। महाभारत (वनपर्व, अध्याय-१६०), श्री मद्भागवत (बारहवें स्कन्ध का दूसरा अध्याय); भविष्यपुराण (युग परिवर्तन प्रसंग), ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृति खंड), अग्नि पुराण (कलियुग कारण), गरुड़ पुराण (अध्याय-१४६) आदि और विष्णु धर्मोत्तर पुराण के श्लोक-'कलेरन्ते तु संप्राप्ते कल्किनं ब्रह्म वादिनम् । अनुप्रविश्य कुरुते वासुदेवो जगत् स्थितम् ॥'-में कल्की-प्रसंग उपलब्ध होते हैं। कश्मीरी कवि क्षेमेन्द्र के 'दशावतार चरित' में कल्की को 'शिशुकिकुले द्विजे'-कहा गया है और सुप्रसिद्ध गीतिकार जयदेव ने उसे- 'केशवधृत कल्की शरीर जय जगदीश हरे'-कहकर संस्तुत किया है।
फिर भी जैन ग्रन्थों में वर्णित कल्की इससे भिन्न हैं। त्रिलोकसार में कल्की का वर्णन करते हुए लिखा है* शोधकर्ता, अनेकान्त शोध पीठ, जैन विश्व भारती, लाडनं (राज.)
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"सो उम्मग्गाहि मुहो चउम्मुहो सरिवास परमाऊ। चालीस रज्जओ जिदभूमी पुच्छइ समंतिगणं ॥ अम्हाणं के अवसा णिगगंया अस्थि केरि सायारा। णितणवत्था भिक्खाभोजी जहसत्थमि दिवयणे ॥ तप्पाणिउड़े णिवडिव पढमं पिरंतु सुक्कामिदिगेज्झं ।
इवि णियमे सचिवकदे चत्ताहारा गया मुणिणो ॥" वह कल्की उन्मार्गाभिमुखी है और उसका नाम चतुर्मुख तथा वय ७० वर्ष है। उसका राज्य ४० वर्ष रहा । भूमि को विजय करते हुए उसने अपने मंत्रियों से पूछा कि अब कोन हमारे वश में नहीं रहा ? मंत्री बोले-निर्ग्रन्थ साधु ! उसने पूछा--वे कौन हैं ? मंत्री बोले-वे धन-वस्त्र हीन हैं और भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन करते हैं । कल्की ने आदेश दिया कि उनके हाथों में आई पहली भिक्षा 'कर' के रूप में ले ली जाय । इस पर मुनिगण आहार छोड़कर चले गए।
स्पष्ट है कि यह कल्की कोई ऐतिहासिक राजा है जो अपने राज्य से निर्ग्रन्थसाधुओं को निकाल बाहर करने को सचेष्ट रहा और वह अपनी कठोरता के कारण हो जैन-ग्रंयों में उल्लिखित हुआ है जबकि कल्कि-पुराण आदि में उल्लिखित कल्की युग-युग में होने वाले अत्याचार, अन्याय और अधर्म के विनाश के लिए दैवीय सहायता के रूप में परिकल्पित है।
भागवत में जहां २४ अवतारों का वर्णन है, वहां लिखा है कि २१ वीं बार कलियुग आ जाने पर मगव में देवताओं के द्वेषी, दैत्यों को मोहग्रस्त बनाने वाले जिन पुत्र बुद्ध का अवतार हुआ और उसके पश्चात् जब कलियुग समाप्त होने लगा और शासक वर्ग प्रजा को लूटने लगे तो विष्णुयश के घर कल्की पैदा हुए ----
"ततः कलो सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुर द्विषाम् । बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कोकटेषु भविष्यति ॥ अथासो युग संध्यायां दस्यु प्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ॥" यही बात अग्निपुराण में लिखी है कि 'कलियुग का अन्त होने के समय सब लोग वर्णसंकर हो जाएंगे । वे लुटेरे, शोल रहित और वेद-विरूद्ध आचरण करने वाले होंगे । सनकी रुचि धर्म की तरफ से हटकर अधर्म की तरफ चली जाएगी। म्लेच्छ राजागण मनुष्यों का बहुत बुरी तरह शोषण करेंगे । तब कल्की भगवान् श्री विष्णुयश के यहां प्रकट होंगे और याज्ञवल्क्य उनके पुरोहित होंगे। वे शस्त्र लेकर अपनी शक्ति से म्लेच्छों को नष्ट कर डालेंगे। इसके पश्चात् जब पृथ्वी पर फिर से सत्युग स्थापित हो जाएगा तब भगवान् कल्की पुनः अपने लोक को चले जाएंगे।' आचार्य नेमिचन्द्र का त्रिलोकसार
आचार्य नेमिचन्द्र का ग्रन्थ 'त्रिलोकसार' करणानुयोग -लोक-अलोक और युग परिवर्तन विषय का अद्भुत ग्रन्थ है। विक्रमी संवत्सर की ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखा गया यह ग्रन्थ नि:संदेह 'तिलोय पणति', 'जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति' आदि पूर्व ग्रन्थों पर
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आधारित है, किन्तु अपने विषय का अतीव प्रौढ़ और स्वतंत्र ग्रन्थ है। मान और गणना का इसमें सूक्ष्म विवेचन हुआ है । संख्यात, असंख्यात और अनन्त तीनों प्रकार की गणना में आचार्य नेमिचन्द्र ने असंख्यात और अनन्त को परीत, युक्त और असंख्य भेद से तीन-तीन प्रकार का मानकर संख्यात सहित संख्या के सात भेदों को जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट प्रभेद से गणना के २१ प्रकार लिखे हैं। वे 'एक' को गणना कहते हैं, 'दो' को संख्या और 'तीन' आदि को कृति मानते हैं। ____ आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार 'एक' और 'दो' में कृतित्व नहीं है । 'एक' में तो संख्यात्व भी नहीं है । एक को एक से गुणा-भाग करें तो कुछ भी हानि-लाभ नहीं होता। इसी प्रकार जिस राशि को वगं बनाकर वर्गमूल घटाने से शेष का वर्ग राशि से अधिक न हो उस संख्या में भी कृतित्व नहीं होता । अतः संख्या का आरंभ दो के अंक से ही होता है और उससे बाहर युगपत् प्रत्यक्ष ज्ञान तक असंख्यात और अनन्त तथा जिस राशि का माय के बिना व्यय होते रहने पर भी अन्त नहीं होता वह अक्षय अनन्त राशि होती है।
अपने इस कथन की व्याख्या करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र ने जगत् श्रेणी और केवल ज्ञान (अनन्तानन्तस्वरूप) का परिमान दिया है जो संख्यारूप में ६५,५३६ है। उनका कहना है कि लोक का आकार खड़ी डेढ़ मृदंग के समान है और उसका मध्य भरितावस्था में है। अर्द्ध मृदंग के समान अधोलोक है और मृदंग के समान ऊर्ध्वलोक है । दोनों मिलकर पूर्ण-लोक बनते हैं जिसकी ऊंचाई १४ रज्जु है । जगत् श्रेणी के सातवें भाग को रज्जु कहते हैं और उसके वर्ग को जगत् प्रतर । वे जगत् श्रेणी के धनलोक को ३४३ पनरज्जु मानते हैं । इससे नेमिचन्द्राचार्य के अनुसार अधोलोक का क्षेत्रफल-भूमि ७ रज्जु, मुख १ रज्जु और उत्सेध ७ रज्जु होता है । अर्थात् ७-१-१८:२-४x७ -२८ वर्ग रज्जु अधोलोक है और ऊर्वलोक का क्षेत्रफल----- भूमि १ रज, मध्य ५ रज्जु, मुख १ रज्जु और उत्सेध ७ रज्जु होने से ५+१=६:२= ३४७-२१ वर्ग रज्जु है । इस प्रकार सम्पूर्ण घनफल २८ २१-४६ वर्ग रज्जु जगत प्रतर का ७ गुना ३४३ धनरज्जु बनता है । जगत् श्रेणी का यही धनलोक उसकी १६ पल्ली, १६ गई छिद्र और उनके घनमूलों के पारस्परिक गुणन (१६४१६४१६ ४१६) ---से ६५,५३६ होता है।
इसी प्रकार युगपत् श्रुतज्ञान को संख्यात, युगपत् अवधिज्ञान को असंख्यात और युगपत केवल ज्ञान को अनन्त कहकर नेमिचन्दाचार्य ने अक्षय अनन्त राशि भी ६ .
की बताई है। सर्वधारा, समधारा, कृतिधारा, धनधारा, कृतिमातृकाधारा, धनमातकाधारा तथा प्रतिपक्षी-विषम, अकृति, अपन, अकृतिमातृका, अपनमात का, दिरूप वर्ग, द्विरूपधनवर्ग और द्विरूपधनाषनधारा-कुल १४ धाराओं में परिगणन करके अंकसंदष्टि में सर्वत्र अनन्तानन्त स्वरूप केवल ज्ञान का मान भी ६५,५३६ ही माना है। क्योंकि द्विरूप वर्गधारा में पहला वर्ग १६, दूसरा २५६ और तीसरा ६५,५३६ पिण्णटीपञ्चसया छत्तीसा) होता है और यही संख्या सर्वधारा और समधारा संख्यामों
क्रमशः १ और २ से गणना पर केवल ज्ञान स्वरूप में प्राप्त होती है। सर्वाश में
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बम, अंक २, (सित०, १०)
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आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार ६५,५३६ की संख्या केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की सर्वोत्कृष्ट संख्या और सिद्धांक है जो जगत् श्रेणी के घनलोक और घनमूल गुणन तथा १४ धाराओं के संख्या परिगणन से उपलब्ध है। त्रिलोकसार की यह अपनी उपलब्धि है। कालान्तर और कालमान का उल्लेख
त्रिलोकसार के नरतियंग्लोकाधिकार में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल, कुलकर, तीर्थंकर, चक्रवर्तिन आदि की आयु सीमा और शकराजा तथा कल्की राजा की उत्पत्ति कही गई है। वहां तीर्थंकरों के आपसी अन्तराल और जिनधर्म उच्छेद का कालमान भी दिया है। सात अन्तरालों में ४ पल्य पर्यन्त जैनधर्म के अनुयाइयों का अभाव बताया गया है किन्तु 'पल्य' का कालमान अस्पष्ट है और यह अन्तराल व उच्छेद सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ के मुक्त होने से पहले का है।
आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ से शान्तिनाथ तक सभी तीर्थंकरों की आयु लाखों के अंकों में दी है जो हमारी समझ में मुहूर्तों की संख्याएं हैं । कुन्थुनाथ से नेमिनाथ तक छह तीर्थंकरों की आयु सहस्रकों में दी है जो वाल्मीकि रामायण के प्रयोग अनुसार दिनों की संख्या है ।' तत्पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की आयु वर्तमान वर्षों में है। इस प्रकार गणना करने पर यह आयु ६७१६ वर्ष ७ माह बनती है जो महावीर निर्वाण तक का कालमान होता है। (यदि कुन्थुनाथजी की आयु ६० हजार दिन के स्थान पर ६५ हजार दिन मानी जाय तो १३ वर्ष १० माह २० दिन बढ़ जाएंगे)
यतिवृषभाचार्य की 'तिलोय पण्णति में महावीर-निर्वाण बाद का काल लिखते समय अस्पष्टता होने से 'वीर जिणे सिद्धिगदे'-कहकर वीर जिन सिद्धि से ४६१ वर्ष बाद शक राजा; 'अहवावीरे सिद्धे' लिखकर ६७८५ वर्ष ५ माह बाद शकराजा; 'वीरेसर सिद्धीदो'-से १४७६३ वर्ष बाद शक राजा की उत्पत्ति और 'णिव्वाणे वीर जिणे'--लिखकर ६०५ वर्ष ५ माह बाद शकराजा होने की बात लिखी है किन्तु विक्रम संवत्सर की ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए नेमिचन्द्र ने त्रिलोकसार में स्पष्ट लिख दिया है
"पणछस्सयवस्सं पणमास जुवं गमियवीर णिव्वुइदो।
सगराजोततो कसी चदुणवतियहिय सगमासं ॥" कि वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ माह बाद शकराजा हुआ और उसके ३६४ वर्ष ७ माह बाद अर्थात् वीर निर्वाण से हजार वर्ष बाद कल्की हुआ। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि यतिवृषभ के समय कालमान में जो अस्पष्टता थी उसे दसवीं सदी विक्रमी तक सर्वमान्य हल से सुलझा लिया गया किन्तु कालान्तर और काल-उच्छेद में अस्पष्टता बनी रही। फिर भी वल ज्ञान और अविभाग प्रतिच्छेदों की सर्वोत्कृष्ट संख्या के रूप में ६५, ५३६ की संख्या पर भी सहमति हो गई। इसीलिए त्रिलोकसार में उसे प्रमुखता से बारंबार लिखा गया ।
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यदि हम इस केवल ज्ञान संख्या को त्रिलोकसार के उपरोक्त उल्लेख ६०५ वर्ष ५ माह और ३६४ वर्ष ७ माह की तरह अविभाजित मान लें । अर्थात् माह संख्या समझें तो उसका कालमान ५४६१ वर्ष ४ माह बनता है जो महावीर निर्वाण तक का कालमान होने से एक हजार वर्ष के योग से ६४६१ वर्ष ४ माह होता है । अर्थात् केवल ज्ञान से कल्की जन्म तक का कालमान ६४६१ वर्ष ४ माह बन जाता है।
यूनानी लेखक प्लिनी (Nat V] --21/5) के अनुसार फादर बक्कस से सिकन्दर तक १५४ राजाओं का कालमान ६४५१ वर्ष ३ माह है जो आचार्य नेमिचन्द्र के केवल ज्ञान से कल्की जन्म तक के कालमान ६४६१ वर्ष ४ माह से केवल १० वर्ष १ माह कम है किन्तु एरियन (इन्डिका-१) के उल्लेख अनुसार भारतीय राजा डायोनीसस से सैण्डाकोटस तक १५३ राजाओं के कालमान ६०४२ वर्षों में दो बार की टूटत ३०० + १२० वर्षों के योग के समतुल्य है ।
सैण्ड्राकोटस महाभदरेन राजवंश का १५३ वां राजा था । महाभद्रेन राजवंश वर्तमान हरियाणा, राजस्थान और सिंध (पाकिस्तान) के क्षेत्र पर शासन करता रहा और उसकी राजधानी पारिभद्र को वर्तमान नोहर-भादरा के रूप में पहचाना गया है। गणनानुसार सैण्ड्राकोटस विक्रम पूर्व २५३ वर्ष (अथवा ३१० ईसा पूर्व) गद्दीनशीन हुआ और उसकी गद्दीनशीनी से एक हजार वर्ष पूर्व अर्थात् १२५३ विक्रम पूर्व महावीरनिर्वाण हुआ । तदनुसार १२५३+ ५४६१ वर्ष ४ माह --६७१४ वर्ष ४ माह पूर्व विक्रम केवल ज्ञान का कालमान बनता है जो राजा डायोनीसस का भी काल हो सकता है। तीर्थकर आयुमान (महावीर निर्वाण तक) भी इससे समतुल्य दीख पड़ता है किन्तु उसमें के अनेकों कालान्तर लुप्त हो चुके हैं । संदर्भ: १. वाल्मीकि रामायण (उत्तरकांड, सर्ग-७३) में एक श्लोक निम्न प्रकार है
"अप्राप्त यौवनं बाले पंचवर्ष सहस्रकम् ।
अम्ले कालमापन्नं मम दुःखाय पुत्रकम् ॥" कि मेरा बालक पाच वर्ष सहस्रक आयु में ही काल कवलित हो गया और बिना युवा अवस्था पाये ही मृत्यु को प्राप्त होकर मुझे दुःखी बना गया। यहां 'पंचवर्ष सहस्रकम्' की टीका करते हुए पं० रामाभिराम लिखते हैं---'पंचवर्ष सहस्रकं वर्ष शब्दोत्र दिनपरा किञ्चिन्न्यूनचतुर्दश वर्ष मित्यर्थ; कि यह वर्ष - दिन संख्या है। २. एरियन की इन्डिका का अंग्रेजी अनुवाद 'दी इण्डियन एण्टिक्वेरी' (वर्धमान ग्रंथागार क्रमांक ८१ ६४) में पृष्ठ ८५ से १०८ तक छपा है जिसमें पृष्ठ ६० पर उक्त विवरण उपलब्ध है।
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सुमतितंत्र का शकराजा और उसका कालमान ( प्रतिक्रियाएं)
[ उक्त शीर्षक से गत अंक में छपे लेख पर दो प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं जो अविकल रूप में यहां प्रकाशित की जा रही हैं । जैसाकि सम्बद्ध लेखक ने अपने लेख में आह्वान् किया है - ' अधिकारी विद्वान् इस शोध कार्य में समभागी बनेंगे और भारतीय कालगणना का यह अस्पष्ट अध्याय स्पष्ट हो सकेगा ' - और भी विद्वान् अपने अभिमत देंगे और उनके द्वारा यह परिचर्चा तथ्यान्वेषण में सहायक होगी। -संपादक ]
प्रतिक्रिया - १
चन्द्रकान्त बाली* उपेन्द्रनाथ राय *
सुमतितंत्र का शकराजा और उसका कालमान - चंद्रकान्त बाली
'तुलसी प्रज्ञा', खण्ड- १६, अंक-१ (जून १९६०), पृष्ठ - ३५ पर 'सुमतितंत्र का शकराजा और उसका कालमान' नामक लेख छापा गया है । प्रकृत लेखक भी इसी शीर्षक पर चिरकाल से विचार कर रहा है और लिख रहा है ।'
टिप्पणी : मेरे समक्ष बृटिश म्यूजियम में सुरक्षित (सैसल बैण्डल सूचीपत्र सन् १९०२ का क्रमांक ३५६४) 'सुमतितंत्र' की फोटो स्टेट प्रति रखी है । उ 'छोटे-मोटे पाठांतरों
के अतिरिक्त एक गंभीर पाठान्तर है । यथा
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१. “ शकराजा ततो पश्चात् वसु रन्ध्र- कृतं तथा ।"
२. " शकराजा ततो पश्चात् वसु-चन्द्र-कृतं तथा ।"
४०६ मौर्य संवत् अथवा ४१८ मौर्य संवत् में से कौन-सा वर्ष ग्राह्य है ? इस पर पहले प्रकृत लेखक ने कभी विचार नहीं किया ।
पूर्व प्रकाशित निबंध पर पुनर्विचार का मुख्य कारण उक्त 'पाठान्तर' है । अस्तु ! इस सुमतितंत्रीय श्लोक की सही-सही व्याख्या तभी संभाव्य है, जब उसपर आश्रित 'सारिणी' को समक्ष रख लें
०३४)
* एन. डी. २३, विशाखाइन्क्लेव, पीतमपुरा, बेहली- ३४ ( पिन- ११००३ * ग्राम डाकघर मेटेली, जिला-जलपाईगुड़ी (पश्चिम बंग), पिन- ७३५२२३
तुलसी प्रशा
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००*
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का
अथ सारिणी दुर्योधन युधिष्ठिर नंदसंक्त् शूद्रक संवत् मौर्य संवत् शक संवत् ईसवी पूर्व संवत् संवत्
३१६२
३१४८-६ २०१४ २०००
११४८ वर्षों संशोधन
११४२ २७०० २६८६ ००६
४५६ २८१४ २८०० 500
३४२ [२९४६ २६३२९३२ २४६५- →६३२० - २१०] ३२२२ ३२०८ १२०८ . ५२२ ४०८:: ०० ९९ ईसवी
(*) भारतीय कालगणनाएं शून्य से आरंभ होती हैं। (क) सप्तर्षि-संवत् १००१.. ३१६२ ई० पूर्व में दुर्योधन का अभिषेक हुआ, तभी से 'दुर्योधन संवत्' की स्थापना मान्य है । वह शान्तनु-अभिषेक का द्वि-शताब्दी वर्ष भी था।
(5) पाण्डव १३ वर्ष वन में रहे । १ वर्ष युद्ध-प्रस्तुति में बीत गया। अतः सप्तर्षि-संवत् १०१४ ३१४८ ई० पूर्व में भारत संग्राम घटित हुआ। तभी युधिष्ठिरसंवत् स्थापित हुआ।
(O) दो हजार वर्ष पर्यन्त युधिष्ठिर-संवत् प्रचलित रहा। तभी नंदवंश का अभ्युदय हुआ। (क) प्राचीनकाल में सप्तर्षि-गणना प्रचलित थी। बाद में सौर गणना लोकमान्य हुई । यद्यपि पौराणिक इतिहास में सप्तषि-गणना में तथा सौर-गणना में व्यवधानकाल कुछ अधिक है; परन्तु प्रस्तुत सारिणी में वह व्यवधानकाल केवल छह वर्ष है । अतः वैज्ञानिक अनिवार्यता के वशीभूत उक्त संशोधन प्रस्तुत है। संशोधन-प्राक सप्तर्षि संवत्. तत्पश्चात् सौर-गणना उपस्थित है।
(8) 'शूद्रक संवत्' की सिद्धि के लिए प्रमाणान्तर उपलब्ध है । यथा"बाणाब्धिगुण दस्रोनाः शूडकाब्दाः कलेगताः।"-यल्लार्य
अर्थात् कलि संवत् के ५-४-६-२ (अङ्कानां वामतोगति: २६४५) वर्ष बीतने पर 'शूद्रक-संवत्' स्थापित हुआ। गणना करने परईसवी पूर्व का साल ३१.१
(-) २६४५ कलि संवत् --- (०० शूद्रक संवत्) ४५६ ईसवी पूर्व । यही फलागम हम सारिणी में देख रहे हैं । यद्यपि सुमतितंत्र में 'शूद्रक-संवत्' की स्थापना का कोई संकेत नहीं है; तथापि प्रमाणान्तर से सारिणी को साधु रखना हमारा कर्तव्य था, जो हमने पूरा किया।
(1) मौर्य संवत् पर पर्याप्त लिख चुके हैं। हमारे परिपक्व निर्णय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का अभिषेक ३४२ ईसवी पूर्व में हुआ था, तभी से 'मौर्य संवत्' गणनाधीन है और यही संकेत सुमतितंत्र में भी है : 'नन्दराज्यं शताष्ट वा चन्द्रगुप्तस्ततोपरम् ।'
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नंदसंवत् ८०० - मौर्यसंवत् ०० = ३४२ ई० पूर्व का साल । यद्यपि पौराणिक कालगणना तथा सुमतितंत्रीय कालगणना में तालमेल का अभाव है; यथा
__ "प्रमाणं वै तथाचोक्तं महा-पमान्तरं च यत् ।
अन्तरं तच्छतान्यष्टो षत्रिंशत् समाः स्मृताः॥" -मत्स्य, १७१।१६ कहां ८०० (आठ सौ) और कहां ८३६ वर्ष ? है कोई तालमेल ? हमने संवत्सर ज्ञान के सहारे ८००-३६ - ७६४ सौर वर्ष ही ग्रहण किए हैं। (जो पौराणिक कालगणना के अनुसार सो-सैंकड़ा यथार्थ हैं) परन्तु सुमतितंत्र के साथ उसका कोई समतल समन्वय नहीं है । तथापि महद् आश्चर्य है-फलागम तक पहुंचते-पहुंचते दोनों गणनाएं “मौर्य संवत् ०० = ३४२ ई० पूर्व" तक एकमेव फलमुक् हो जाती है।
(0) सुमतितंत्र की आठवीं पंक्ति : राजा शूद्रकदेवश्च वर्षसप्ताब्धिचाश्विनी रचनाकार की वैज्ञानिक सूझबूझ की पराकाष्ठा को प्रमाणित करती है। यहां पहुंच कर रचनाकार अपनी शलाका परीक्षा लेने पर तुल गया है । उसके निर्णय के अनुसार जब शूद्रक संवत् २४७ था, तभी अर्थात् उसी वर्ष मौर्य संवत् १३२ था। क्या कमाल का गणितीय निर्णय है : ईसवी पूर्व ४५६
ईसवी पूर्व ३४२ [-] २४६ शूद्रक संवत् --- र [-] १३२ मौर्य संवत् २१० ई० पूर्व
२१० ई० पूर्व जरा ध्यान रहे-हमने सारिणी की 8 वीं पंक्ति को [ ] कोष्ठक में लिखा है।
(::) मौर्य संवत् ४०८ वर्ष बीतने पर इतिहास में शक राजा हुआ। गणना बड़ी साफ- सुथरी है : ४०८-३४२ ..६६ ईसवी सन् । अर्थात् सुमतितंत्र का प्रस्तावित शकराजा ईसवी सन् ६६ में हुआ। हम इस पर पर्याप्त अनुसंधान कर चुके हैं।
पाठान्तर-सिद्ध सारिणी।
४५७
२८२८ २८०२ ८०२ ११७ ० ०
३४० २६६० २६३४ ६३४ २४७-४८ १३२ - २०८-०६ ६२४४ ३२१८ १२२२ ५३५ ४१८ ०० ७८ ईसवी
विचारक वृन्द ! जरा ध्यान से अवलोकन करें-(क) ४०८ के विकल्प में ४१८ (वसुचन्द्रकृतं तथा) का प्रस्ताव ईसवी सन् ७८ के शकराजा को सारिणी बद्ध करना है । (ख) इसका सीधा दुष्प्रभाव मौर्य संवत् के स्थापना वर्ष पर पड़ता है। ३४२ ई० पूर्व का स्थान ३४० ई० पूर्व ने ले लिया है। परिणाम स्वरूप समूची पौराणिक काल-शृंखला डगमगा जाएगी। (ग) शूद्रक संवत् की स्थापना बिन्दु स्यात्, सुरक्षित रह गई है : ई० पूर्व ३१०२-२६४५ - ४५७ ई० पूर्व का साल समाहित हो जाता है । (घ) शलाका-परीक्षा वाली पंक्ति भी १-२ वर्षों की घटत-बढ़त से प्रभावित हुई है । शेष समूची सारिणी पूर्ववत् है । वसुरन्ध्रकृतं तथा == ४६८ का अर्थाधान हर कीमत पर और प्रत्येक स्तर पर
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अनैतिहासिक होने से अमान्य है।
शकराज बनाम शकराज सुमतितंत्र की पाठान्तर-कल्पना रास आई है। मौर्य संवत् ४०८ में एक शकराजा हुमा, मौर्य संवत् ४१८ में तद्भिन्न शकराजा हुआ। दो-दो मूर्तियों की पहिचान इतिहास में उपलब्ध है । यथा
प्रमर : ६६ ई० पूर्व
गन्धर्वसेन ........
विक्रमादित्य शालिवाहन
महेन्द्रादित्य
- (प्रतापादित्य)
, १. भर्तृहरि ..-२. साहसांक विक्रमादित्य-३. शूद्र क (१) प्रमर का उल्लेख भविष्य पुराण में है, और उसका समय है-सप्तर्षि संवत् ३७१० ..६६ ईसवी पूर्व । जैन ग्रन्थों में इसका स्पष्ट उल्लेख है।
(२) शालिवाहन-विक्रमादित्य प्रसिद्ध इतिहास-पुरुष है। इसीने मालववंश को उज्जैन से उत्पादित किया था :--
"एतस्मिन्नन्तरे तत्र शालिवाहन भूपतिः। विक्रमादित्य-पौत्रस्य पितृराज्यं गृहीतवान् ॥"- भविष्य पुराण
(३) इसके दो पुत्र हुए --- महेन्द्रादित्य और प्रतापादित्य । सौभाग्यवश प्रतापादित्य काश्मीर-नरेश स्थापित हुआ
"प्रतापादित्य इत्याख्न: तैरानीय दिगन्तरात् ।। विक्रमादित्य भूभर्तुः ज्ञातिरत्राभिषिच्यत ॥"-राज, २।४
(४) राजा महेन्द्रादित्य के पश्चात् ज्येष्ठ अपत्य होने से 'भर्तृहरि' राजा बना । शतकत्रय का प्रणेता यही भर्तृहरि है । दुःशीला पत्नी से उद्विग्न भर्तृहरि ने सिंहासन छोड़ दिया और उसके उभय सहोदरों ने भ्रातृ राज्य को बांट लिया। ये दोनों 'शकराजा' कहलाए । यथा१. साहसांक शकराजा
२. विक्रमांक (शूद्रक) शकराजा शासनकाल ६५-८० ईसवी | शासनकाल ६५-६० ईसवी। इन सहोदर राजाओं का सह-उल्लेख विशेष ध्यानाकर्षक है१. वासुदेव-सातवाहन (हाल)--शूद्रक-साहसाङ्क (राजशेखर) २. संत्यज्य विक्रमादित्यं सत्त्वोद्रिक्तं च शूद्रकम् ॥ (राजतरंगिणी)
इन सहोदर राजाओं की पृथक्ता और पहचान की पुष्कल सामग्री उपलब्ध है; परन्तु हम विस्तार में न जाते हुए संक्षेप में बताना चाहेंगे कि नाटककार कालिदास दोनों का सभारत्न था
१. रसभावविशेष दीक्षा गुरोः साहसाङ्कस्य श्री विक्रमादित्यस्य (शाकुन्तलम्)
२. व्याख्यातः किलकालिदास कविना श्री विक्रमांको नृप । (सूक्ति समुच्चय) खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
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दोनों शकराजाओं ने अपने-अपने तौर-तरीकों से 'शककाल स्थापित किए। साहसांक द्वारा स्थापित काल ६६ ईसवी से गणनाधीन हुआ, विक्रमांक द्वारा स्थापित शककाल ७८ ईसवी से प्रचलित हुआ। जरा स्मरण कर लें भारत सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय शक महाराजा शूद्रक का अमर स्मारक है।
दो शककालों की विभाजक पहचान नाम-साम्य के कारण कहीं इनमें गड़बड़ न हो जाए--परवर्ती कालविद् महाशय ने इनकी भौगोलिक तथा प्रयोगान्वित पहचान स्थापित की है । यथा
१. भौगोलिक विभाजन : रेवा नदी को विभाजक रेखा मानते हुए आचार्यों ने रेवा-उत्तर में ६६ ईसवी के शककाल के प्रचलन की स्वीकृति दी है और ७८ ईसवी के शककाल को रेवा-दक्षिण में ही रहने दिया है। ज्योतिषसार के अनुसार
“स पंचाग्निकुभिः युक्तः कालः स्याद् विक्रमस्य हि । रेवाया उत्तरे तीरे संवन्नाम्नाति विश्रुतः ।" ज्योतिषसार यहां विक्रमादित्य के उल्लेख मात्र से ६६ ईसवी का शाककाल ग्राह्य है।
२. प्रायोगिक विभाजन : प्रयोग की दृष्टि से दोनों शककाल अलग-थलग हो गए हैं। (क) ६६ ईसवी का शककाल इतिहास का माध्यम बन गया है, जबकि (ख) ७८ ईसवी का शककाल ज्योतिष गणना का साधन सिद्ध हो रहा है।
इतिहास १. गुप्तसंवत् : अबूरिहां अलबरुनी का कहना है : शककाल के २४१ वें वर्ष में गुप्त-संवत् स्थापित हुआ, सो २४१+ ६६ - ३०७ ईसवी से गुप्त-संवत् की गणना साधु है । यथा
१. चन्द्रगुप्त प्रथम ३०७ से-आईन-ए-अकबरी में लिखा है-विक्रमादित्य और २. समुद्रगुप्त ३१४ ई० से.- आदित्य पोवार में ४२२ वर्षों का व्यवधान है।
३. चन्द्रगुप्त द्वितीय ३६४ से- ई०पू० ५८+२६४ ई० = ४२२ वर्ष यथार्थ है। ईसवी सन् ७८+२४१ == ३१६ से गुप्त संवत् की स्थापना अशुद्ध है ।
२. लक्ष्मणसेन संवत् की गणना भी-ईसवी ६६+१०४१ शककाल ११०७ ई० गणनीय साधु है। ७८+ शककाल १०४१ १११६ ईसवी की स्थापना अनैतिहासिक होने से अमान्य है।
३. मौर्य संवत् ४०८-३४२ ....६६ ईसवी की गणना परम्परागत है, जब कि ४१८-७८ ... ३४० ई० पूर्व की स्थापना अपौराणिक होने से अमान्य है। निष्कर्षतः "वसु-चन्द्रकृतं तथा" का पाठान्तर प्रत्यारोपित होने से अमौलिक है और अमौलिक होने से अमान्य है।
४. वीर निर्वाण संवत् भी इसी संदर्भ में विचारणीय है । यति वृषभ के समय तक सप्तर्षि-संवत् प्रचलित रहा है।
"चौदससहस्स सगसय तेणउदिवासकालविच्छेवे । वीरेसर सिद्धिदो उप्पणो सगणियो अहवा ॥"-गाथा क्रमांक १४६८
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त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार सप्तर्षि-संवत् १४७६३ में से वीर-निर्वाण संवत् तथा शककाल का अन्तराल अन्वेषणीय है। इस बृहती गणना में पांच सप्तर्षिचक्र फालतू जमा हैं। यथा-२७०० x ५ --१३५०० मूल संख्या से घटाने पर : १४७९३-१३५०० ..- शेष १२६३ । प्राचीन गणनानुसार १२२७ ई० पूर्व में वीरनिर्वाण संभव हुआ। अतः १२६३-१२२७ ...६६ ईसवी सन् में शकराजा हुआ।
इसी तर्ज पर सप्तर्षि संवत् १७८५ का समाधान भी विचारणीय है। परन्तु उसकी गणनाशैली इस गणनाशैली से जरा भिन्न है।
टिप्पणी : यद्यपि हमने सप्तर्षि संवत् के माध्यम से जैन कालगणना का अभ्यास किया है, जिसके परिणाम सुनिश्चित और साधु मिले हैं; तथापि हम अपने अनुसंधान से संतुष्ट नहीं हैं । हमें इस विषय पर और अधिक अभ्यास की आवश्यकता
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हम सम्बद्ध लेखक की अवधारणा को समझने में असमर्थ रहे हैं-यह हमारी बौद्धिक अक्षमता ही है । तुलसी प्रज्ञा के खंड १६/अंक ( के पृष्ठ ३५ की पंक्ति २५-२७ बड़ी उलझनपूर्ण हैं। उसको सारिणी में पलट कर देखते हैं :कलि नन्द शक विक्रम
ई० पूर्व
३१०१ १५०० २५०५ १००५
५६६ ३०४३ १५४३ ५३६-३८
५७-५६ सम्बद्ध लेखक के प्रस्तावित ५३८ विक्रम पूर्व (अर्थात् ५६५ ई० पूर्व) के किसी शकराजा की संस्तुति अथवा विश्रुति भारतीय इतिहास में नहीं है । ५३८ विक्रम पूर्व के शकराजा का प्रामाणिक परिचय उपलब्ध कराना सम्बद्ध लेखक का नैतिक कर्त्तव्य है । हमें इसकी प्रतीक्षा रहेगी। सन्दर्भ: १. वेदवाणी, सोनीपत (बहालगढ़) हरियाणा । वष ३३, अंक ८, पृ० १५। लेख
'सुमति तंत्र का कालचक्र' । जून, १९८१ २. (क) सरस्वती, इलाहाबाद । वर्ष ७४, पूर्ण संख्या ८८१; मई, १९७३
(ख) वेदवाणी, बहालगढ़ । वर्ष ३४, अंक ८; पृ० २० । जून, १९८२ ३. (क) हिन्दुस्तानी त्रैमासिक पत्रिका, इलाहाबाद । भाग ३७, अंक १, पृ० ६० । (ख) सम्मेलन पत्रिका, इलाहाबाद । भाग ६३, अंक-२। चैत्र-भाद्रपद १८६६
शत, १० ११३ । लेख 'उज्जयिनी और शक वश'। ४. त्रिलोक प्रज्ञप्ति में लिखा है-'वीरजिणे सिद्धिगदे चउ-सब इकसट्ठि वासपरिमाणे। कालम्मि अदिक्कन्ते उप्पन्नो एत्थ सगराया।" अर्थात् वीर निर्वाण से ४६१ वें वर्ष में
शकराज प्रतिष्ठित हुआ । यथा-ई० पू० ५२७-४६१ ६६ ईसवी पूर्व में हुआ। ५. प्राचीनतम जैनग्रंथों में से प्रतीत होता है -वीर निर्वाण संवत् १२२७ ई० पूर्व में हुआ। अधुनातन जैन शास्त्र प्रतिपादित करते हैं-धीर निर्वाण ५२७ ई० पूर्व में
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हुआ। देखिए(क) वर्धमान संवत् : परिषद् पत्रिका : २०१४, जनवरी, १९८१, पृ० ४६ (ख) भारतीय इतिहास में ७०० वर्षों का उलटफेर : हिन्दुस्तानी शोध पत्रिका, भाग
४, अंक १ और पृ० १॥ प्रतिक्रिया-२
शकराजा और शककाल
-~-उपेन्द्रनाथ राय 'सुमतितन्त्र का शकराजा और उसका कालमान' नामक लेख में लेखक ने कुछ ऐसे तथ्य दिये हैं और ऐसी समस्याएं रखी हैं जिनका समुचित समाधान कर सकने की क्षमता मुझमें नहीं है । मेरी जानकारी सीमित है। फिर भी कुछ निवेदन करने का लोभ सवरण नहीं कर सका क्योंकि आशा है कि समाधान का पथ निकालने में इससे अधिकारी विद्वानों को कुछ सुविधा होगी। बृहत्संहिता का संदर्भ
उक्त लेख में लेखक लिखते हैं :-"राजा युधिष्ठिर और शक राजा में २५२६ वर्षों का अन्तर वृद्धगर्ग के हवाले से वराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता (१३।३) में भी दिया है
"आसन् मघासु मुनयः शासति पृथिवीं युधिष्ठिरे नृपतौ। _ षड्द्विकपञ्चद्वियुतः शककालः तस्य राज्ञश्चः॥"
लेखक का यह कथन आधुनिक विद्वानों की परम्परा के सर्वथा अनुकूल है। परन्तु सत्य का निर्णय हाथ गिनकर नहीं किया जा सकता। किसी श्लोक का अर्थ-निर्णय करने के लिए श्लोक का पदच्छेद और अन्वय करना चाहिए। इसके बाद देखना चाहिए कि बिना किसी पद को छोड़े अथवा किसी अदृष्ट पद का अध्याहार किये बिना अर्थ निकलता है ? यदि निकलता है तो जो अर्थ मिले वही प्रकृत अर्थ है। कहींकहीं किसी एक अदृष्ट पद का अध्याहार आवश्यक एवं मान्य होता है किन्तु पूरे वाक्य या वाक्यांश का अध्याहार या किसी भी पद का वर्जन कदापि नहीं होता। इस पद्धति का वर्तमान युग में आग्रहवश अनादर ही देखा जा रहा है । अतः बहुसंख्यकों के मत से मुझे असहमत होना पड़ा है।
इस श्लोक का अन्वय इस प्रकार है-~-युधिष्ठिरे नृपती पृथिवीं शासति मुनयः मघासु आसन, तस्य राज्ञः च शककालः षद्विकपञ्चद्वियुतः । इससे सीधा अर्थ यह प्राप्त होता है कि राजा युधिष्ठिर के शासनकाल में सप्तर्षि मघा में थे और उस राजा का शककाल २५२६ है । 'उस राजा का शककाल' का सरल अर्थ युधिष्ठिर का शककाल है जो राजा युधिष्ठिर के राज्यारोहणा से शुरू हुआ। वृद्धगर्ग में इस श्लोक का प्रयोजन ग्रन्थ के रचनाकाल का निर्देश करना था। इस समय अप्राप्य उक्त ग्रन्थ ३१३८-२५२६ -- ६१२ ई० पू० के निकट रचा गया होगा। कालान्तर में इस श्लोक का उपयोग युधिष्ठिर का काल बताने के लिए होने लगा और श्लोक में 'प्राक्' या 'पूर्व' जैसा कोई
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पद न होने पर भी यह कल्पना कर ली गयी कि युधिष्ठिर शकाब्द के २५२६ वर्ष पूर्व वर्तमान था । अब इस निराधार कल्पना को छोड़ देने में ही शोधकार्य का कल्याण है ।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण का संदर्भ
ऐसा ही प्रसंग विष्णुधर्मोत्तरपुराण का है । उसमें कलियुग के १० वर्ष बीतने पर श्री कृष्ण के पौत्र वज्र ने मार्कण्डेय से पूछा कि अभी कितने दिन मैं राज्य करूंगा और परीक्षित् कितने दिन राज्य करेगा । इसीके उत्तर में मार्कण्डेय ने वे पंक्तियां कही हैं जिनका उद्धरण उक्त लेख में है । स्वयं सम्बद्ध लेखक भी उन पंक्तियों का अर्थ यही करते हैं कि ५० वर्ष बाद जब परिक्षित् दिवंगत होंगे तो तुम भी स्वर्ग को प्राप्त होगे । विशेषता यह है कि वे "आज" और "इस वर्ष" पर जोर देते हैं और उसे १४७४६ वें वर्ष का सूचक समझते हैं ।
'वाताश्वमेघवर्षेस्मिन् सहयक्षेण' का अर्थ १४७४६ कदाचित् हो सकता है । वात == ४६, अश्व ७, मेघ ४, यक्ष १ । 'अङ्कानां वामतो गतिः' से १४७६४ प्राप्त होता है, वात के ४६ को न उलटें तो १४७४६ प्राप्त होगा । प्रश्न प्रासंगिकता का है । पुराण कलि के इतने वर्ष पूर्व और इतने वर्ष पश्चात् के अतिरिक्त कहीं भी किसी सन् - संवत् का प्रयोग नहीं करते और यहां अन्यथा कुछ हुआ है ऐसा मानने के लिए पर्याप्त कारण होने चाहिएं। ठात् एक स्थल में किसी अज्ञात, अख्यात संवत् का प्रयोग करके पुराणकार हमें उलझन में डालने क्यों जायेंगे और उसका यहां प्रयोजन ही क्या है ? "आज" का सीधा अर्थ कलियुग का १० वां वर्ष है जब वज्र ने प्रश्न किया । प्रसंगानुसार इस वर्ष " का अर्थ कलियुग का ६१ वां वर्ष है जब वज्र और परिक्षित् दोनों का देहान्त होगा । इस दृष्टि से 'वाताश्वमेघवर्षेस्मिन् सह यक्षेण' से प्राप्त संख्याओं ४६, ७, ४, १ को जोड़ दें तो प्रकृत अर्थ ६१ वां वर्ष निकल आता है । यही प्रकृत अर्थ है क्योंकि वज्र के प्रश्न से इसी उत्तर का सामंजस्य है । न पुराणों में ही कहीं ऐसा मिलता है कि वज्र और परीक्षित् किसी शकराजा के समय (जन्म काल या शासनकाल ) दिवंगत हुए न जैन साहित्य में ही । अतः विष्णुधर्मोत्तरपुराण में १४७४६ या १४७६४ वर्ष का उल्लेख है, ऐसा मानना मेरी विनम्र सम्मति में ठीक नहीं । ऐतज्मा संवत्सर और शक संवत्
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राजा देवल के ऐतमा संवत्सर के प्रसंग में उक्त लेख की सूचना इस प्रकार है" राजा ककुत्स्थ से राजा सगर तक ३४४६ वर्ष बीते और राजा सगर से राजा युधिष्ठिर तक २६६५ वर्ष जब कि राजा युधिष्ठिर और राजा देवल में २५२६ वर्षो का अन्तर है ।" इसका अर्थ यह हुआ कि ६१२ ई० पू० के लगभग जब वृद्धगर्ग ग्रन्थ की रचना हुई, उसी समय देवल का ऐतज़्मा संवत्सर भी चला। इससे ५१६१ वर्ष पूर्व अर्थात् ५८०३ ई० पू० सगर का और उसके ३४४६ वर्ष पूर्व का समय है । ये तिथियां विचारणीय हैं ।
६२५२ ई० पू० ककुत्स्थ
चम्पा का एक लेख जब यह कहता है कि सगर ने ७२० शक वर्ष पूर्व श्रीमुख लिङ्गदेव की स्थापना की थी तब उसका अर्थ होता है संवत्' से ५१६१ वर्ष पूर्व हुआ । इससे उल्लिखित 'शक संवत्' का आरम्भ काल ५८०३
संवत् से ५६११ उक्त कार्य 'शक
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-५१६१ - ६१२ ई० पू० आता है और वह ऐतज्मा संवत्सर से अभिन्न हो जाता है। ५४३ ई०पू० का शक-संवत्
सम्बद्ध लेखक ने स्याम में प्रचलित "पुत्तसकरात संवत्सर" और खोतान के किसी बौद्ध राजा के पुत्र द्वारा प्रवर्तित "देवपुत्रशक संवत्सर" का भी उल्लेख किया है जिसका प्रारम्भ ५४३ ई० पू० से बताया गया है। सिंहली परम्परा ५४३-५४४ ई० पू० को बुद्ध का निर्वाणकाल मानती है । सिंहली परम्परा यदि ठीक होती तो स्याम
और खोतान के बौद्ध ५४३ ई० पू० से शुरू हुई काल-गणना का सम्बन्ध किसी राजा से जोड़ने की भूल कदापि न करते । अत: सिंहली परम्परा वैसी विश्वसनीय नहीं है जैसा लोग समझते हैं । बुद्ध का निर्वाण-काल (महावीर का भी ५४३ ई० पू० से निःसंदेह बहुत पहले है। विविध शक संवत्
पर्याप्त जानकारी के अभाव में मैं सुमतितन्त्र और तिलोयपण्णत्ति के सन्दर्भो के बारे में अभी कुछ भी नहीं कहूंगा । किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि 'शक' नाम से दो संवत् बृहत्तर भारत में प्रचलित थे जो ५४३ ई० पू० और ६१२ ई० पू० से शुरू हुए थे। भारत में युधिष्ठिर शक, शालिवाहन शक और विक्रम शक या शाक तो प्रचलित हैं ही, कुछ ऐसे शक भी उल्लिखित मिलते हैं जिनका आरम्भ कब हुआ कहना कठिन है । भट्ट उत्पल ने वराहमिहिर के बृहज्जातक (७६) की टीका में यवनराज स्फुजिध्वज का एक श्लोक दिया है जिसमें १०४४ शक का निर्देश है । इसका आरम्भ कब हुआ यह अभी अज्ञात ही है । किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि 'शक', 'शाक' और 'शककाल' संवत् के पर्यायवाचक रूप से साहित्य और अभिलेखों में प्रयुक्त होते आये हैं। अनावश्यक मानकर यहां प्रमाण नहीं दिये । यहां विचारणीय केवल यह है कि कालगणना के लिए प्रयुक्त शक, शाक या शककाल जैसे शब्दों का अर्थ क्या है ? शकराजा, शकेन्द्र, शकभूभुज आदि का अर्थ
शक, शाक और शककाल के बदले शकेन्द्रकाल, शक नृपतिकाल, शकभूभुज्काल जैसे पदों का प्रयोग भी साहित्य और अभिलेखों में प्राप्त है जिससे इस धारणा की सृष्टि हुई है कि शकाब्द अथवा शककाल का सम्बन्ध शक नाम की विदेशी जाति के राजाओं से है और वह जाति १५० ई० पू० में भारत आयी थी ऐसा बहुजन स्वीकृत विश्वास है । इस विश्वास से 'शक' शब्द मूलतः विदेशी और १५० ई० पू० के पहले भारत में अप्रचलित ठहरता है।
हमें इस प्रचलित धारणा में निम्नलिखित दोष दिखायी देते हैं :---
(१) शकजाति से सम्बन्धयुक्त 'शक' शब्द का प्रचलन १५० ई० पू० भारत में हो ही नहीं सकता। अतः इससे पूर्ववर्ती गणनाओं के साथ 'शक' शब्द नहीं जुड़ना चाहिए किन्तु ५४३ ई० पू०, ६१२ ई० पू० और यहां तक कि युधिष्ठिर की कालगणना के लिए भी उसका प्रयोग मिलता है ।
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(२) जिन राजाओं का शकजाति से कोई सम्बन्ध नहीं उनके लिए भी 'शक', 'शाक', 'शकाब्द' जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता है । यथा, अकलङ्कचरित में विक्रमाब्द के लिए 'शकाब्द' का प्रयोग किया गया है - विक्रमाकं शकाब्दीय शतसप्तप्रमाजुषि । ५७ ई० पू० में संवत् चलानेवाले विक्रमादित्य का जन्म शकजाति में नहीं हुआ, वह तो शकों का शत्रु, उनका उच्छेदकर्ता था । इसी प्रकार ऐहोल अभिलेख में ७८ ई० से प्रवर्तित कालगणना का उल्लेख यों है :
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"शत्y त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः । सप्तान्दशतयुक्तेषु गतेष्वन्देषु पञ्चसु || पञ्चाशत्सु कलो काले षट्सु पञ्चशतासु च ।
समासु समतीतः शकानामपि भूभुजाम् ||"
"भारत युद्ध के इस ओर कलिकाल में ३७३५ वर्ष बीतने पर ५५६ शक में " यही इसका अभिप्राय है । दोनों संख्याओं को ६३४ ई० के तुल्य मानने से ही इतिहास के निर्विवाद तथ्यों में संगति बैठती है । किन्तु ऐहोल अभिलेख जिस कालगणना को " शकराजा का वर्ष" ( शकानां भूभुजाम् समासु) कहता है उसी को, ब्रह्मगुप्त "शकान्तेब्दा: ", श्रीपति " शकान्ते" और भास्कराचार्य " शकनृपस्यान्ते" कहते हैं । प्राचीनतम साक्ष्यों से निष्कर्ष यही निकलता है कि इस कालगणना का प्रचलन किसी शकराजा के वध के समय से हुआ और उसका वध करनेवाला गुप्त वंश का चन्द्रगुप्त द्वितीय ही था ( द्रष्टव्य, सत्यश्रवा कृत 'Sakas of India', 1981, p. 45-51 ) 1 यहां भी वही स्थिति है । चन्द्रगुप्त द्वितीय शक जाति का राजा नहीं था, वह तो शकराजा का वध करनेवाला था । वह 'शकानाम् भूभुज् ' कैसे हो सकता है ?
ऐसी स्थिति में विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए प्रयुक्त शकेन्द्र, शकनृपति, शकभूभुज् आदि का अर्थ शकजाति में उत्पन्न राजा नहीं वरंच शकजाति को वशवर्ती बनानेवाला, शकों पर अपना आधिपत्य जमानेवाला राजा ही हो सकता है । 'शकेन्द्र' की तुलना इस प्रसंग में हम मृगेन्द्र शब्द से कर सकते हैं जो मृगयूथ के सर्दार के लिए नहीं, मृगों का विनाश करनेवाले सिंह के लिए आता है ।
वास्तव में भारतीय परम्परा के शकेन्द्र, शक नृप, शकभूभुज् आदि पद संस्कृत व्याकरण में उल्लिखित 'शाकपार्थिव' शब्द के समानार्थक हैं । इस सम्बन्ध में पं० युधिष्ठिर मीमांसक का विचार ध्यान देने योग्य है ।
"महाभाष्य २।१।६८ में एक वार्तिक है 'शाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानमुत्तरपदलोपश्च ।' इसका एक उदाहरण है— शाकपार्थिवः । शाकपार्थिव वे कहलाते हैं जिन्होने स्वतंवत् चलाया । यहां शक शब्द संवत् का वाचक है । प्रज्ञादित्वात् अण् से अण् होकर प्रज्ञ एव प्राज्ञः के समान शक एव शाकः शब्द निष्पन्न होता है । (संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, चतुर्थ संस्करण' १६८४, प्रथम भाग, पृ० ४८७ ) ।
इस प्रकार किसी संवत् के प्रचलन से जिनका सम्बन्ध है उन राजाओं को शकेन्द्र, शकनृप, शक्रभूभुज् आदि कहना साधु हो जाता है ।
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शक जाति और "शक" शब्द का मूल
फिर भी कुछ विद्वानों का आग्रह है कि 'शक' शब्द किसी शक जाति के राजा से सम्बद्ध अवश्य है और उसका मूल अवश्य ही कोई विदेशी भाषा है। इस सम्बन्ध में जो बात भुला दी जाती है वह यह कि पाणिनि की अष्टाध्यायी भी ऐसे शब्दों से परिचित है जो शक-भाषा के माने जाते हैं । इससे स्वाभाविक निष्कर्ष तो यह निकालना चाहिए था कि ईरानी भाषा की भांति शक भाषा भी संस्कृत से निकली है। परन्तु न जाने क्यों हमारे देश के विद्वानों पर सर्वत्र आक्रमण ही आक्रमण देखने की धुन सवार है। इसलिए १५० ई० पू० के शक-आक्रमण के पूर्व नवम शताब्दी ई० पू० में एक और शकआक्रमण की कल्पना कर ली गयी है । इस मत के दो मुख्य प्रचारक हैं---डॉ० बुद्धप्रकाश और डॉ. वासुदेव-शरण अग्रवाल ।
___ डॉ. अग्रवाल लिखते हैं-"पाणिनि को निश्चित रूप से उशीनर (आधुनिक झंग मधियाना) और वर्ण (आधुनिक बन्नू और वजीरिस्तान का इलाका, गोमल-तोची आदि नदियों की दूनों का भाग) प्रदेशों में कंथान्त स्थान-नाम मिले। इस प्रदेश में कथान्त नामों की संगति के लिए मानना चाहिए कि पाणिनि से भी पूर्व किसी समय शक जाति का प्रसार और सम्पर्क गजनी-गन्धार की अधित्यका से उतरकर तोची-गोमल नदियों के मार्ग से रावी ओ चनाब के कांठे (उशीनर जनपद) तक पहुंचा था" (पाणिनिकालीन भारत, १६६६ ई०, पृ० ८२) । इस कल्पना के लिए उन्होने किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं समझी । न किसी भारतीय ग्रंथ या अभिलेख में ही नवम शताब्दी ई० पू० के शक आक्रमण का उल्लेख है न किसी विदेशी साक्ष्य से ही इसकी पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में ऐसा क्यों न मानें कि शक जाति रावी और चनाब के कांठे से निकल कर गजनी-गन्धार की ओर चली गयी थी ?
भारतीय परम्परा ऐसा ही मानती है । मनु ने शकों की गणना उन क्षत्रियजातियों में की है जो कालांतर में म्लेच्छ बन गयी थीं :
"वृषलत्वं गताः लोके इमा। क्षत्रियजातयः ।। पौण्ड्रकाश्चोऽद्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः।"
-मनु० १०१४३-४४ विष्णुपुराण में शकों की गणना उन क्षत्रियों में की गयी है जो सगर द्वारा बहिष्कृत किये गये और धर्मच्युत होकर म्लेच्छ बन गये (म्लेच्छतां ययुः ---विष्णु ० ४।३।२१) । ऐसे स्पष्ट प्रमाणों को नकार कर कल्पना के पीछे दौड़ना शोध नहीं है। अतः शक भारतीय क्षत्रिय थे जो कभी रावी और चनाब के कांठे में रहते थे। उनकी भाषा प्राचीन संस्कृत ही थी । जब वे भारत के बाहर मध्य एशिया की ओर फैल गये तो उनकी भाषा और संस्कृति क्रमशः भिन्न हो गयी । अत: शक जाति का नाम भी मूलतः संस्कृत शब्द सिद्ध होता है ।
इस "शक" शब्द का अर्थ क्या है ? इस सम्बन्ध में विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के विचार मुझे युक्त लगते हैं अत: उन्हीं के शब्दों पर ध्यान दें--"शक से जिस प्रकार
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कत वाचक शब्द शक्र बना है उसी प्रकार "शक" से "शक" "कर्तृवाचक बनाया गया है। शक्र का विशिष्ट अर्थ इंद्र भले ही हो फिर भी सामान्य अर्थ ईश्वर, राजा, सामथ्यंशील व्यक्ति, सत्ताधारी आदि है । वही अर्थ "शक" का है। शक अर्थात् समर्थ, ऐश्वर्यवान् तथा काल-प्रवर्तक राजा" (राजवाड़े लेख संग्रह, आगरा, १६६४ ई०, पृ० २४४) । शक जाति भी समर्थ, ऐश्वर्यवान, प्रतापी होने से ही शक कहलाती थी। इस नाम की और कोई व्याख्या नहीं है।"
अन्त में हम कह सकते हैं कि 'शक' शब्द कानों में पड़ते ही किसी विदेशी जाति की कल्पना करना अनावश्यक है । अतः सुमतितन्त्र में जिस शकराजा का उल्लेख है या महावीर के निर्वाण के ६०५ वर्ष बाद जिसका जन्म हुआ बताया जाता है उसे शक जाति में उत्पन्न राजा समझ लेना आवश्यक नहीं है, वरंच इससे भ्रम में पड़ने की सम्भावना ही अधिक है । इसीलिए इस शकराजा का समय १५० ई० पू० के बाद या नवम् शताब्दी ई० पू० के बाद मानना भी आवश्यक नहीं। सुमतितन्त्र में उल्लिखित शकराजा कौन है, वह वीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष बाद जनमे हुए शकराजा से अभिन्न है या नहीं, इन प्रश्नों का उत्तर दे सकने का सामर्थ्य मुझमें अभी नहीं है किन्तु शकजाति से अनिवार्यतः सम्बन्ध जोड़ने की प्रवृत्ति को संयत किया जाय तो निकट भविष्य में इन प्रश्नों के उत्तर भी प्राप्त हो सकते हैं। अभी तो जन-साहित्य में प्राप्त समस्त ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह, प्रकाशन और अध्ययन-मनन ही बाकी है।
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कालचक्र
____ कालचक्र सबसे बलवान् होता है । संसार का कालचक्र चलता रहता है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है किन्तु इन दोनों के बीच जो व्यक्ति सजगता एवं प्रामाणिकता से जीवन जीकर अपने परिवार में इन संस्कारों को छोड़ जाता
है, उसे याद करते हैं। प्रत्येक क्षण मूल्यवान् होता है । जो क्षण का मूल्य समझ__ कर प्रमाद नहीं करते वे अपने लक्ष्य व अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेते हैं।
'कालचक्र' से साभार
खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
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Enigma of the Universe Visva-Prahelikā
THEORY OF RELATIVITY AND SPACE-TIME
O Muni Mahendra Kumar
General Theory of Relativity
In 1916, eleven years after the formulation of the special theory of relativity, Einstein extended it to interpret more general cases of non-uniform motion, i.e. where one frame of reference moves with an accelerated velocity relative to the other. This is known a general theory of relativity'. Its chief achievement is the explanation of the law of gravitation on a more refined and accurate basis than that given by Newton. Einstein has explained here the effect of the mass of the physical substances on the four dimensional continuum of space and time.
Newton's Laws
Newton, in his law of gravitation, stated that every particle in the universe attracts all other particles of the universe towards itself and the force of attraction is directly proportional to the product of the masses of the particles and inversely proportional to the square of the distance between them. This is also known as 'inverse square law'. This concept of gravitation presupposes action at a distance and postulates the existence of a force of attraction between material bodies For instance, a mass such as the earth or the sun, is surrounded by a space in which there is a latent force ready to act upon and produce movement of a body that penetrates into the space. In consequence, the body falls towards the mass, as if attracted by it. This power of attraction exists permanently in the space near the mass even if there is no body menifesting its existence. The region of space surrounding a mass thus constitutes the gravitational field which imparts a uniform acceleration known as the acceleration due to gravity to all bodies located in that field. The mass seems to act at a distance since the attraction is exerted even through vacuum where there is no ponderable matter, as for example, in the case of the sun attracting the planets. Thus, Newton was able to explain the motion of planets in the space as well as freely falling bodies (such as apples in orchards) with the
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Vol. XVI. No. 2 help of this law of gravitation.
Another important law which was enunciated by Newton was the ‘law of inertia', which stated that a body at rest continues to remain at rest and a body in uniform rectilinear motion continues to be in motion, and a change in the state of rest of motion can be brought only by exerting some external force.' Thus when a body is started or stopped suddenly, a jerk is felt. This is due to the force of inertia.
Generalization by Einstein
As we have seen, in the special theory of relativity, only those systems are considered which are in uniform rectilinear motion. Such systems are also known as 'inertial' systems, i.e. systems in which the law of inertia holds good so that a body not subjected to a force remains at rest or in uniform motion Now, according to the special theory of relativity, in all inertial systems the physical laws have the same form. Einstein extended this principle of equivalence to systems moving in any way, even with accelerated velocity and, in particular, to a special case of accelerated motion involved in the phenomenon of gravitation. Thus, the general theory of relativity states that 'the laws of nature are same for all the systems whatsoever their motion may be.'
Two Imaginary Experiments
Einstein started with the revolutionary idea that the classical picture of a gravitational field is artificial, since it is possible for an observer not to detect such a field at all by choosing a suitable frame of reference. He proved this by two imaginary experiments as follows:
1. Suppose an enclosure (such as an elevator) from which nothing can be knowa of what goes on outside it, suddenly starts falling freely under the action of gravity. (It may be imagined here that the cables by which the elevator is supported, suddenly break). Imagine that there is a scientist inside the enclosure, who performs an experiment of dropping an apple from his hand. To his surprise he finds that the apple instead of falling down to the floor, remains floating in the space. He performs another experiment by throwing a horizontal projectile. Again he surprises to find that instead of traversing a curred path, it goes on moving along a straight line till it strikes against the walls of the enclosure.
Thus, the force which causes apples to fall and the horizontal projectile to trace a curved path, i.e. gravitation disappears for him. In
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other words, all the traces of gravitational field are suppressed and every thing seems to be acting according to the law of inertia i.e. continues to remain in its state of rest or uniform rectilinear motion. The enclosure thus becomes an inertial frame or system and the observer inside it has no means of distinguishing between a gravitational field and field due to uniform acceleration of the frame of reference moving outside all gravitational field.
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2. Suppose that the same enclosure is poised far out in interstellar space free from all gravitational field (at an infinite distance from any mass). The scientist inside the elevator would not weigh anything; he could move from one side of the enclosure to the other, or from top to bottom, by the alightest push; he could float in the middle of the elevator without touching it. Now, suppose that unknown to him, a cable were attached to the top of the elevator, and some strong motive force applied to the cable; suppose that this force drew the elevator swiftly in the direction of a line from the bottom to the top of the elevator and kept it in uniformly accelerated motion, the acceleration being equal to that of gravity; and suppose that the force were so steady and noiseless that it was not suspected by the observer inside the enclosure. What would he imagine was happening? For him, everything would take place as if he were in a gravitational field; he would discover that he was being drawn against the bottom of the elevator; only by a strong effort with his legs could he jump away from the bottom for a moment and then he would instantly feel strongly attracted back to the bottom. Actually as we can see from outside, the bottom is being drawn towards him, but he accustomed to his notion of gravatation would never suspect this. He would feel 'attracted by the bottom'. Again if he drops an apple from his hand, it would fall with respect to the enclosure in accelerated motion, the acceleration being the same for all and equal to the acceleration due to gravity. If he throws a horizontal projectile, it would no more travel in a straight line but along a parabola.
The enclosure thus becomes a stationary system acted upon by a gravitational field and the observer inside it can by no means find out whether the elevator is at rest in a gravitational field or in uniform acceleration moving in space outside all gravitational field."
Equivalence of Gravitation and Inertia
From the above imaginary experiments, Einstein deduced what is called as the 'principle of equivalence of gravitation and inertia'. This
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principle states : “It is impossible to distinguish between the motion generated by inertial forces (such as centrifugal force, force producing uniform acceleration) and that by gravitational force "'5
This is as shown above, due to the fact that the effects of a gravi. tational field are precisely the same as those due to uniform acceleration of the material frame of reference relative to which the phenomena are observed, this acceleration being equal and opposite to the acceleration which the gravitational field would give to a particle in the frame.6
It also follows that one cannot speak of the absolute acceleration of a reference frame, only a relative one, just as it followed from the special theory of relativity that one cannot speak of the absolute velo. city of a reference frame, only a relative one. Again, it is clear that inertial mass and gravitational mass are equal. For all bodies which are free of any forces will move with uniform velocity relative to an inertial reference frame, no matter what their inertial masses are, and they should, therefore, have the same acceleration relative to an accelerated reference frame. In other words all bodies irrespective of their masses would move with the same acceleration in a homogeneous gravitational field.
Curvature of Space
The above principle of equivalence formed the basis of Einstein's new theory of gravitation. Using higher mathematics (involving tensors), he derived his famous field-equations, which embodies the law of gravitation. He refused to believe that any such thing as a
gravitational force of attraction', which was believed by Newton to exist between masses, actually existed. He explained the motion of a body such as a falling apple or an orbiting sattelite in terms of ther a new concept of "Curvature of Space-time" in which it is embedded. Thus, Einstein, discarding the Newtonian "action-at a distance" concept, reverted to field-point of view.
To understand his view, we take a simple example. Consider a stone attached to the end of string and whirled round, the stone moying along a circular path. We know that a tension is developed in the string called the centripetal force. To an observer on the stone there is a repulsion called centrifugal force equal and opposite to the centripetal force, while to the one who is whirling the stone there is no such centrifugal force. Einstein saw that the apparent repulsive force is due to the curvilinear motion of the stone and he extended the idea of such curved motions to a sort of curved space in order ta
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explain gravitational force. Again, since the centrifugal forces had to be considered as due to physical prosperties of empty space, Einstein turned to the hypothesis that the gravitational forces also are due to the properties of empty-space. Also, it is known that the forces of gravity are produced by masses. If, therefore, gravitation is connected with properties of space, these properties of space must be caused or influenced by the masses.8 Thus Einstein explained the phenomenon of gravitation by stating that the presence of matter gives an appreciable curvature to the surrounding space (or more precisely, distorts the curvature of the Minkowski's four-dimensional space-time continuum) and the matter falls down, as it were along the slop of this curvature according to some definite law.
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According to Einstein, gravitation is an inalienable property of all masses; where there is a mass, a grativational field is generated around it in the same way as a magnatic field is created around a magnet. The field itself is nothing but a change in the space-time continuum. In other words, the geometrical properties of space-time continuum are determined by the physical matter existing in it and not intrinsic properties of space and time themselves. These properties in turn determine the motions of that matter.
Features of Gravitational Field
The structure of the gravitational field depends upon mass and velocity of the body, and is determined by the field-equations given by Einstein. Also just as the path of the motion of a piec of iron in a magnetic field is decided by the structures of the field, so that of a body in a gravitational field is decided by the geometrical structures of the gravitational field."
Einstein showed mathematically that the geometric properties of space suffer a change in going over from an inertial to a non-inertial frame of reference, which is equivalent to a gravitational field. Here geometry becomes non-Euclidean, as distinct from conventional geometry.10
As the magnetic fields and the electrical fields are physical realities, so are the gravitational fields. But, unlike the former, the latter emanate from all physical entities, and these include particles and fields. Particles are characterized by mass, and fields by energy. is Common to both is energy, which is to say that any kind of energy, responsible for a gravitational field. Howevers, gravitational interaction becomes important only when bodies of appreciable mass are involved.
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Another remarkable feature of the gravitational fields is that through a number of identical, transformations of the equations, the equations can be turned into the equations of motion" of the physical system responsible for the gravitational field concerned. Thus the gravitational field equations incorporate the equations of the matter which creates the field. It should be noted, however, that the gravitational field equations do not determine completely the distribution and motion of matter. 11
POST-BINSTEININ SCIENTIFIC CONCEPT
The theory of relativity brought about some revolutionary changes in the concepts of modern physics. Amongst them the most startling one was regarding the nature of space and time. Einstein, in the light of his theory of relativity, imagined the universe as a "four-dimensional continuum of space and time ” According to Einstein, the three dimensions of space and one dimension of time are welded together forming a four-dimensional volume which he described as a continuum." According to great German mathemati. cian, Herman Minkowski, who developed the mathematics of the space-time continuum as a convenient medium for expressing the principles of Relativity, "Space and time separately have vanished into the merest shadows, and only a sort of combination of the two preserves any reality."12
It is very difficult to describe the new concept without the use of mathematics. But still the concept of "four-dimensional continuum" may be explained in simple language as follows: it is a simple fact that when a body exists in space, it occupies the three dimensions of space, on account of its length, breadih and height (or depth). Now, when it changes its position in space (i.e. when its motion takes place), it takes some time. Thus, to describe the motion of any body we should have the knowledge of two factors : its position in space and time required to change the position. The position is described by the three dimensions of space. Hence, time is reffered to as the fourth dimension. Now, the theory of relativity welds together the three dimensions of space and the fourth dimension of time.
Minkowski showed that the theory of relativity required all electrical phenomena (all physical phenomena are considered to be ultimately electrica!) to be thought of as occurring not in space and time seprately as had hitherto been thought, but in space and time welded together so thoroughly that it was impossible to detect any
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traces of a join, so thoroughly that the whole of phenomena of nature were nuable to divide the product into space and time separately. 18
Eminent scientist Werner Heisenberg, describing the new structure of space and time, writes : "When we use the term “past', we comprise all those events which we could know at least in principle, about which we could have heard at least in principle. In a similar manner we comprise by the term 'future' all those events which we could influence at least in principle, which we could try to change or to prevent at least in principle. It is not easy for a nonphysicist to see why this definition of the terms 'past' and 'future' should be the most convenient one. But one can easily see that it corresponds very accurately to our common use of the terms. If we use the terms in this way, it turns out as a result of many experiments that the content of 'future' or 'past' does not depend on the state of motion or other properities of the observer. We may say that the definition is invariant against the motion of the observer. This is true both in Newtonian mechanics and in Einstein's theory of relativity.
"But the difference is this : In classical theory we assume that future and past are separated by an infinitely short time interval which we may call the present moment. In the theory of relativity we have learned that the situation is different : future and past are separated by a finite time interval the length of which depends on the distance from the observer. Any action can only be propagated by a velocity smaller than or equal to the velocity of light. Therefore, an observer can at a given instant neither know of nor influence any event at a distant point which takes place between two characteristic times. The one time is the instant at which a light signal has to be given from the point of the event in order to reach the observer at the instant of observation. The other time is the instant of the observation, at which the light signal reachs from the point of the event. The whole finite time interval between these two instants may be said to belong to the present time for the observer at the instant of observation. Any event taking place between the two characteristic times may be called 'simultaneous' with the act of observation”. 14
Thus, in the theory of relativity space and time are related with each other, because of the finite velocity of light. The mathematical formula of lorentz transformations reveal that the velocity of light is the maximum possible velocity. It means that no body can travel faster than light, and hence, the knowledge we obtain through our
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senses or external equipments cannot be obtained faster than the velocity of light. Consequently, the time taken by an observer in perceiving any event cannot be lessened beyond a certain limit. That is to say that the definition of simultaneity depends upon the spatial distance between the point of event and the observer.
This relation of space with time can be clearly understood by the example. A is the point of observer and B is the point of event (say, a collision between two cars). The instant of the observation of the event and the instant of the happening of the event are not the same, for the light will take a finite time to travel the distance A B. Thus, the time, which we term as 'present in our daily practice, is not a single instant but comprises of the whole interval that has elapsed between the happening of the event and the perceiving of the event by the observer, and the length of the interval will depend upon the distance between the observer and the point of event. It should be noticed here that however small the distance AB may be light, on account of its finite velocity, will take finite time to traverse it.
A practical astronomical example will reveal the importance of the new character of space and time. If, in the above example, B is a star 50 light - years * away from the earth and A is the observer on the earth making the observation of the events on the star through a telescope. Now, suppose that an explosion on the star is being observed by the observer. In our ordinary expression, we shall say that the event of observation on the earth and the event of explosion on the star are simultaneously taking place. But is it ture ? No, Since the star is 50 light years away from the earth, the light from the star will take 50 years to reach the earth It means that the explosion which is being observed 'Now', had already taken place 50 years ago. Thus, it be. comes clear that the term 'simultaneous' has not remained absolute. but it depends upon the distance between the two events. In other words, space and time are related to each other and the event universe are effected by them jointly. Physical Implications
1. During the discussion of Michelson-Morley experiment, we have seen that Lorentz and Fitzgerald explain the nul result by showing the contraction in space-and-time-dimensions. These are popularly known as 'Fitzgerald-Lorentz Contractions' and their values can be found by 'Lorentz Mathematical Equations'.
Ein leiu's theory of relativity also implies that when a system
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moves, there occurs a contraction in the space-and-time-dimensions. This means that the length of the moving body contracts in the direction of the motion and a clock placed in such a system moves slowly. The amount of these contractions depends upon the velocity of the system. The faster the system moves, the slower the clock becomes and the smaller the measuring rod becomes. And if we imagine that the speed of the moving system becomes equal to that of light, the clock placed in the system would stop and the measuring rod placed in the system would have no length at all! But actually this is impossible, and hence, it is implied that the velocity of light cannot be reached in practice.
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2. Like space-and-time-dimensions, mass of a body in motion is also affected by the motion. In classical physics, the mass of a body was regarded to remain constant. That is to say that if a body is at rest or in motion, its mass always remains the same But the theory of relativity shows that the mass of a body is a function of its velocity," and thus increases with the increase in the speed of the body. When the velocity of the body is negligible in comparison to that of light, the increase in the mass of the body is also negligible. But when the velocity of the body approaches the velocity of light, the increase in mass also becomes considerable; and if we imagine a body moving with the velocity of light, its mass would become 'infinite'. But this is impossible, and therefore, it follows that the velocity of any moving body cannot become equal or greater than that of light.
3. In classical physics, matter and energy were regarded to be independent of each other, and hence there were two independent laws of conservation-one the law of conservation of matter and the other that of conservation of energy Matter was considered to be inactive, visible and possessing mass, while energy, in contrast to matter, was conceived to be active, invisible and massless.
Now, Einstein, as a consequence of the theory of relativity, showed that mass and energy were essentially the same thing. He argued that the increase in the mass of a body with the increase in its speed indicated that there should be a direct relation between mass and energy (one of whose forms is motion).
Advancing on this line of argument, Einstein established the 'principle of equivalence of mass and energy', and with the help of mathematics, discovered the epoch-making 'mass-energy equation'.
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This principle shows that mass and energy are mutually convertible under certain conditions. Thus, when a certain amount of matter is converted into energy, the energy obtained is equal to the product of mass and square of the velocity of light,18 and similarly when an amount of energy is converted into matter, the mass produced is given by the energy divided by the square of the velocity of light.
An illustration will clarify the relation: Suppose that one kilogram of coal is totally converted into energy; then the energy obtained would be equivalent to 25 billion kilo-watt-hour of electricity.
As a result of this new discovery, the two independent laws of conservation of mass, and that of energy, have been united to form a single law of conservation of mass and energy, enunciating that the sum total of energy and mass x c2 (where c-velocity of light) is constant for any system and cannot increase or decrease. Thus the massenergy equivalence establishes the universal fact that mass and energy are essentially the forms of the same entity.
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The chief merit of the mass-energy relation lies in the fact that it is experimentally verified for all types of energy. The most prominent verification is found in the discovery of the atom-bomb.
(To Continue)
References:
1. Mathematically, this can be expressed as follows: The force of attraction between two masses M, and M2, in grams separated by
a distance of d centimetres, is given by F=
G.M1, M2 d
dynes:
where G is the gravitational constant, 6.659 x 10-8 C.G.S. units. 2. Cf. Atomic Physics by J.B. Rajam. p.392
3. Cf. Ibid, p. 394
4. Cf. Ibid, p. 393; also, The Uuiverse and Dr. Einstein p. 85-86
5. Cf. The Universe and Dr. Einstein, p. 89
6. Atomic Physics by Rajam, p. 393
7. Cf. Atomic Physics by Rajam, p. 393
8. Physics and Philosophy by Heisenberg, p. 108.
9. Cf. The Universe and Dr, Einstein, p. 90
10. We shall discuss this point in "Non-Euclidean Geometry" in the next article.
11. Cf. B. Ivanov, Contemporary Physics, Peace Publishers, Moscow.
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12. The Universe and Dr. Einstein, p. 76. 13. Cf. The Mysterious Universe, p. 86 14. Physics and Philosophy, p.102-103. 15. As stated before, light travels at the speed of 186000 miles per
hour. The distance travelled by a ray of light within a year, is called light-year.
1 light-year=5.88 x 1012 miles. 16. Though, popularly, mass and weigbt are regarded to cannote the
same meaning, in scientific definition, they devote different properties of matter. Mass is considered to be more fundamental than weight. It is a matter of observation that a force applied to a body produces an acceleration proportional to the force. The constant of proportionality is the mass of the body. Thus, the mass of a body is a measure of its 'inertia' or reluctance to change its motion. The greater the mass of a body is, the more is the force required to move it. It may be remarked here that usually, even in the scientific works, mass is regarded as the amount of
matter and sometimes used as synonymous to matter. 17. The relation of the mass with velocity is given by the following
mathematical formula : If
mo = mass of the body at rest, m = mass of the body in motion, v = the velocity of the body,
c = the velocity of the light, - Then
mo
m
=
18. Mathematically, the equation connecting the two quantities in any such transformation is :
E = mc2 or m = 32
where
c = velocity of light. E = energy released.
and
m = mass completely converted into energy.
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NEW DIMENSIONS IN YOGA PHILOSOPHY
Dr. (Mrs.) Ratna Purohit*
The pursuit of truth must culminate in the realization of truth. And the pathway or the process leading to the discovery of truth must be made a public property so that anyone who would care to practise the same might discover and realize the truth.
How can one realize the truth unless exerts oneself for it? And why should one exert oneself for the truth unless one has implicit faith in it and the possibility of its realization? One must have either unflinching faith in the authority of one's preceptor, or else one must have a direct glimpse of the truth itself before one can proceed in the path of realization. Implicit faith in the truth, whether born with the help of the preceptor or fostered by a spontaneous intuition of the truth is the starting point of the path of spiritual realization.
There are various processes of leading oneself from this stage of implicit faith in the truth to the stage of final realization of truth. The process have a common term for them and that term is yoga.
The term yoga has a chequered history. The word 'yoga' occurs in the earliest sacred literature of the Hindus in the Rgveda with meaning of effecting a connection. Later on, the same word is used in the sense of yoking a horse. In still later literature, it is found with the meaning of controlling the senses, and the senses themselves are compared with uncontrolled spirited horses 'indriyāņi hayānyāhuḥ'.1
In Pāniņi's time the word yoga had attained its technical meaning, and he distinguished the root 'yuj Somādhau' (v yuj in the sense of connecting) Maxmuller, a great philosopher, is of the view that 'yujir yoge' (in the sense of connecting) is more appropriate meaning of the word yoga.
An objection may be raised that yoga is meant only for those who long for liberation. So this yoga has no utility in the empirical life and that too with reference to the common man. It is not so, whatever is needed for the survival of a man on this earth, can be gained by the •Assistant professor in the Dept. of Jainology, Jain Vishva Bharati, Ladnun.
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practise of yoga. Both kinds of health---mental and physical necessary for survival and that can be achieved through yoga only, As it is stated that "manaḥ eva manușyāṇām kāraṇam bandhamokşayoh.”
The realization of the true nature of Ātman or the identity between jīva (soul) and the absolute reality (Brabman) is the purpose of yoga. With reference to a comman man, the identity betwenn himself and others must be maintanined through the practise of yoga then only the purpose of survival of a man on this earth will be fulfilled. And to know the true nature of himself (Āiman) can be realized only by the control of mental states. As Patañjali states in his ‘yogasūtra' “yogaścittavsttinirodhah”. 2
Mind is the product of Praksti (nature) and composite of three guņas, namely, intelligence-stuff (sattva), energy stuff (rajas) and mass stuff (tamas) with a predominance of the first. Because of this predominance, mind is translucent and is able to reflect the consciousness which is the spirit. It is mind which receives this reflection and that becomes the experiment, it knows, feels, and wills through the appropriate modes of its own.
Mind has infinite modifications (vịttis) and these modifications can be divided into five categories, namely, true cognition (Pramāņa), erroneous cognition (Viparyaya), imagination (Vikalpa), sleep (nidrā) and memory (Smrti). In a state when all these five modifications of mind) submerge (or become obstructed) it is known as yoga With reference to a man when one pratises yoga and through yoga his mind becomes obstructed (of modifications of mind) then he helps others or himself in achiving his good of life i.e. to know the true nature of himself. For exanple : as in the river many waves come out through the waters and again submerge into it, in the sameway, mind has many emotions, namely, desire, greed, anger, disguist etc. (born in the mind) and when these emotions are controlled, an aspirant realizes his true nature, that is, pure self. As in the water, which is shaking, an object
get its reflection properly, when the same water is steady and calm an object gets its reflection. In the samemay, soul gets reflected in the mind when it is free from emotions.
In order to liberate the soul from bendage mind must be rid of its afflictions. The basic discipline which will effect this riddance is ethical training. The energy stuff and the mass stuff of the mind should gradually be reduced, and allow the natural inteligence stuff to shine.
There are eight elements by which mind can be cleansed. They
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are, abstention (yama), observance (niyama), posture (asana), control of respiratory system (prāṇayama), withdrawal of the senses (from their objects) (pratyāhāra), fixed attention (dharaṇā), meditation (dhyana) and concentration (samadhi). The last three steps are stages in mind-control and therefore, they constitute yoga proper.
When there is an excess of the energy stuff in the mind, the mind gets tossed about by the objects. This state of the mind is coined as restless (kşipta), when the mind has an excess of the mass-stuff, it becomes a victim to sleep and is then said to be blinded (Müḍha). When the mind is unstable shifting its attention from object to object, it is described as distracted (vikşipta). The three mental states mentioned above are not conducive states, they are assaciated with a preponderance of the energy stuff the mass stuff or and serve therefore, as obstacles to yoga. The states of the mind which are conducive, on the contrary, are one pointed (ekagra) and restrained (niruddha). The one pointedness of mind is that which is devoted to single object and is filled with the intelligence stuff. This prepares the mind for its ascent to yoga. The restrained mind is that from which distractions have been checked and the flow of modifications has been arrested.
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The Bhagavad gīta is of the view that evenness of mind is termed as yoga 'Samatvam yoga ucyate."
The man who has evenness of mind casts off in this world both merit and demerit through attaining mental purity and knowledge. Therefore, one must apply oneself to devotion with equanimity. Again the Gitā states that yaga is the very dexterity of work.
"yogaḥ karmasu kausalam"4
The dexterity of work can be had through the evenness of mind. So one must practise for evenness of mind and through which he can achieve the perfection in his duty too. Through this process one understands the life in better way and tries to maintain the identity between himself and the others
To sun up yoga plays a vital role for the improvement of positive traits, and for the successful completion of life.
References:
1. Kathopanisad-1.3.4
2. Yoga Sutra-1.2
3. Bhagavad Gitā=II. 48
4. Bhagavad Gită-II. 50
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SOME PROBLEMS
OF MĀGADHI DIALECT
Jagat Ram Bhattacharyya*
(Continued from the previous Number)
PHONOLOGY 1. On the Treatment of Sanskrit r In Māgadbī
In Māgadhi Sanskrit r becomes i, for example, naraḥ>nale, puruṣaḥ> puliśe, etc.
On the characteristic features of r changing into 1 in Māgadhi, all the prakrit grammarians are unanimous, except Mārkaņdeya who has made the r changing into l as optional (rasya lo vā bhavet XUI 3). It is difficult to trace the authority of Mārkaņdeya for making this change as optional, because this one of the very vital characteristic features of Māgadhi and even in standard Sanskrit literature, there is hardly any exception to this rule. Though there are some editions where this discrepency is noticed in Dhakki, one of the sub-dialects of Māgadhi, unless their editions are checked by manuscripts it is difficult to comment on them. That r is changed into I in Māgadhi has a long history and this phenomenon can be traced from the Vedic times even if not earlier. In the Rgveda (=RV.) between r and I, r occurs in most of the cases instead of l which occurs mostly in the books which are chronologically later in origin. In the same type of word if r occurs in the earlier text it is noticed that it is replaced by l in later text. Here examples are to be given from the RV. But in the Atharva. Veda l occurs more than RV. and the Atharva Veda (=AV.) is regarded as a vedic text composed in the Eastern region of India. If that is true then the tendency of changing r into 1 is very old. Though historically the documentary evidence of prakrit started from the 6th or 5th century B. C. i e. from the time of Mahāvīra, it's history could be traced from the Vedic times, at least, as early as 1000 B.C.
It is a fact worthnoting that I does not occur in Avestan and old Persian. In Old Persian only in three or four words which are borrowed from some other languages l occurs and if we trace this phenome• Lecturer in the Dept. of Prakrit, J.V.B., Ladaun,
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non from the Indo-European period we can say that the tendency is more r than I even in Indo-European.
Here a question may be raised whether the interchanges between rand I can be possible. In a sense I was not a cerebral sound in Indo-European' (=IE), because there is no cerebral sounds in Greek, Latin etc. and that is why the interchanges between r and I was possible, because the place of utterance of both was dental. And that is why IE *l becomes r in sanskrit. For example IE *leugos=OIA rocas etc. and because of that reason in sanskrit the dictum ralayorabhedaḥ has come into existence. In this connection it could be mentioned that Värttika-sútra r-!. varnayormithaḥ sävarnam vacyam, is made, by Kātyāyana, because in his time the place of utterance of r and I were not the same, Kātyāyana, atleast, understood this much that their place of utterence though not the same, they should be considered as homogeneous, so that in sandhi between r and I we could have either r or ! or both.
Apart from this, we can trace even from prakrit that r was not originally cerebral. This is evident from the treatment of r in prakrit. r in conjunct with t, that is r+t, has two-fold development. In one place r+1>it, and in the other r+t>tt. Hemacandra has a sútra which indicates this twofold development of this conjunct rtt. Hemacandra has classed them in a group of words where rtt become ty (rtasy-adhũrtādau 2.0), for example, kaivartaḥ> kevatto, vșttiḥ> vasti etc. where rtt becomes cerebral fi.e. because ris a cerebral sound, it has influenced the dental sound which is turned into a cerebral.
The other group where rtt does not become cerebral is refered to by Hemacandra as adhürtādi class. For example, dhůrtaḥ> dhutto, kirtihkitti etc. Though in most of the cases rtt becoming cerebral. the instances where it does not occur reminds us the historicity of the development of this sound r. Accidentally because I was a dental sound originally it did not develop into cerebral and because those words are small in number they belong to the dhūrtādi class and in most of the cases the rest of the combination rtt become cerebral. because by that time the pronunciation of r is changed from denta to cerebral, and the first Sanskrit grammarian who mentioned r as cerebral sound was Candragomin between 5th and 7th centuries A.D. It means that Candragomin first recorded this fact or the nature of r as cerebral. It seems probable, that the tendency started before the time of Pāņini as his rules for ņatvaşatvu, particularly after r, suggest the cerebral nature of r. But the records of Prātisākhya do not also
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justify that r was all along a cerebral sound and there are some words where I is used instead of r and this record shows that I was more or less a feature in the Eastern region of India. Hence, there is no irregularity that r becomes l in Māgadhi, where it is generalised as one of the distinct features whereas in Sanskrit it was in a fluid stage. 2. On the Development of Sanskrit j into y In Māgadhi :
In Māgadhi, palatal j is substituted by semivowel y. For example
jāyate = yāyade, jānāti = yānādi, fanapadaḥ= yaṇavade, arfunaḥ = ayyuņe, durfanaḥ = duyyaņe.
garjati = gayyadi. etc. Vararuci has a simple sūtra Joh yaḥ (X1.4), where he mentions only />y. Hemacandra however, has included two more sounds in his sūtra for y. His sūtra is ja-dya-yāṁ-yaḥ (4.292). The reason for the inclusion of dy and y in the sutra is to indicate that dy when becoming jy in Mahārāştri that should also be changed into yy in Māgadhi. Remembering his sūtra dya yyar-yāṁ jaḥ (2.24) he has formulated bis sutra for Māgadhi and therefore he has included dy, so that there can not be any confusion in Māgadhi for the change of dy into yy. For example adya>ayya in Māgadhi and ajja in Mahārāștri and also in Sauraseni. The reason to include y in the sutra for becoming y is to make the point clear whether the sūtra âder yo jaḥ (1. 245) would be barred or not. In his opinion even that sūtra is not applicable in Māgadhi. So Hemacandra has made this sūira in such a way. that his two sūtra for Mahārāştrī should not be applicable in case of Māgadhi. Actually Trivikrama has followed Hemacandra and so he has not added anything new to this conception.
Purușottama, Rāma Tarkavāgisa and Mārkandeya have formula. ted the sūtra for changing j into y only. Puruşottama however, has a new inclusion in the sūtra by which jh becoming yh. It is, however, difficult to understand what Puruşottama has meant by this. It appears he might have included with the idea that if ; becomes y then jh becomes yh that is to say, he has made the semivowel and aspirated one. It is also difficult to guess at present whether jh was pronounced like yh at the time of Puruşottama, that is to say, an aspirated y (which is represented by phonetic symbol Zh=zh). Purusottama belongs to the 12th/13th century AD. and that was a
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time for the beginning of NIA languages and the Persian languages including Arabic started in filtering into the NIA languages like Bengali, Hindi, and others, and Puruşottama might have referred to some of the sounds for which he has a symbol like yh (F). However, there is one or two examples of this type of sound in the Mrcchakațik. Such as yhanayhananta for jhana jhananta. Pischel ($ 236) thinks that the reading jhana jhaņanta (1.25) should be written as yhanayhananta and jhagiti>ihatti should be yhatti and even the conjunct consonant with jjh should be yyh, for example, nirjhara> nijjhala>ntyyhala. However, in the printed edition of the Mệcchakațik we do not really find the readings as suggested by Pischel. Puruşottama's inclusion of yh need further investigation to support his reading for the conjunct of jj>yy. Kramadīśvara is very specific and says that the conjunct or non conjuct į or jj becomes y or yy (yo) yukta-yajayoh (V. 87).
From the above discussions, it is quite clear that all the grammarians bave prescribed the palatal į should be changed into semivowel y be it single or conjunct.
One point may be raised in this connection whether y in Māgadhi was pronounced as palatal j or semivowel y (=ia). It is obviously very difficult to answer this question in the present day, but the evidence of the pronunciation of y in some of the NIA languages might give us some clue to guess the pronunciation of y in Māgadhi. As in the Eastern part, particularly in Bengal (and also ia Orisa), y is pronounced as palata! ; or palatal affricate, we can infer that this area has inherited the Māgadhi pronunciation of y, which could be either palatal or palatal a ffricate. That c-varga is pronounced with yc, for example, tiştha>ycitthu, shows that c-varga was palatal or palatal affricate in Māgadhī. This process is not peculiar only to Māgadhi, or for that matter, in the eastern part of India this process started perhaps from the Vedic times. In some of the Sikşās, for example in (the YājñavaIkya Sikşā, Laghu Amoghānandini Sikşā, Keśavi Sikşā etc., the interchanges of j and y are frequently found and the Sikşas have recorded quite a large number of words in the text. In the Laghu Amoghānandini Sikşā some examples are given : bāhya> bāhja, sürya>súrja, upayajñát>upajajñāt, so also in the Prātisākhya pradipa Sikşā, nrpāyya->nrpājjam, dhāyyā>dhājjā.
Yājñavalkya Sikşā (verses 150 ff) has recorded an interesting phenomenon in his book. It is said that y was to be pronounced as jin the beginning of a hemistich, in the beginning of a word, in a consonant group of often an avagraha, otherwise it was to be pronou
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nced as y, But y remained a semivowel in the initial syllable of a word when it was preceded by a prefix, as in the word vidyut. The verses which tell this fact are quoted below :
Pādādāu ca padādāu ca saryogā'vagraheșu ca, jaḥ sabdaḥ iti vijñeyo yo'nyaḥ sa ya iti smstaḥ || upasargaparo yas tu padādir api drśyate, Isat-prsto yathā vidyut padacchedāt paraṁ bhavet //
This evidence shows that the changes between j and y are very old Athough we do not know exactly the dates of all these texts, it is, at least, presumed that they cannot be later than the 3rd or 5th century A.D. However, that was the time of prakrit language side by side with Sanskrit. We donot know any prakrit grammar before Vararuci (5th/6th century A.D.) who has given the characteristic features of Māgadhi. Although the genuineness of his chapter on Māgadhi is questioned many times by scholars, it has, at least, recorded this fact that j is changed to y. Though the Sikşās mentioned above have not said the exact nature of pronunciation of this y, it can be only assumed that the pronunciation of y was almost similar to that of j.
The exchange of j and y in Vedic literature between the two texts of the same mantra or of the same word is interesting. This interchange proves conclusively the phonetic instability between j and y in the Vedic language as also in prakrit. This change goes in either direction, i.e. either j becoming yor y becoming j. Some scholars suggest that this interchange between j and y may be the corruption of manuscripts or may be the phonetic changes between them. Some of the examples of this nature are given below.3
tato ha jajñe (MS tato ham yajñe), bhuvanasya gopāḥ (MS goptā) "TB. ApS. MŚ. : tato ha jajñe bhu gopāḥ PB. Here the reverse change has occured, MS is clearly secondary.
However, wheather it is a manuscript corruption or dialectal variation in phonology is not easy to ascertain now; but it tells us quite clearly the fact that exchange of sand y was noticed even in the Vedic language as well as in prakrit, and in course of the evolution of the exchange of y ultimately became a characteristic fes Māgadhi, y may be an orthographic representation for j and the pronunciation for y might be palatal affricate as suggested above. 3. On the Pronunciation of Māgadhi Palatals :
On the pronunciation of Māgadhi palatals* i.e. C-varga, the prakrit
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grammarians are not very clear. There are two schools of prakrit grammarians-Eastern and western. Hemacandra (=Hc.), Trivikrama (=Tv.), Lakşmidhara (=LD.) and Simharaja (=SR) belong to the western School and Vararuci (=Vr.), Purusottama (=Pu.) Kramadiśvara (=KI), Rama Trakavāgīša (=RT.) and Mārkaṇḍeya (=Mk.) belong to the Eastern School. The western prakrit grammarians have not made any sutra on the pronunciation of Magadhi palatals. It is only the eastern Prakrit grammarians who have discussed the problem at great length. Even the pattern of formulating the sutras of eastern Prakrit grammarians are not exactly the same, though they all have tried to indicate the same type of phenomenon Before discussing the problem, let us give first, the sutras of all these grammarians concerning the problem :
(i) Vr.
(ii) Pu. (iii) Ki.
(iv) RT.
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cavargasya spaṣṭată tathoccaraṇaḥ (XI 5). cuḥ spasta-talavyah (XII. 13).
ya-pa (ra)-cavarga yuktā managuccāryāḥ (V.85). cavargakāṇām upari prayojyo
yukteşu cantaḥstha yakāra eva (2.2.18). cajayor-upari yaḥ syat (V. 21).
(v) Mk
Let us first discuss the views of Vararuci. The meaning of the sūtra of Vararuci as Bhamaha interprets it is ca-varga yatha spaṣṭa tatho ccārano-bhavati meaning there by that c, ch, j, jh and ñ are so pronounced as to be clear. The sutra as it is printed in Cowell's edition seems to be corrupt and Cowell did not take any note of the emendation of this sutra as done by Lassen some nearly 20 years ago before Cowell. Lassen in his book Institutiones Linguae Pracriticae, 1837, emended the reading spaṣṭatā as aspaṣṭată meaning 'not clear'. Probably Lassen wanted to mean that the pronunciation of c-varga is not clear in Māgadhi. But even then whether the reading is spaşṭatā or aspaṣṭată, Cowell thinks that the meaning of the sutra is not clear. He says, 'this sūtra of Vararuci is very unintelligible, as it stands in the manuscripts with spaṣṭata and Lassen's conjecture of aspaşţată does not seem satisfactory'. As both the readings are not very clear, Cowell suggests that the reading aspṛṣṭată could be accepted in place of aspaṣṭată and with this emended reading, Cowell translates the sūtra thus, 'the palatal letters are pronounced with but a very slight contact of the tongue with the roof of the mouth. The abhyantara prayatna or internal effort in the utterence of the palatals, is properly sprṣṭa, because the organs of utterence are in contact'. However, whatever may be the readings spaṣṭatā, aspaṣṭată or aspṛṣṭatā, it is clear that the intended meaning of the sutra is not really very intelli
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Like Vararuci the sūtra of Puruşottama-cuḥ spasta tälavyaḥ is also not very clear. What Puruşottama means by spaşta is not easy to ascertain. Literary it means the pronunciation of C-varga is a clear palatal sound. Actually Purușottama's sūtra is nothing but the echo of Vararuci.
The sūtra of Kramadisvara on this point is yapa (ra) cavarga yuktā manāguccāryāḥ (V.85), which generally means the pronunciation of C-varga is slightly (touched in the palatal) and is to be pronounced like the manner when y is prefixed before the c-varga This meaning of the sutra has been obtained on the basis of the emendation made by S.R. Banerjee in his edition of Kramadiśvara' Prakrit Grammar, published by Prakrit Text Society, Ahmedabad, 1980. Before emen. dation, the reading of this sūtra was found in the manuscripts and in one of the very carliest printed texts of Kramadiśvara's Prakrit Grammar. The reading of the different manuscripts as consulted by Banerjee is given below in order to understand the obscurity of the sutra.
'şata cavarga yuktā manāguccāryāḥ' (printed edition). 'yața-cavarga yuktā manāg-uccāryāḥ (C), ‘yafa-cavarga yuktā manāg-uccāryāḥ' (C),
‘yața-cavarga yuktā manāg-uccāryāḥ' (A), and the reading of Lassen is ‘yapa cavarga yuktā manāg-uccāryāḥ.
The insertion of p and f leaves us in doubtful obscurity. Another reading beginning with ș is undubtedly a scribal error for y as corroborated by the readings of other manuscripts. What happens in this sūtra is that the insertion of y in the sutra could not be understood by the soribes who might have considered this as irrelevent in connection with the pronunciation of c-varga. The insertion of p in the reading of Lassen seems to be the reading very near to the original which was composed by Kramadiśvara yet, as the meaning of the sutra still not clear, the emendation of the reading of Lassen is necessary. As the other eastern Prakrit grammarians, Rāma Tarka vāgisa and Mārkand. eya have made the sūtra which is very helpful in understanding the meaning of Kramadīśvara's sútra, the sūtras of Rāma Tarkavāgīša and Mārkandeya are quoted below:
cavarga-kāņām upari prayojyo yukteșu cântah-stha-yakāra
(RT. 11.2.18) and cajayor upari yaḥ syât(MkXII.21). The simple meaning of their sūtras is 'ca-varga is to be pronounced with
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y prefixed to it.' Mārkaņdeya further says, '(citthașya tu ściņgah XII. 32), that is, the Sabari citthadi (skt. tişthati) becomes ściņgadi in Māgadhi which again (ścinto ycisa ityeke XIII.3) becomes ycisadi in Sākārī, a variety of Māgadhi. Again in the Vrācada Apabhraíśa spoken in Sindh (i.e. North-West) he tells us that y is prefixed to c, and j as in ycatai (Skt. calati), yjalai (Skt. jvalati), Finally, in Sauraseni-paiśāciki (XX.4), which is a variety of Kekaya-Paiśāciki, of the extreme North-West, 'cavargasyo' parişjad yah, i.e y is prefixsd to the letters of ca.varga, i.e. 'only to c, ch, j jh and ñ, as the language does not possess sonant mutes.' Thus ychale for chalam paycche for paksam. Thus far is the view of the eastern grammarians'.
This idea that y is to be prefixed to c-varga is perhaps what Kramadīśvara has wanted to say. That is why the reading of Lassen could be improved as yapa (ra) cavarga yukta manāg-uccāryāh on the light of the sūtras of Rāma Tarkavāgiša and Mārkaņdeya. The meauing of the sutra thus emended can go on a par with the sütras of Eastern Prakrit grammarians like Purusottama, Rāma Tarkavāgisa and Mārkandeya 'It is quite possible', says Banerjee 'that at the time of Kramadiśvara, the palatal sounds were pronounced with y prefixed to it. This was still prevalent at the time of Rāma Tarkavagiša and Mārkaņdeya'. To add to it we can say that this is still the pronunciation of c-varga in the eastern region of India, particularly in Bengal. What was the pronunciation of Magadhi palatal in those days is the palatal-affricate of modern times. Perhaps, this idea of palatal a ffricate was indicated by the statement that c-varga would be pronounced with y prefixed to it.
In fact this sūtra suggests the affricate nature of C-varga in pronunciation. It indicates the manner of pronunciation. Affricate pronunciation means that when C-varga is pronounced the back of the upper part of the tongue is fixed to the palate and thereby obstructing the air-passage, but as soon as the air is released, the pronunciation of c-varga becomes clear. This abstruct idea of pronunciation is recorded by the eastern prakrit grammarians by using the sound y prefixed to it. It appears that there is hardly any better way by which a pronunciation can be recorded.
Grierson' on this point says 'It appears to me, therefore, that we can gather form the remarks of the prakrit grammarians quoted that in standard Mahārāștri Prakrit and in Sauraseni (which in this respect followed Mahārāștri) the palatals were probably pronounced as dentopalatals, as in Modern Mārăthi, but that in Māgadhi they were pron
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ounced clearly as true palatals'.
But the opinion of Grierson is explained by Suniti Kumar Chatterji' in a different way. Chatterji says that the palatals in Māgadhi were pronounced distinctly and pronounced in full, Chatterji thinks that the word aspasta in Vararuci's sūtra means 'indistinct' which is found in Mahārāştri and Sauraseni and such an indistinct pronunciation could not mean a dental-affricate one as Grierson thinks but rather an elided pronunciation in Mahārāștri and Sauraseni which has been pointed out by Basanta Kumar Chatterjee."
The necessity of formulating a sütra where the pronunciation of Māgadhī palatal is indicated is to point out the difference of treatment of palatal sounds in Māgadhi on one hand and Mahārāştri and Sauraseni on the other. In standard Prakrit, intervocally these are sometimes elided and naturally the pronunciation of c-varga could not be understood or heard. But in Māgadhi, this is not elided but rather pronounced distinctly in the opinion of Vr. who has used the word spaštatā) or as palatal affricate in the opinion of Kramadīśvara, Puruşottama, Rāma Tarkayāgisa and Mārkandeya therefore two sets of pronunciations some dialects using one and others the other.
(To Continue)
References:
1. SR. Banerjee, Was R dental in Sanskrit ? pp. 14-19, has said that r was not cero
bral originally, BDCPL, Vol. X, 1985. 2. Siddheshwar Varma, critical studies in the phonetic observations of Indian
grmmarians, (Ist. edition 1929), Indian reprint edition, Munshi Ram Manoharlal,
Delhi, 1961, p. 126. 3. Vedic Variants 11 : Phonetics p. 100-101. 4. The article is based on the ollowing: Lassen Institutiones Linguae Pracriticae, p.
397, Hoernle Gd Grr p. 8, Pischel. Gram D. Pkt, Spr. 217, Basanta Kumar Chatterjee, ca-vargiya varņa samüher uccarana Vsddp, 1323 B.S. (=1913 A D.) pp.
201-03, G.A. Grierson JRAS, 1913, ff 391, S.K. Chatterji ODBL, 132, p.246. 5. For the editions of prakrit grammarians such as Hemacaodra, Trivikramua, Laksmidhara, Simuarāja, Kramadiśvara, Puruşottama, Rama Tarkavägisa and Mārkan.
deya see the Bibliography. 6. Prākstādhyāya of Kramadīśvara, ed. by SR. Banerjee, Prakrit Text Society,
Ahmedabad, 1980, lotroduction, p. 21 7. G.A. Grierson-The Brhatkathā in Mārkandeya, JRAS, 1913. 8. Supiti Kumar Chatterji, Origin and Development of Bengali Language, University
of Calcutta, Calcutta, 1926, 132, p. 246 9. Basanta Kumar Chatterjee, ca-vargiya varṇa samüher uccāran, VSPdp. 1320 B.S.
(=1913 A.D.), pp. 201-03
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________________ 85.00 Postal Department : NUR-08 Registration Nos. Registrar of Newspapers for India : 28340/75 Vol. XVI, No. 2 TULASI-PRAJNA September, 1990 जैन विश्व भारती, लाडनूं महत्त्वपूर्ण प्रकाशन बाचना प्रमुख : प्राचार्यश्री तुलसी, विवेचक तथा सम्पादक : युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ मागम ग्रंथ: 1. अंगसुत्ताणि 1 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवायो) 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई : विवाहपण्णत्ती) 10.00 3. अंगसुत्ताणि 3 (णायाधम्मकहानो, उवासगदसामो, अंतगडदसाओ, माणुसरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाइ, विवागसूर्य) 80.00 4. नवसुत्ताणि (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई, - दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीहज्झयणं) पृ० 1300 250.00 5. उवंगसुत्ताणि, खण्ड 1 (ओवाइयं, रायपसेणियं, जीवाजीवाभिगमे) 200.00 6. उवंगसुत्ताणि, खण्ड 2 250.00 7. भगवती-जोड़, भाग-१ 130.00 8. भगवती-जोड़, भाग-२ 170.00 6. दसवेआलियं (द्वितीय संस्करण) पृष्ठ 612 साइज डिमाई 1/4 125.00 10. ठाणं पृष्ठ 1200 " " 170.00 11. पायारो-मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण 50.00 12. समवाओ (द्वादशांगी का चतुर्थ अंग) पृष्ठ 468. साइज डिमाई 1/4 150.00 13. सूयगडो-१ (द्वादशांगी का द्वितीय अंग) पृष्ठ 700, साइज डिमाई 1/4 200.00 14. सूयगडो-२ 150.00 15. आगम शब्दकोश (अंगसुत्ताणि शब्दसूची) खण्ड 1, भाग 1 (नेट) 120.00 16. देशी शब्दकोश, (लगभग 14000 देशी शब्द सहित), पृ० 638 17. निरुक्त कोश, सम्पादक : साध्वी सिद्धप्रज्ञा एवं साध्वी निर्वाणश्री 60-00 18. एकार्थक कोश, सम्पादक : समणी कुसुमप्रज्ञा 70-00 प्रागमेतर ग्रंथ 1. Illuminator of Jaina Tenets- Acharya Tulsi 150.00 Eng. Trans.-Dr. N.M. Tatia and Muni Mahendra Kumar 2. भगवान् महावीर-आचार्य तुलसी 3. श्रमण महावीर—युवाचार्य महाप्रज्ञ 30.00 4. 50 Years of Selfless Dedication 15.00 5. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य-साध्वी संघमित्रा 50.00 6. पाइअ संगहो, संकलनकर्ता : मुनि विमलकुमार 20-00 7. तुलसी मञ्जरी (प्राकृत व्याकरण), : युवाचार्य महाप्रज्ञ, -: प्राप्ति-स्थान :Jain Vishva Bharati, Ladnun (Raj.) 341306 प्रकाशक-मुद्रक : रामस्वरूप गर्ग, संयोजक, प्रेस-पत्र-प्रचार-प्रकाशन, जैन विश्व भारती, लाडनूं, दारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं में मुद्रित / 100-00 50.00 www.jainelibrary