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ऊष्मा निकलती है, साथ ही जल की वाष्प एवं कार्बन डाइऑक्साइड प्राप्त होते हैं। इनसे उपकरण में पर्याप्त फेन बनता है और उफान-सा आता दिखता है। उपकरण भी गरम हो जाता है । आयुर्वेद में भी भासव-अरिष्ट बनाते समय ऐसी ही स्थितियों को नियंत्रित करने के लिये स्थूल उपाय किये जाते हैं। संभवतः इसी प्रकार के निरीक्षणों के कारण मद्य-निर्माण के समय जीवोत्पत्ति या मद्य के बिन्दुओं में जीवों के अस्तित्व का मत आचार्यों ने प्रस्तुत किया । यद्यपि इस प्रक्रिया में सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व से सम्बन्धित यह निरीक्षण महत्त्वपूर्ण है पर उसकी भूमिका की चर्चा आधुनिक दृष्टि से मेल नहीं खाती।
सारणी ४ : मद्य-संबंधी प्राचीन एवं नवीन तथ्य प्राचीन
नवीन १. उत्पादन (१) मद्य सुराबीज, गुड़ आदि को (१) विभिन्न प्रकार के मद्य शर्करा युक्त
सड़ाकर (किण्तितकर) बनाया (महुआ, गुड़, धान्यादि) पदार्थों के जाता है।
यीस्ट कोशिकीय किण्वन से प्राप्त होते
(२) इसके निर्माण के समय अनेक (२) ये कोशिकायें परजीवी वनस्पति हैं। ये रसज/त्रस जीव उत्पन्न होते अपने विकास के लिये शर्कराओं को
विद्वेलित करती हैं और मद्य बनता है। (३) मद्य के रस में भी जीव (३) जब इस क्रिया में मद्य की मात्रा उत्पन्न होते हैं।
१०-१५% से अधिक हो जाती है, तब इनकी सक्रियता स्वयमेव समाप्त हो जाती है और मद्य निर्माण बंद हो जाता
(४) मद्य की एक बूंद में अनेक (४) शुद्ध मद्य एथिल ऐल्कोहल नामक
जीव उत्पन्न होते हैं। यौगिक है । विभिन्न पेय मंदिराओं में यदि वे बाहर फैलें, तो तथा आसव-अरिष्टादि औषधों में इसकी पूरा संसार उनसे भर मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। जाएगा।
(४) किण्वन की क्रिया से आजकल बहुतेरे
खाद्य, औषध और औद्योगिक पदार्थ बनाये जाते हैं। इस क्रिया से निर्मित लगभग ८४ पदार्थों की सूची शीम और
विक ने अपनी पुस्तक में दी है। २. प्रभाव (१) मद्यपान से रसज/त्रस जीवों (१) यह वाष्पशील पदार्थ है और त्वचा पर की हिंसा होती है।
पड़ने पर यह शीघ्र वाषित होता है जिससे त्वचा का तापमान कम होता है
और ताजगी का अनुभव होता है। खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
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