________________
च्छ्वास के रूप में परिणत करने की शक्ति श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहलाती है। जैनग्रंथों में प्रतिपादित श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति आधुनिक जीव विज्ञान सम्मत श्वास क्रिया का ही दूसरा नाम है । श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल को ग्रहण करना और इसे श्वासोच्छवास के रूप में परिणत करने का अर्थ अगर आधुनिक जीव विज्ञान से जोड़ा जाए तो यही कहा जा सकता है कि ऑक्सीजन गैस ग्रहण करना और कार्बनडाइआक्साइड गैस को छोड़ना। क्योंकि श्वसन का यही रूप है और यह सिद्ध भी किया जा चुका
५. भाषा पर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषारूप में परिणत करे और उसका आधार लेकर अनेक प्रकार की ध्वनि के रूप में छोड़े, वही शक्ति भाषा पर्याप्ति कही जाती है।
भाषा पर्याप्ति ध्वनि विज्ञान और स्वर-रज्जु से संबंधित है । ध्वनि-विज्ञान के अनुसार कोई भी ध्वनि तभी श्रवण योग्य होगी जब उसकी शक्ति २० हर्ज से लेकर २००० हर्ज तक होगी। हज ध्वनि-विज्ञान की एक इकाई है। जीव-विज्ञान के अनुसार ध्वनि का बनना स्वर-रज्जु की बनावट पर भी निर्भर करता है। स्वर-रज्जु की बनावट ऐसी होती है कि जब जीव कोई ध्वनि निकालना चाहता है तो उसी परिप्रेक्ष्य में स्वर-रज्जु से संबंधित स्नायु पर बल डालता है और परिणामस्वरूप ध्वनि निकल पड़ती है। जिन जीवों में स्वर-रज्जु नहीं होता है, वे ध्वनि या शब्द उत्पन्न नहीं कर सकते हैं।
६. मन पर्याप्ति --मन को ग्रहण करने योग्य पुद्गल परमाणु को मन के परिणामी भावों में व्यक्त करने की शक्ति मन पर्याप्ति है। मन पंचेन्द्रिय के समान बाह्य संवेदनाओं को ग्रहण नहीं करता है । दुःख, सुख, दया आदि आंतरिक मनोभावों का संवेदनं मन के द्वारा ही होता है । जीव विज्ञान में भी बाह्य संवेदनाओं के अतिरिक्त आंतरिक संनेदनाओं यथा दुःख, सुख आदि ग्रहण करने हेतु आंतरिक इन्द्रियों की सत्ता मानी गई है । यद्यपि ये सभी सुख-दुःखादि भाव तंत्रिका तंत्र द्वारा गृहीत किए जाते हैं, परंतु मन जैसी सत्ता से इसे जोड़ा भी तो जा सकता है ।
तात्पर्य यह है कि जैनग्रंथों में जो पर्याप्ति की यह अवधारणा पाई जाती है, वह आधुनिक विज्ञान सम्मत ही जान पड़ती है, परंतु हमारा विषय यह नहीं है, पर्याप्ति के सम्बंध में मात्र हमें इतना ही कहना है कि एकेन्द्रिय में सिर्फ चार तरह की पर्याप्तियां पाई जाती हैं -आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास । मन और भाषा पर्याप्ति का अभाव होता है। एकेन्द्रिय असंज्ञी जीव है अतः इनमें मन पर्याप्ति का अभाव स्वयं समझ में आ जाता है । एकेन्द्रिय में मात्र स्पर्श इन्द्रिय है और भाषा या शब्द को श्रवण करने के लिए श्रवणेन्द्रिय अनिवार्य है और इसका अभाव एकेन्द्रिय में होता है, इसलिए उनमें भाषा पर्याप्ति का भी अभाव पाया जाता है । पृथ्वीकाय एकेन्द्रय जीव है अतः इसमें भी चार पर्याप्तियां-आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोश्वास ही पाई जाती हैं ।
२. अपर्याप्ति सूक्ष्म पृथ्वीकाय-जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियां पूर्ण नहीं कर पाते हैं, उन्हें अपर्याप्त जीव कहा जाता है। जो सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org