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मूलसूत्रों की संख्या की भांति उसके क्रम में भी अंतर मिलता है । जैन साहित्य के बृहद् इतिहास में निम्न क्रम मिलते हैं ।
१. उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक । २. उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, पिंडनियंक्ति। ३. उत्तराध्ययन, दशवकालिक, आवश्यक, पिंडनियुक्ति तथा ओधनियुक्ति। ४. उत्तराध्ययन, आवश्यक, पिंडनियुक्ति तथा ओधनियुक्ति, दशवकालिक ।
उत्तराध्ययन का परिगणन धर्मकथानुयोग में किया गया है। किंतु आचार का प्रतिपादन होने से चरणकरणानुयोग तथा दार्शनिक विवेचन होने से द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत भी इसको रखा जा सकता है । दिगम्बर साहित्य में अंगबाह्य के १४ प्रकारों में सातवां दशवैकालिक और आठवां उत्तराध्ययन का स्थान है । नंदीसूत्र में कालिकसूत्रों की गणना में पहला स्थान उत्तराध्ययन तथा उत्कालिक की गणना में पहला स्थान दशवकालिक का है।
नंदी में "उत्तरज्झयणाणि" यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक तथा नियुक्ति में भी 'उत्तरज्झाए' ऐसा बहुवचनात्मक नाम मिलता है। चूणिकार ने छत्तीस उत्तराध्ययनों का एक श्रुतम्कंध (एक ग्रन्थ रूप) स्वीकार किया है। इस बहुवचनात्मक नाम से यह फलित होता है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एककर्तृक ग्रन्थ नहीं।
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्दों का प्रयोग है-उत्तरअध्ययन और उत्तर शब्द के अर्थ के बारे में विद्वानों में काफी विचार भेद है । उत्तरशब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं१. प्रधान, २. जवाब, ३. परवर्ती। हरिभद्र के अनुसार यहां उत्तर शब्द का प्रयोग प्रधान या अति प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है । प्रो० जेकोबी, बेबर तथा शान्टियर ने भी इसी तथ्य का उल्लेख किया है। इसके विपरीत "उत्तरकांड", "उत्तररामायण", "उत्तरखंड", उत्तरग्रन्थ आदि नामों की लंबी सूची मिलती है । जिसमें उत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती या अन्तिम अर्थ में हुआ है।
उत्तराध्ययन के नियुक्तिकार ने उत्तरशब्द के १५ निक्षेप किए हैं । नियुक्ति के अनुसार यह आचारांग सूत्र के बाद पढ़ा जाता था अत: इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा।' टीकाकर शांत्याचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि दशवैकालिक की रचना के बाद यह सूत्र दशवकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। जेकोबी उत्तर शब्द के इसी अर्थ से सहमत है। प्रो० लायमन के अनुसार आचारांग आदि ग्रन्थों के उत्तरकाल में रचा होने के कारण यह उत्तराध्ययन कहा जाता है ।
उत्तर शब्द का प्रयोग परवर्ती या अंतिम अर्थ में हुआ है, अतः शान्टियर ने उत्तराध्ययन का अर्थ किया है अन्तिम अध्याय । जैन परम्परा में यह मान्यता भी बहुत प्रसिद्ध है कि महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व ५५ अध्ययन पुण्य-पाप के तथा छत्तीस अपुटुवागरणाई अर्थात् बिना पूछे ३६ प्रश्नों के उत्तर दिए। अतः विद्वानों का यह कथन है कि यह छत्तीसं अपुट्ठवागरणाइं शब्द उत्तराध्ययन से ही संबंधित होना चाहिए क्योंकि जैन परम्परा में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है जिसके ३६ अध्ययन हों। इस कथन
तुलसी प्रशा
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