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________________ उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन समणी कुसुमप्रज्ञा उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार प्रधान आगम है । इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है । जार्ल शान्टियर, डा. गेरिनो, विटरनित्स, हर्मनजेकोबी आदि विद्वानों ने इसे आगम की सूची में ४१ वां आगम ग्रन्थ माना है। इसकी गणना मूलसूत्रों में की गई है । शान्टियर तथा प्रो० पटवर्धन के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र (Original-Text) कहा गया है। किंतु यह कथन युक्तिसंगत नहीं लगता क्योंकि दशवकालिक मूलसूत्र के अन्तर्गत है, किंतु आचार्य शय्यंभव द्वारा प्रतिपादित है। डा० शूबिंग ने प्रारंभिक साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इसे मूलसूत्र कहा है । फ्रांसीसी विद्वान् प्रो० गरिनो के अनुसार इस सूत्र पर अनेक टीकाटिप्पणियां लिखी गई इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया । जैन-तत्त्व-प्रकाश में उल्लेख मिलता है कि यह ग्रन्थ सम्यक्त्व की जड़ को मजबूत बनाता है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया है। चूर्णिकालीन श्रुतपुरुष की मूल स्थापना में आचारांग और सूत्रकृतांग का स्थान था। उत्तरकालीन श्रुतपुरुष के मूलस्थान में दशवकालिक और उत्तराध्ययन आ गए। इन्हें मूलसूत्र मानने का यही सर्वाधिक संभावित हेतु है, ऐसा आचार्य श्री तुलसी का मंतव्य है। ____ मूलतः आगमों का अध्ययन उनसे प्रारम्भ होता है तथा उसमें मुनि के मूलगुणोंमहाव्रत, समिति आदि का निरूपण है, अतः ये मूल सूत्र कहलाते हैं। मूलसूत्र की संख्या एवं उनके नामों के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है किंतु उत्तराध्ययन को सभी ने एकस्वर से मूलसूत्र माना है। कुछ लोग उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक-इन तीनों को ही मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत करते हैं । विटरनित्स ने इन तीनों के अतिरिक्त पिंडनियुक्ति को और ग्रहण किया है। कुछ मान्यताओं के अनुसार पिडनियुक्ति, ओधनियुक्ति सहित पांच मूलसूत्र स्वीकृत हैं। कहीं-कहीं आवश्यक को भी मूलसूत्र के अन्तर्गत परिगणित किया है। तेरापंथ की मान्यताओं के अनुसार दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार इन चार सूत्रों को मूलसूत्र के अन्तर्गत स्वीकृत किया गया है। मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की ११ वीं१२ वीं शताब्दी के बाद हुआ है ऐसा अधिक संभव लगता है क्योंकि उत्तराध्ययन की चूणि एवं टीका मैं ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । बम १६, अंक २ (सित०, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524563
Book TitleTulsi Prajna 1990 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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