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की पुष्टि में शान्टियर आदि विद्वान् उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं कि महावीर उत्तराध्ययन का कथन करते हुए परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
इउ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्माए, भवसिद्धीय सम्मए ।। (उ० ३६।२६८)
किन्तु इस कथन की सत्यता में संदेह है। विद्वानों की मान्यता है कि उत्तराध्ययन के महत्त्व को प्रकट करने के लिए बाद में उपरोक्त गाथा जोड़ दी गई है।
टीकाकार शान्त्याचार्य उत्तराध्ययन को महावीर निर्वाण के अंतिम उपदेश के रूप में मानने को तैयार नहीं हैं । अतः उन्होंने परिनिव्वुए का अर्थ स्वस्थीभूत किया है । उत्तर शब्द पूर्व सापेक्ष है । चूर्णिकार ने प्रस्तुत अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है।
१. स उत्तर-पहला अध्ययन २. निरुत्तर-छत्तीसवां अध्ययन ३. सउत्तर निरुत्तर-बीच के सारे अध्ययन ।
दिगम्बर आचार्यों ने भी उत्तर शब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है । धवलाकार के अनुसार उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है । यहां उत्तर शब्द समाधान सूचक है। अंगपण्णत्ति में उत्तर के दो अर्थ हैं-१. किसी ग्रन्थ के पश्चात् पढा जाने वाला २. प्रश्नों का उत्तर देने वाले अध्ययन ।
उत्तर के बाद दूसरा शब्द अध्ययन है। यद्यपि अध्ययन शब्द सामान्यतया पढ़ने के लिए प्रयुक्त होता है किंतु प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग परिच्छेद प्रकरण और अध्याय के अर्थ में हुआ है । नियुक्तिकार एवं टीकाकार शान्त्याचार्य ने इस शब्द पर नियुक्ति आदि की दृष्टि से काफी विमर्श किया है। किंतु इसका मूल अर्थ परिच्छेद या अध्याय के लिए ही हुआ है।
सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है-जिसमें शब्द कम तथा अर्थ विपुल हो । जैसेपातंजल योगसूत्र, तत्वार्थ सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि । उत्तराध्ययन सूत्र में परम्परागत मान्यताओं के विपरीत सूत्ररुपता का अभाव है तथा विस्तार अधिक है। यद्यपि आत्मारामजी ने अनेक उद्धरणों के माध्यम से इसे सूत्रग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है किंतु सामान्यव्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण इस ग्रन्थ में घटित नहीं होता है। शान्टियर का भी मानना है कि सूत्र शब्द का प्रयोग इसके लिए सटीक नहीं हुआ है क्योंकि विधिविधान, दर्शन नथ तथा व्याकरण आदि ग्रंथों में सूत्रात्मक शैली अपनाई जाती है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रयोग अधिक प्रचलित था। जैनों ने भी परम्परा में सूत्रात्मक शैली न होते हुए भी ग्रंथ के साथ सूत्र शब्द जोड़ दिया।
नियुक्तिकार के अनुसार यह ग्रंथ किसी एक कर्ता की कृति नहीं किंतु यह संकलन ग्रथ है । उनके अनुसार इसके कर्तृत्व को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है । 'अंगप्पभवा जिणभासिया च पत्तेयबुद्ध संवाया' ।
खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०)
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