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________________ आधारित है, किन्तु अपने विषय का अतीव प्रौढ़ और स्वतंत्र ग्रन्थ है। मान और गणना का इसमें सूक्ष्म विवेचन हुआ है । संख्यात, असंख्यात और अनन्त तीनों प्रकार की गणना में आचार्य नेमिचन्द्र ने असंख्यात और अनन्त को परीत, युक्त और असंख्य भेद से तीन-तीन प्रकार का मानकर संख्यात सहित संख्या के सात भेदों को जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट प्रभेद से गणना के २१ प्रकार लिखे हैं। वे 'एक' को गणना कहते हैं, 'दो' को संख्या और 'तीन' आदि को कृति मानते हैं। ____ आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार 'एक' और 'दो' में कृतित्व नहीं है । 'एक' में तो संख्यात्व भी नहीं है । एक को एक से गुणा-भाग करें तो कुछ भी हानि-लाभ नहीं होता। इसी प्रकार जिस राशि को वगं बनाकर वर्गमूल घटाने से शेष का वर्ग राशि से अधिक न हो उस संख्या में भी कृतित्व नहीं होता । अतः संख्या का आरंभ दो के अंक से ही होता है और उससे बाहर युगपत् प्रत्यक्ष ज्ञान तक असंख्यात और अनन्त तथा जिस राशि का माय के बिना व्यय होते रहने पर भी अन्त नहीं होता वह अक्षय अनन्त राशि होती है। अपने इस कथन की व्याख्या करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र ने जगत् श्रेणी और केवल ज्ञान (अनन्तानन्तस्वरूप) का परिमान दिया है जो संख्यारूप में ६५,५३६ है। उनका कहना है कि लोक का आकार खड़ी डेढ़ मृदंग के समान है और उसका मध्य भरितावस्था में है। अर्द्ध मृदंग के समान अधोलोक है और मृदंग के समान ऊर्ध्वलोक है । दोनों मिलकर पूर्ण-लोक बनते हैं जिसकी ऊंचाई १४ रज्जु है । जगत् श्रेणी के सातवें भाग को रज्जु कहते हैं और उसके वर्ग को जगत् प्रतर । वे जगत् श्रेणी के धनलोक को ३४३ पनरज्जु मानते हैं । इससे नेमिचन्द्राचार्य के अनुसार अधोलोक का क्षेत्रफल-भूमि ७ रज्जु, मुख १ रज्जु और उत्सेध ७ रज्जु होता है । अर्थात् ७-१-१८:२-४x७ -२८ वर्ग रज्जु अधोलोक है और ऊर्वलोक का क्षेत्रफल----- भूमि १ रज, मध्य ५ रज्जु, मुख १ रज्जु और उत्सेध ७ रज्जु होने से ५+१=६:२= ३४७-२१ वर्ग रज्जु है । इस प्रकार सम्पूर्ण घनफल २८ २१-४६ वर्ग रज्जु जगत प्रतर का ७ गुना ३४३ धनरज्जु बनता है । जगत् श्रेणी का यही धनलोक उसकी १६ पल्ली, १६ गई छिद्र और उनके घनमूलों के पारस्परिक गुणन (१६४१६४१६ ४१६) ---से ६५,५३६ होता है। इसी प्रकार युगपत् श्रुतज्ञान को संख्यात, युगपत् अवधिज्ञान को असंख्यात और युगपत केवल ज्ञान को अनन्त कहकर नेमिचन्दाचार्य ने अक्षय अनन्त राशि भी ६ . की बताई है। सर्वधारा, समधारा, कृतिधारा, धनधारा, कृतिमातृकाधारा, धनमातकाधारा तथा प्रतिपक्षी-विषम, अकृति, अपन, अकृतिमातृका, अपनमात का, दिरूप वर्ग, द्विरूपधनवर्ग और द्विरूपधनाषनधारा-कुल १४ धाराओं में परिगणन करके अंकसंदष्टि में सर्वत्र अनन्तानन्त स्वरूप केवल ज्ञान का मान भी ६५,५३६ ही माना है। क्योंकि द्विरूप वर्गधारा में पहला वर्ग १६, दूसरा २५६ और तीसरा ६५,५३६ पिण्णटीपञ्चसया छत्तीसा) होता है और यही संख्या सर्वधारा और समधारा संख्यामों क्रमशः १ और २ से गणना पर केवल ज्ञान स्वरूप में प्राप्त होती है। सर्वाश में - बम, अंक २, (सित०, १०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524563
Book TitleTulsi Prajna 1990 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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