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________________ आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार ६५,५३६ की संख्या केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की सर्वोत्कृष्ट संख्या और सिद्धांक है जो जगत् श्रेणी के घनलोक और घनमूल गुणन तथा १४ धाराओं के संख्या परिगणन से उपलब्ध है। त्रिलोकसार की यह अपनी उपलब्धि है। कालान्तर और कालमान का उल्लेख त्रिलोकसार के नरतियंग्लोकाधिकार में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल, कुलकर, तीर्थंकर, चक्रवर्तिन आदि की आयु सीमा और शकराजा तथा कल्की राजा की उत्पत्ति कही गई है। वहां तीर्थंकरों के आपसी अन्तराल और जिनधर्म उच्छेद का कालमान भी दिया है। सात अन्तरालों में ४ पल्य पर्यन्त जैनधर्म के अनुयाइयों का अभाव बताया गया है किन्तु 'पल्य' का कालमान अस्पष्ट है और यह अन्तराल व उच्छेद सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ के मुक्त होने से पहले का है। आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ से शान्तिनाथ तक सभी तीर्थंकरों की आयु लाखों के अंकों में दी है जो हमारी समझ में मुहूर्तों की संख्याएं हैं । कुन्थुनाथ से नेमिनाथ तक छह तीर्थंकरों की आयु सहस्रकों में दी है जो वाल्मीकि रामायण के प्रयोग अनुसार दिनों की संख्या है ।' तत्पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की आयु वर्तमान वर्षों में है। इस प्रकार गणना करने पर यह आयु ६७१६ वर्ष ७ माह बनती है जो महावीर निर्वाण तक का कालमान होता है। (यदि कुन्थुनाथजी की आयु ६० हजार दिन के स्थान पर ६५ हजार दिन मानी जाय तो १३ वर्ष १० माह २० दिन बढ़ जाएंगे) यतिवृषभाचार्य की 'तिलोय पण्णति में महावीर-निर्वाण बाद का काल लिखते समय अस्पष्टता होने से 'वीर जिणे सिद्धिगदे'-कहकर वीर जिन सिद्धि से ४६१ वर्ष बाद शक राजा; 'अहवावीरे सिद्धे' लिखकर ६७८५ वर्ष ५ माह बाद शकराजा; 'वीरेसर सिद्धीदो'-से १४७६३ वर्ष बाद शक राजा की उत्पत्ति और 'णिव्वाणे वीर जिणे'--लिखकर ६०५ वर्ष ५ माह बाद शकराजा होने की बात लिखी है किन्तु विक्रम संवत्सर की ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए नेमिचन्द्र ने त्रिलोकसार में स्पष्ट लिख दिया है "पणछस्सयवस्सं पणमास जुवं गमियवीर णिव्वुइदो। सगराजोततो कसी चदुणवतियहिय सगमासं ॥" कि वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ माह बाद शकराजा हुआ और उसके ३६४ वर्ष ७ माह बाद अर्थात् वीर निर्वाण से हजार वर्ष बाद कल्की हुआ। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि यतिवृषभ के समय कालमान में जो अस्पष्टता थी उसे दसवीं सदी विक्रमी तक सर्वमान्य हल से सुलझा लिया गया किन्तु कालान्तर और काल-उच्छेद में अस्पष्टता बनी रही। फिर भी वल ज्ञान और अविभाग प्रतिच्छेदों की सर्वोत्कृष्ट संख्या के रूप में ६५, ५३६ की संख्या पर भी सहमति हो गई। इसीलिए त्रिलोकसार में उसे प्रमुखता से बारंबार लिखा गया । ३८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524563
Book TitleTulsi Prajna 1990 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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