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१६. जैन क्रिया कोष-दौलतराम कासलीवाल, पृ० ८, जिनवाणी प्र० कार्यालय,
कलकत्ता, १६२७ २०. अभक्ष्य अनन्तकाय विचार-पी० एम० शाह, जैन श्रेयस्कर मंडल, महसाणा,
१९८२ २१. नव पदार्थ .. आचार्य भिक्षु, पृ० ११४, श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६१ २२. श्रावक धर्मप्रदीप-जगन्मोहन लाल शास्त्री, पृ० १०७, वर्णी ग्रंथमाला, काशी,
१९८० २३. एन इंक्वायरी इन्ट लाइफ---जॉन ए. मूर (संयोजक), पृ० १९४, एच.बी.डब्लू.
इंका०, न्यूयार्क, १९६३ २४. निशीथ चूणि-मधुसेन, १० १४४, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी, १९८० २५. कल्याण कारक-उग्रादित्याचार्य, रावजी सखाराम दोशी, शोलापुर, १९४८
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(शेषांश पृष्ठ १० का) (ख) जंबूविजयजी
१०० (vi) उत्तराध्ययन० अ० १३ चित्तसंभूत ० (vii) पण्णवणा सूत्र
(१ से ७४,१३६ से १४७) . (viii) षट्खण्डागम अ० १.१ से ८१ सूत्र ५ (ix) बृहत्कल्पसूत्र अ० १ (घासीलालजी) २ (x) विशेषावश्यक भाष्य १०१ से २०० ८ (xi) पज्जोवसणा सूत्र २३२ से २६१ ७ ६८
११ साहित्य में उपलब्ध प्रयोगों से स्पष्ट हो रहा है कि मध्यवर्ती पकार का प्रायः लोप नहीं मिलता है । उसका मुख्यत: वकार ही होता है। जैन और जैनेतर दोनों ही साहित्य में कम से कम ७४ प्रतिशत और अधिक से अधिक ६२ से १०० प्रतिशत पका व मिलता है । तब फिर व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार के विषय में प्रायःलोप का नियम कैसे बनाया होगा।
मध्यवर्ती वकार के प्रायः लोप का नियम तो बिलकुल ही उचित नहीं ठहरता
।
कहना पड़ेगा कि पकार और वकार के विषय में प्राकृत व्याकरणकारों के नियम शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के विपरीत जाते हैं। कम से कम प्राचीनतम साहित्य की प्राकृत भाषा पर यह नियम लागू नहीं होता है अतः अर्धमागधी भाषा पर भी ये नियम लागू नहीं होते हैं।
तुलसी प्रज्ञा
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