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________________ में मा जाते है । द्विदलों की अभक्ष्यता से हमारे आहार का एक प्रमुख प्रोटीनी घटक ही समाप्त हो जावेगा। शास्त्रीय दृष्टि से, ऐसे खाद्यों में सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं। यह तो वातावरण एवं किण्वन का प्रभाव है। आशाधर ने इस विषय में कुछ उदारता दिखाई है । बे पकाये हुए दूध से बने दही-मछे से मिश्रित द्विदल को भक्ष्य मानते हैं। फलतः द्विदल एवं दही-मट्ठा मिश्रित द्विदल खाद्यों की अभक्ष्यता पुराने या विकृत द्विदलों पर ही लागू माननी चाहिये, नये द्विदलों पर नहीं । अतः द्विदल के बदले विकृत या पुराने द्विदल' शब्द का उपयोग करना चाहिये। फिर भी, यदि चलित-रस की अभक्ष्यता है, तो आशाधर का मत खंडित ही रहेगा। यदि किण्वन से प्राप्त पदार्थों की कोटि एक ही बनाई जाती, तो अधिक अच्छा था। इससे अभक्ष्यों को संख्या कम होगी। (क्रमशः) संवर्भ: १. आचारांग चूला, पृ० ७८,८८, मागम प्र० समिति, ब्यावर, १९८० २. रत्नकरण्डकश्रावकाचार-समंतमत्र, पृ० ४८, क्षीरसागर ग्रंथमाला, १९६० ३. पावकधर्मप्रदीप-जगन्मोहनलाल शास्त्री, पृ० १०७, वर्णी ग्रंथमाला, काशी, १९८० ४. आचारांग चूला, पृ० ७८,८८, आगम प्र० समिति, ब्यावर, १९८० ५. वशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन-- मुनि नथमल (सं०), पृ० ११३,११६, तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता, १९६७ ६. उत्तराध्ययन-मुनि नथमल, पृ० ५१६ ७. आचारांग चूला, पृ० ७८,८८, आगम प्र० समिति, ब्यावर, १९८० ८. जीव विचार प्रकरण-शांतिसूरीश्वर, पृ० ३४-६०, जैन मिशन सोसाइटी, महास, १९५० ९. वही १०. अनुसंधान पत्रिका (अंक-३)-साध्वी मंजुलामी, पृ. ५३, जैन विश्व भारती, . लाडनूं ११. प्रवचनसार... कुंदकंदाचार्य, पृ० २७७,२८१, पाटनी ग्रन्थमाला, मारोठ, १९५६ १२. सागार धर्मामृत--कैलाशचन्द्र शास्त्री (अनु०) पृ० ४३-१२५, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८१ १३. पुरुषार्थसियुपाय-अमृतचन्द्राचार्य, पृ० १०२,१२३, जैन स्वा० मं० ट्रस्ट, सोनगढ़ १९७६ १४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड)-नेमचन्द चक्रवर्ती, प० प्रभावक मंडल, आगास, १९७२ १५. अनुसंधान पत्रिका (अंक-३)-साध्वी मंजुलाधी, पृ० ५३, जैन विश्व भारती, लाडनूं १६. जन क्रिया कोष---दौलतराम कासलीवाल, पृ० ८, जिनवाणी प्र० कार्यालय, ___ कलकत्ता, १९२७ १७. अनुसंधान पत्रिका (अंक-३)-साध्वी मंजुलाश्री, पृ० ५३, जैन विश्व भारती, लाग्नं १८. जीव विचार प्रकरण-शान्तिसूरीश्वर, पृ० ३४-६०, जैन मिशन सोसाइटी, मद्रास, १९५० खण्ड १६, अंक २ (सित०, ६०) m Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524563
Book TitleTulsi Prajna 1990 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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