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________________ उल्लेख मिलता है अतः ३६ तक का जिस क्रम से उल्लेख मिलता है उसे ज्यों-का-त्यों लिख दिया गया और जो बाकी बच गए उन्हें उनके बाद जोड़ दिया गया है । खर बादर पृथ्वीकाय के जो ये चालीस भेद गिनाए गए हैं उन्हें चार कोटियों में रखा गया है । प्रथम कोटि में पृथ्वी के चौदह भेद यथा पृथ्वी, शर्करा, बालू, सिला, लवण, सोना, लोहा, तांबा, हीरा आदि को रखा गया है। तत्पश्चात् हडताल आदि के आठ भेद गिनाए गए हैं । तृतीय गाथा में गोमेद आदि नो मणियों का उल्लेख मिलता है तथा चौथी और अंतिम गाथा में चंदन आदि सुगंधित नौ मणियों का विवरण दिया गया है । इस तरह से कुल चालीस प्रकार के खर बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख जैन ग्रंथों में उपलब्ध होता है । अगर हम इन चालीस प्रकार के बादर पृथ्वीकाय पर दृष्टि डालें तो ऐसा लगता है कि ये सभी या तो पृथ्वी के बदले रूप हैं, पृथ्वी से प्राप्त खनिज हैं तथा चंदन आदि सुगंधित द्रव्य हैं । इनमें जीव इसलिए मान लिया गया है कि ये पृथ्वी के ही भाग हैं और पृथ्वी स्वयं जीव है | अगर रसायन विज्ञान पर विचार किया जाए तो हमारे समक्ष यह विवरण अवश्य उपस्थित होता है कि प्रारंभ में रसायन शास्त्रियों ने तत्वों की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए उन्हें जो चिह्न या नाम प्रदान किया वह विभिन्न जीवों नक्षत्रों आदि के नामों पर आधारित था । दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने उन तत्वों में उन जीवों और नक्षत्रों का स्वरूप देखा जिनके साथ उन्हें जोड़ा गया । अर्थात् रसायनवेत्ताओं के तत्वों के नामकरण की पद्धति जीवों की प्रकृति पर आधारित थी। बाद में यह परंपरा गलत साबित हुई और अब तक १०३ तत्वों के बारे में वैज्ञानिकों को जो जानकारी उपलब्ध हुई है, वे सब जीवधारियों से बिलकुल अलग हैं । अर्थात् ये सब जीव नहीं हैं । जैनाचार्यों ने पृथ्वीकाय के जो ४० भेद गिनाए हैं उनमें से बहुत का समावेश इन १०३ तत्वों के अंतर्गत हो जाता है । जैसे- लोहा, सोना, तांबा, चांदी आदि । अत: आधुनिक विज्ञान के आधार पर इनमें जीव के लक्षण देखे जाएं तो हमें सफलता नहीं मिलेगी । अर्थात् इन्हें जीव नहीं माना जा सकता है । परंतु जैनग्रंथों में इन्हें पृथ्वीकाय जीव कहा गया है और यह जैनाचार्यों का अपना मौलिक चिंतन है । इसके पीछे वे अपना तर्क भी देते हैं और उसी के आधार पर उन्होंने इन्हें जीव कहा है । खर बादर पृथ्वीकाय के दो भेद हैं" ? - १. अपर्याप्तक और २. पर्याप्तक १. अपर्याप्तक - वे खर बादर पृथ्वीकाय जो या तो अपनी पर्याप्तियों से पूर्णतया असंप्राप्त हैं अथवा उन्हें विशिष्ट वर्ण आदि प्राप्त नहीं हुए हैं, अपर्याप्तक खर बादर पृथ्वीकाय कहलाते हैं । इस दृष्टि से उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वे कृष्ण आदि वर्ण वाले हैं। शरीर आदि पर्याप्तियां पूर्ण हो जाने पर ही बादर जीवों में वर्णा प्रकट होता है, अपूर्ण होने की स्थिति में नहीं । ये अपर्याप्तक जीव उच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं । इसीलिए उनमें स्पष्ट वर्णादि संभव नहीं है । इसी दृष्टि से उन्हें 'असंप्राप्त' कहा गया है । २. पर्याप्तक - वे खर बादर पृथ्वीकाय जो अपनी पर्याप्तियां पूर्ण कर लेते हैं खण्ड १६, अंक २ ( सित०, ६० ) १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524563
Book TitleTulsi Prajna 1990 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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