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प्राकृत व्याकरण में प्रयुक्त मध्यवर्ती प और व की परीक्षा
0 डॉ० के० आर० चन्द्र*
प्राकृत व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार और वकार के सम्बन्ध में ध्वनि-परिवर्तन के जो नियम दिये हैं वे शिलालेखों और साहित्य में कहां तक औचित्य रखते हैं उसी का यहां अध्ययन किया जा रहा है। इस विश्लेषणात्मक अध्ययन से स्पष्ट होगा कि साहित्य और व्याकरण में कितना अन्तर है ।
मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों (टवर्ग के सिवाय) के प्रायःलोप के विषय में हेमचन्द्र का सूत्र इस प्रकार है :
कगचजतदपयवां प्रायो लुक् (८-१.१७७)
इस सूत्र से स्पष्ट है कि अन्य अल्पप्राण व्यंजनों की तरह पकार का भी प्रायःलोप होता है।
इस सूत्र के पश्चात् अन्य स्थल पर पकार के विषय में जो सूत्र दिया गया है वह इस प्रकार है
पो वः (८.१.२३१)
इस सूत्र की वृत्ति में कहा गया है कि पकार का प्रायः वकार होता है । सूत्र की वृत्ति इस प्रकार है
____ स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानावेः पस्य प्रायो वो भवति ।
ये दोनों सूत्र क्या एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं ? इन दोनों का समाधान वृत्ति में इस प्रकार किया गया है
एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपवकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः ।
अर्थात् श्रुतिसुखानुसार लोप या व किया जा सकता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि दोनों सूत्रों में जिस प्रायः शब्द का उपयोग किया गया है वह निरर्थक बन जाता है । व्याकरणकार क्या एक तरफ परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं और दूसरी तरफ उसी में संशोधन कर रहे हैं क्या ? इन विधानों में स्पष्टता का अभाव दृष्टिगोचर हुए बिना नहीं रहता।
वररुचि के व्याकरण में भी यही दोष नजर आता है। उनके प्राकृत-प्रकाश में पहले प्रायः लोप और पुनः प्रायः व होने का आदेश है । वृत्ति में फिर कहा गया है-जहां पर लोप नहीं हो वहां पर व बन जाता है*विभागाध्यक्ष, प्राकृत-पालि विभाग, गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद-6
- तुलसी प्रज्ञा
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