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________________ स्थान पर चूत त्याग मूलगुण कहा गया है । यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सप्त व्यसनों की परम्परा कब से चाल हुई, पर इनमें भी मद्य-मांस को व्यसन [अभक्ष्य, त्याग] माना है। मधु यहां भी छूट गया लगता है। कुंदकुंद ने भी मद्य को अयुक्ताहार में सम्मिलित नहीं किया है । इससे प्रतीत होता है कि मधु और मद्य की तर्कसंगत अभक्ष्यता विवाद का विषय रही है। आजकल अंडे को मांसाहार के रूप में मानने के और उसकी अभक्ष्यता के वैज्ञानिक कारण उपलब्ध हैं, पर शास्त्रों में वणित मूलगुणों की किसी भी सूची में इनका नाम नहीं है । इसके विपर्यास में औपपातिक सूत्र में आहार-ग्रास का मानक बताया गया है। क्या सूत्रकाल में बिहार में अण्डे का इतना प्रचलन था कि वह मानक बन सके ? दिगम्बरों ने अच्छा किया कि १००० चावलों के दानों को ग्रास का मानक बताया। समय की मांग है कि इनकी अभक्ष्यता को कहीं न कहीं धार्मिक मान्यता अवश्य दी जावे चाहे आठ की जगह नौ या दस मूलगुण ही क्यों न हो जावें ? आशाधर ने तो सभी मान्यताओं का समाहार कर नये रूप में आठ मूलगुण बताये हैं । इनमें उपरोक्त अभक्ष्यों के अतिरिक्त अन्य गुण भी सम्मिलित किये गये हैं। भभितगति ने रात्रिभोजन त्याग मिलाकर मूलगुणों की संख्या ६ कर दी । अमृतचंद्र ने मक्खन, अनन्त काय एवं रात्रि भोजन की अभक्ष्यता बताकर इनकी संख्या ११ कर दी । उत्तरवर्ती समयों में अभक्ष्य पदार्थों की संख्या बढ़ती गई। समंतभद्र एवं पूज्यपाद ने मूली, अदरख, मक्खन, नीम व केतकी के फूलों को अभक्ष्य बताया था। हेमचंद्राचार्य ने द्विदल को सर्वप्रथम अभक्ष्यों में गिनाया। आगमों के अनुरूप आशाधर ने भी नाली, सूरण (कंदमूल), द्रोण पुष्प आदि सभी प्रकार के अनंतकायों को अभक्ष्य बताया । सोमदेव ने प्याज को उसी कोटि में रखा । उन्होंने कच्चे दूध से बने दही आदि के नये व पुराने द्विदल को अभक्ष्य बताते हुए कलींदा न खाने का भी उल्लेख किया है। वर्षा ऋतु में अदलित द्विदल धान्य व पत्रशाक नहीं खाना चाहिये। सात प्रकार की अनन्तकाय वनस्पतियों में बीजोत्पन्न गेहं आदि धान्य भी समाहित किये जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह वर्णन एक अतिरेक है । इसका समाहार नेमचंद्राचार्य ने पहले ही यह कह कर दिया था कि सभी वनस्पति दोनों प्रकार के होते हैं। अपने जन्म से अन्तर्मुहूर्त तक वे अनंतकाय ही होते हैं, उत्तरवर्ती समय में इनमें विशेष भेद हो जाता है । आजकल यह भी माना जाता है कि ये सभी वनस्पति संक्रमित या रोगाक्रांत होने पर दूसरे सूक्ष्म जीवों का आधार बन जाते हैं। अत: आश्रयाश्रयी भाव से भी ये अभक्ष्यता की कोटि में आ सकते हैं। ऐसा संभव है कि आशाधर के उत्तरवर्ती समय में जैसे-जैसे नये वनस्पतियों एवं खाद्यों का ज्ञान होता गया, उनकी भक्ष्याभक्ष्य कोटि पर विचार किया जाने लगा। आजकल इनके समेकीकृत वर्गीकरण के रूप में २२ अभक्ष्य माने जाते हैं। साध्वी मंजुला के अनुसार इ का सर्वप्रथम उल्लेख धर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ में मिलता है। दौलतराम के जैन प्रिया कोष में भी इनका नाम है । इन नामों को सारणी ३ में दिया जा रहा है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक सूची में कुछ अन्तर है । जीव विचार प्रकरण में द्विदल का नाम नहीं है, इसके बदले कच्चे नमक का नाम है। इसी प्रकार दौलतराम २४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524563
Book TitleTulsi Prajna 1990 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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