Book Title: Samayik Ek Adhyatmik Prayog
Author(s): Subhash Lunkad
Publisher: Kalpana Lunkad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सामायिक : एक आध्यात्मिक प्रयोग - डॉ. सुभाष लुंकड Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण देवतुल्य पिताजी श्री इंद्रभानजी लुंकड तथा धर्मशीला माताजी सी.कवरीबाई लुंकड जिन्होने बचपन में ही धार्मिकता के बीज बोए और उन्हे सुसंस्कारित किया । उनके पावन कर कमलों में सादर सविनय सभक्ति समर्पित। विनीत सुभाष Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के २६०० वे - जन्म कल्याणक के उपलक्ष में एक आध्या मक प्रयोग -संकलन एवं रचना डॉ.सुभाष लुंकड .. -प्रकाशकडॉ. सौ कल्पना लुंकड Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मुदक .: सामायिक - एक आध्यात्मिक प्रयोग। संकलक __: डॉ. सुभाष लुंकड ,पुण | प्रकाशक : डॉ . सौ कल्पना लुंकड, पुणे। : योगेश प्रिंटर्स , पिंपळे गुरव, पुणे - 27 फोन 7281131 टाईप सेटिंग : व्हिजन टेक्नॉलॉजी (कर्नावट, येरवडा) लेखन शुध्दि : सौ. कुसुम कोथरू संस्करण : प्रथम (ऑगस्ट 2001) प्रतियाँ . : 4000 प्राप्ति स्थळ : लुंकड हॉस्पिटल A/3 इंदिरा पार्क, नगर रोड, येरवडा पुणे-४४११००६ दूरभाष ६६८३९७० : रू. 15/ - मूल्य Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन . “धर्म जन-जीवन का आधार है और "व्रत" उसकी आधारशिला है। धार्मिक जागृति, उसमें श्रध्दा, निष्ठा एवं भक्ति ही हमारे अन्तस्थल में आध्यात्मिकता का सर्वांग विकास कर हम में देवोपम जीवन का पर्याय निर्मित कर देता है और व्रत हमारे में आत्म शुध्दि, गुण वृध्दि एवं आन्तरिक प्रसन्नता की भावभूमि का निर्माण करता है। श्रावकचार वस्तुत: विकास की प्रथम प्रशस्त श्रेणी है और उसका प्राणभूत तत्व "व्रत" है।व्रत का अर्थ "प्रतिज्ञा" है, संकल्प है और दृढ निष्ठा है। व्रत संख्या की दृष्टि से "द्वादश" हैं जिसमें पाँच अणुव्रत है।अणुका अर्थ "छोटा" होता है। श्रमणों के महाव्रतों की अपेक्षा श्रावकों के हिंसा, असत्य प्रभृति के परित्याग की प्रतिज्ञा मर्यादित रूप से होती है। एतदर्थ वह "अणुव्रत' है। तीन गुणवत है। गुण का अभिप्राय “विशेषता" है। जो नियम पंचविध अणुव्रतों में विशेषता समुत्पन्न करते है, अणुव्रतों के संपालन में सहायक एवं उपकारक होते है, वे गुणवत है। चार शिक्षावत है। शिक्षा का तात्पर्य "शिक्षण" अर्थात अभ्यास है । जिनके द्वारा धर्म का अभ्यास किया जाय,धर्मकी शिक्षा लीजाय।वे शिक्षावत कहलाते हैं। ये सर्व - व्रत अपनी अपनी मर्यादा में उत्कृष्ट है, महत्वपूर्ण हैं यह पूर्णतः प्रगट है कि सामायिक व्रत सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वज्येष्ठ व्रत है । सामायिक का अभिप्रेत - अभिप्राय "सम-भाव" है। अत:एवं यह सिध्द है कि जब तक अन्तर्मन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अन्तरात्मा में समभाव न हो, राग-द्वेष की परिणति न्यूनतम न हो, तब तक उग्र-तप एवं दीर्घ जप आदि की साधना निरन्तर एवं कितनी ही क्यों न की जाए, उससे आत्मिक विशुध्दि और आत्मिक विकास नही हो सकता है। वस्तु वृत्या समग्र -व्रतों में "सामायिक" ही मुक्ति-प्राप्ति का प्रधान एवं अभिन्न अंग है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय प्रभृति एकादशव्रत इसी समभाव के द्वारा जीवित है, मूल्यवान है और अर्थवान् है। श्रावक जीवन में प्रतिदिन अभ्यास की दृष्टि से दो घडी तक यह सामायिक व्रत अंगीकृत किया जाता है और श्रमण जीवन में यह यावज्जीवन के लिए हरण कर लिया जाता है। "समता" लक्षण ही सामायिक का एक ऐसा विशिष्ट लक्षण है जिसमें समग्र लक्षण का सहजत: समावेश हो जाता है। समत्वयोग ही ध्यान साधना का मौलिक आधार है। जब मन समत्व की साधना में स्थिर एवं स्थित होगा, तभी साट कि ध्यान योग का अचिन्त्य आनंद प्राप्त कर सकेगा । इसलिए समभाव एवं ध्यान साधना का अन्योन्याश्रय संबंध है, ये दोनों एक दूसरे के पूरक ही नहीं है, अपितु घटक भी है। चित्त-वृत्ति का प्रशोधन, उदात्तीकरण एवं चेतना प्रकाश का केन्द्रीकरण यह सब ध्यान साधना के अन्तर्गत है। इसी दृष्टि से सामायिक साधना भी ध्यान योग का सर्वथा सक्षम पक्ष है। किंबहुना सामायिक आध यात्मिक अनुष्ठान है, पर-परिणति नही, किंतु आत्म-परिणति है, दुध्यनि का विर्सजन है, सुध्यान का प्रवर्तन है और मुक्ति प्राप्ति का अधिकार पत्र है। धर्मप्रिय सेवाशील डॉ. सुभाष जी लुंकड ने “सामायिक-एक आध यात्मिक प्रयोग" शीर्षक सत्कृति की रचना । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की है। उन्होंने “सामायिक" व्रत के संदर्भ में धर्म एवं अध्यात्म के मूल-सूत्रों पर सहज सरल भाषा में लघुकाय भाष्य प्रस्तुत किया है । उनका यह प्रथम प्रयास जन जन के अन्तर्मन में सामायिक संदर्भित आध्यात्मिक जागरण का दिव्य स्वर गुंजायमान करता रहें। यही मेरी मंगल प्रभात की मंगल वेला में मंगल कामना है। आचार्य शिवमुनि श्री. एस. एस. जैन सभा वीरनगर, जैन कॉलोनी दिल्ली ११०००७ दि. १० जुलाई, २००१ Wololololol alebolelos Adlaballolon BARPAL OPAD Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द जैन धर्म की विविध क्रिया आचार पध्दति में 'सामायिक' का अपना विशिष्ट स्थान है । आत्मा को जागृत करने की एक महत्वपूर्ण सकारात्म प्रक्रिया है । आत्म शुध्दि हेतु किये गये एक मौलिक प्रयोग का रूप है । "हेय-ज्ञेय और उपादेय तीनों रूप सामायिक-क्रिया में समाहित हैं । यम- आसन - मौन - ध्यान सभी सामायिक विधि में गर्भित है । मुक्ति रूप महामहल को पहुँचाने वाला महापथ सामायिक ही है। "सामायिक एक आध्यात्मिक प्रयोग" नामक यह छोटे आकारवाली पुस्तिका जिसके संकलन कर्ता मान्यवर डॉ. सुभाषजी लुंकड है, "दिखने में छोटी लगे, ज्ञान दे गंभीर " इस उक्ति के अनुसार डॉ. सुभाषजी का दृष्टिकोण सराहनीय रहा है कि, अधिक से अधिक बहन और भाई एवं युवक युवतियाँ इस पुस्तक का पठन पाठन करे। ताकि जीवन मे साधना का प्रकाश जगमगा उठे । मैं डॉ. सुभाषजी को साधुवाद दूँगा । व्यस्त जीवन होनेपर •भी जिन्होंने समय का सदुपयोग इस पुस्तक में किया है। प्रवर्तक रमेशमुनि iv Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मनोगत शास्त्रज्ञ गौतममुनिजी म.सा. (प्रथम ) इनकी प्रेरणा से मैं सामायिक करने लगा। पर प्रचलित सामायिक में मुझे कभीशांति नही मिली-आध्यात्मिक आनंद नही आया-जो ध्यान करने पर मिलता था। इसलिए जो भी संत संपर्क में आए, उनके साथ मैं सामायिक के बारे में चर्चा करता रहा । सामायिक के बारे में मेरी अस्वस्थता प्रकट करता रहा। मार्गदर्शन लेता रहा। कुछ धार्मिक किताबें पढी। सामायिक में ही सामायिक के बारे में स्वाध्याय करता रहा। अपनी तरफसेसामायिक में कुछ आध्यात्मिक प्रयोग करता रहा। कुछ बदलाव करता रहा। धीरे धीरे सामायिक के बारेमे मेरी रूचि बढ़ती गई। समझ बढती गई। । पिछले साल सन २००० के संवत्सरी के रात में बारह बजे मैने जो सामायिक की,वह मुझे सबसे अच्छी सामायिक लगी । एक ऐसी सामायिक जिससे मुझे पूर्णतया शांति मिलीसमाधान मिला। ऐसा लगा कि, यही सच्ची सामायिक है। ऐसी ही सामायिक हर किसीने करनी चाहिए। ऐसीसामायिकजोशास्त्रशुष्ट | द लगती है । आधुनिक विज्ञान के स्तर पर भी सही उतरती है। ऐसी सामायिक जो किसी भी सुशिक्षित, आधुनिक शास्त्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले व्यक्ति को पसंद आए । मैने मेरी इस सामायिक का जिक उस वक्त पुणे में स्थित साध्वी मधुरिमताजी म.सा. के पास किया। उन्होने मुझे उसे लिखने की प्रेरणा दी। शुरू मे एक संक्षिप्त सामायिक लिखकर उनके तथा परमपूज्य Marasinikanina - - - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी प्रीतीसुधाजी म. सा. के सामने प्रस्तुत की । परमपूज्य साध्वी प्रीतीसुधाजी तथा उनके साथवाले बारह साध्वियों ने इस सामायिक का प्रॅक्टिकल करके देखा और इसकी सराहाना करते हुए। इसका जनमानसमें प्रसार करने की प्रेरणा दी। इससे मेरा उत्साह द्विगुणीत हुआ। बाद में और अधिक सखोलता से अभ्यास करते हुए, विद्वानो से संतो से मार्गदर्शन लेते हुए, सूत्रोंमे से विद्वानों के ग्रंथों सें शास्त्राधार लेते हुए, इसे मैने और भी अधिक परिपूर्ण बनाया । यह सामायिक- कुछ मेरी खोज नही है। जो सूत्रोंमें, शास्त्रोंमें कहा है वही बात अधिक आसान स्वरूपमें और सुस्पष्ट रूपमें में कर रहा हूँ । केवल जो सुवर्णफूल इस्ततः बिखर गए थे उन्हे इकठ्ठा करके एक माला के स्वरूप में सुशोभित करके, आपके सामने प्रस्तुत करने का यह एक नम्र प्रयास है । इस प्रयास में मुझे सर्वाधिक मार्गदर्शन और धैर्य देनेका काम किया नगर में स्थानापन्न मुनिवर्य विनोदमुनि म. सा. तथा विद्वान पंडित रत्न नेमिचंद्रजी म.सा. ने । शास्त्रज्ञ प. पु. गौतममुनीजी म.सा. (प्रथम), प्रवर्तक प. पू. रमेशमुनीजी म. सा. उपप्रवर्तक प. पू. सुरेशमुनीजी म.सा., वंदनिय प्रशांतऋषीजी म. सा., वंदनिय अक्षयऋषीनी म.सा., वंदनिय आदर्शऋषीजी म.सा. साध्वी प. पू. अर्चनाजी म.सा., साध्वी प. पू. डॉ धर्मशीलाजी म. सा., प. पू. साध्वी डॉ. ज्ञानप्रभाजी म. सा., प. पू. साध्वी डॉ. अरुणप्रभाजी म.सा. इन संतोने मुझे और स्फूर्ति प्रदान की । महासतीजी प. पू. इंद्रकॅवरजी म.सा. महासतीजी प्रवर्तक प्रमोदसुधाजी म.सा. इन्होने अपने वात्सल्यपूर्ण शुभ , vi. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीष दिए। :: और सबसे महत्वपूर्ण आशीर्वाद तथा महाप्रेरणा आयी परमपूज्य आचार्य भगवंत डॉ. शिवमुनीजी म.सा.से उदयपूर से, उन्होंने अपने पत्र में लिखा, "आपकी सामायिक की विधि यह एक सुंदर प्रयास है।" और इन सब संतोके आशीर्वाद मार्गदर्शन और प्रेरणा के कारण आपके सामने प्रस्तुत हो रही है - एक आदर्श सामायिक। परंपराओं में जकडे हुए सामायिक की इस साधना को आजके वैज्ञानिक युग में एक वैज्ञानिक आयाम देकर तर्कशुध्द और विशुध्द धर्मध्यान के रूपमे आपके सामने प्रस्तुत करने का यह एक नम्र प्रयास है। शिथीलकरण, एकाग्रताऔर अंतदर्शन इनत्रिसूत्रियोंका आधार इस सामायिक विधि को है। इससे सामायिक अधिक व्यापकता से तथा सखोल रूपमें समाज के सभी वर्गोमें विशेषतः सुशिक्षित युवा वर्गोमें प्रंसृत होगी इसका मुझे विश्वास है। . जब हर जिज्ञासु साधक इस आध्यात्मिक प्रयोग को करके देखेगा, उसकी अनुभूति लेगा, इससे प्राप्त समताकोअपने जीवनमे उतारेगा और अपने स्नेहियों को भी इस साधना की प्रेरणा देगा, तभी यह प्रयास सफल होगा। और इस छोटी सी पुस्तिका की आशा सफल होगी। डॉ. सुभाष लुंकड Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ' |-अनुकम1१) सामायिक एक पूजा २) सामायिक का महत्व ३) सामायिक एक आध्यात्मिक प्रयोग ४). सामायिक व्याख्या तथा उद्देश५) समता भाव का अर्थ क्या है ? ६) इस समताभाव को सामायिक में कैसे पाए? (६-अ) कायोत्सर्ग (काउसग्ग) क्या है? | (६ - ब) धर्मध्यान क्या है ? (६-क) कायोत्सर्ग और धर्मध्यान करने से ___ समताभाव कैसे प्राप्त होता है ? ७) प्रचलित सामायिक की त्रुटियाँ 1८) एक आदर्श सामायिक की विधि ९) कुछ प्रश्न इस नये सामायिक के विधि कि बारेमे १०) सामायिक से लाभ. ११) जैनेतर धर्मो मे समताभाव की मान्यता १२) सामायिक एक वैश्विक साधना - एक साधना समुचे मानव जाति के लिए १३) सामायिक सूत्र-मूल पाठ १४) पारंपारिक सामायिक की विधी १५) अभिप्राय |१६) निवेदन viii Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १) सामायिक एक पूजा जैसे विविध धर्मो के लोग, अपने अपने मंदिर मस्जिद; चर्च आदि धार्मिक स्थानों पर जाकर अपने अपने भगवान की, मुर्ति की पूजा, प्रार्थना, धार्मिक विधि, या आरती रोजाना करते है इसी प्रकार जैन श्रावक के लिए सामायिक एक सच्ची पूजा है। यह पूजा श्रावक ने रोजाना नित्य नियम से करनी चाहिए। इस पूजा में श्रावक अपने ही मनमंदिर मे प्रवेश करके अंदरूनी परमात्मा की खोज करता है। अपनी ही आत्मा की शुध्द करने की आत्मपूजा वह करता है । जैन धर्म मे ईश्वर को जग का कर्ता तथा नियंता के स्वरूप में नही माना गया है। तथापि हर प्राणी के अंदर ईश्वर बध्द स्वरूप में है। यानि कि हर आत्मा अपने कर्मबंधनों की निर्जरा करके परमात्मा बनने की क्षमता रखता है, ऐसा माना गया है। अंतरात्मा को विशुध्द करके परमात्मा बनाने के लिए एक अत्यंत जलद राजमार्ग है - 'सामायिक'। इसलिए सामायिक एक सर्वश्रेष्ठ पूजा है। ऐसी पूजा जिसमे चंदन, धूप, पुष्प, फल, वनस्पति, अग्नि या धन किसीभी चीज की जरूरत नही । कोई विशेष स्थान, मुर्ति या मंदिर की भी जरूरत नही । इस पूजा के लिए चाहिए केवल दो घडी का समय, शुभ भावनाओंसे भरा हुआ मन, चाहिए एक आध्यात्मिक प्यास। २) सामायिक का महत्व सूत्रोंमें श्रावक के लिए बारह व्रत दिए है, उसमें नौवा व्रत है "सामायिक"|श्रावक के लिए आवश्यक नही कि बारह व्रत प्रथमके बाद द्वितीय, द्वितीय के बाद तृतीय इसतरह क्रम से ग्रहण करे,भगवती सूत्र में ऐसा स्पष्ट लिखा है कि बारह में से कोई भी व्रत बिनाकिसी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमके ग्रहण किया जा सकता है। सभी व्रत अपनी अपनी मर्यादामें उत्कृष्ट है। परंतु नौवे सामायिक व्रत को सबसे महान माना गया है। क्योकि सामायिक ही मुक्ति का प्रधान साधन है , पंचम गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक एकमात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है और सामायिक पूर्णत्व से जीवन मे उतर जाना ही मुक्ति है, मोक्ष है। यही कारण है कि, प्रत्येक मुनि तथा तीर्थकर दीक्षा लेने के समय कहते है कि, मैं जीवनभर के लिए सामायिक ग्रहण करता हूँ और केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद प्रत्येक तीर्थकर सर्वप्रथम जनता को इसी व्रत का उपदेश देते हैं । ऐसे महान व्रत की महत्ता सूत्रोंमें वर्णन करते हुए कहा गया है, "तिब्बतवं तवमाणोजन वि निवइ जन्मकोडिहिं। तसमभवियचितो खवेइ कम्म खणद्धणं ॥११६||. संबोध प्रकरण अर्थात - करोडो जन्मों तक निरंतर उग्र तप करनेवाला साधक जिन कर्मो को नष्ट नही कर सकता उनको समभावपूर्वक सामायिक करनेवाला साधक मात्र आधेही क्षण में नष्ट कर डालता है। "जे के विगया मोक्खं, जे विय गच्छन्ति, जेगमिस्सन्ति। ... तेसवे सामाइय महाप्पेणं मुणेयध्वं ॥११७॥ ___संबोध प्रकरण अर्थात - जो भी साधक अतीत काल में मोक्ष प्राप्त कर गए हैं, वर्तमानमे जा रहे हैं, और भविष्यमे जाएंगे यह सब सामायिक का प्रभाव है। सचमुच सामायिक मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति के लिए, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा से परमात्मा तक प्रवास करने के लिए एक अत्यंत जलद राजमार्ग (Express Highway) है । केवली भगवानने सभी धर्मशास्त्रों का, सूत्रों का अर्क निकालकर साधना के लिए एक अमृतकलश हमे सामायिक द्वारा प्रस्तुत किया है। ऐसे सच्चे सामायिक का महत्व वर्णन करते हुए कहा गया है, दिवसे दिवसे लख्खं देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो । एगो इयरो पुण सामाइयं करेड़ ण पहुप्पए तस्स ॥११३॥ (संबोध प्रकरण) अर्थात - एक व्यक्ति रोजाना लक्ष लक्ष सुवर्ण मुद्राओंका दान करता है, और दूसरा व्यक्ति मात्र दो घडी की सामायिक करता है तो दोनों में सामायिक करनेवाला श्रेष्ट व्यक्ति है । लक्ष मुद्राओंका दान एक सामायिक की भी समानता नही कर सकता । तो क्यों न हम इस अमृतकलश को हमारे जीवन में लाने के लिए, हमारे अति दुर्लभ मनुष्य जीवन के उध्दार के लिए उपयोग में लाए । ३) सामायिक एक आध्यात्मिक प्रयोग सिध्दान्त हमें कही नही पहुँचाता। सुनी हुई बात दूरतक नही ले जाती। उसको जीना होता है । सिध्दान्तों को जीवन में उतारने के लिए साधना होती है। साधना के लिए हमे प्रयोगोंसे गुजरना पडता है। केवल सुनना भार बढ़ाना है । जैसे चीनी दूध मे घूल जाने से भार नही बढाती, उसी प्रकार जो सत्य सिध्दांत आकलन हुआ है, उसे आचरण में घोल देने से भार नही बढेगा और आचरण भी स्वादभरा हो जाएगा। साधना के लिए सिध्दांत और प्रयोग दोनों की आवश्यकता है। ३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम सिध्दांत और प्रयोग दोनोंका समन्वय सामायिक मे करते है। सामायिक एक आध्यात्मिक प्रयोग है जो भीतर ले जाता है और ज्ञात कराता है कि भीतर में कितना सुख है। इस प्रयोग की पूर्णता के लिए नित्य अभ्यास आवश्यक है। वह एक बार ही पूर्णतया नही अपनाया जा सकता। इसलिए सामायिक को शिक्षाव्रत कहते हैं । जब हम सामायिक का पुन: पुन: अभ्यास करते हैं, तब कालांतरेण धीरे धीरे दैनंदिन जीवन के सब व्यवहारों में सामायिक का प्रयोग करना सीखते हैं। तब हम सच्चे सामायिक का परिणाम धीरे धीरे हमारे जीवन पर होता हुआ देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं । इस धर्माचरण का प्रतिबिंब हमारे नित्य प्रति के व्यवहार में उतरने लगता है। तभी सामायिक का प्रयोग सफल होने लगता है। ४) सामायिक व्याख्या तथा उद्देश तो यह सामायिक का व्रत कैसा करे? इसकी विधि क्या है ? यह देखने के पहले हमे यह मालूमात करना जरूरी है कि, सामायिक किसे कहते है? सामायिक की व्याख्या क्या है? सामायिक का उद्देश क्या है? सामायिक एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान है । जिसमें लीन होकर साधक ४८ मिनट तक सभी सांसारिक प्रवृत्तियों से निवृत होकर,मन,वचन, कायाके सभी पाप कार्यो का सावध योग त्याग करके, शुभ भावनाओं के साथ अपने मनमंदीर मे प्रवेश करके सम याने समत्व प्राप्ति का अभ्यास करता है। वस्तुत: “समे अयनं एव सामायिकम" समत्व की प्राप्ती ही सामायिक है। निचे दिए गए दो श्लोकोंसे सामायिक की व्याख्या तथा उद्देश और भी स्पष्ट होता है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १- समता सर्व भुतेषु संयमः शुभ भावना । आर्त रौद्र परित्याग स्तद्धि सामायिक व्रतम ॥ अर्थात- सभी प्राणिमात्रोंके प्रति समता भाव रखना, मन में सयंम. और शुभभावना होना आर्तध्यानं तथा रोर्दध्यान का त्याग करके धर्मध्यान में लीन होना सामायिक व्रत है। २- जो समो सव्वभुएस तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइंय होई, इह केवलि भासियं ॥ अर्थात- जो व्यक्ति त्रस और स्थावर रूप सभी जीवोंपर संमभाव धारण करता है। उसीकी सामायिक शुद्ध होती है ऐसा केवली 'भगवान ने कहा है। उपरनिर्दिष्ट दो श्लोकोंसे पता चलता है कि, "सभी नीवोंके प्रति समता भाव प्राप्त करने के लिए सयंमपूर्वक शुभभावनाओंके साथ धर्मध्यान करना ही सामायिक है” यही सामायिक की सही व्याख्या है 1 इसलिए सामायिक का मुख्य उद्देश : " समता भाव" प्राप्त करना है । ५) समता भाव का अर्थ क्या है ? "समता सर्व भूतेषु" याने कि सर्व प्राणिमात्रों के प्रतिसमता भाव याने कि मैं, मानव और सभी प्राणिमात्र समान है ऐसाजानना । जग मे अनंत प्राणिमात्र हैं। जिनका वर्गीकरण आधुनिक विज्ञान ने अनेक ; Phylums) में किया है, और जैनशास्त्र उनका वर्गीकरण एकीदिया से लेकर पंचेंदियातक करता है। ऐसे असंख्यजीव, मैं और सभी आदमी इनमें समानता क्या है ? सबका रंग, रूप, आकार, .५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाना, पीना, रहना सब अलग अलग है, भिन्न है । फिर समता किधर है ? अगर समानता है तो वह केवल एक ही स्तर पर हो सकती है - चेतना के स्तरपर, आत्मा के स्तरपर " चेतना के स्तरपर या आत्मा के स्तरपर जगके सभी प्राणिमात्र एक समान है इसकी अनुभूती तथा ज्ञान होना समताभाव है ।" "मुझमे जो चेतना है, उसी प्रकार की चेतना हर एक प्राणीमात्रमें भरी हुई है। यह अनुभूति समता भाव है" हर प्राणि की आत्मा पृथक पृथक होते हुए भी, सभी आत्माओंके गुण समान हैं। हर आत्मा शाश्वत है, नित्य है, अविनाशी है। हर आत्मा अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता भी है। अपने कर्मबंधनों के कारण हर आत्मा ८४ लक्ष योनियोंमें भटकती रहती है । और जो भी आत्मा साध ना से अपने कर्मबंध तोडने में, कर्मोंकी निर्जरा करने में सफल होती हैं, वे मुक्तात्मा या सिध्दात्मा बन जाती है । • इसतरह आत्मा के स्तरपर जगके सभी प्राणिमात्र समान है । आत्मा के कर्मबंध तोडकर उसे परमात्मा बनाने के लिए अतिदुर्लभ मनुष्य जन्म यह सबसे बडी सुवर्णसंधी है। ६) इस समताभाव को सामायिक में कैसे पाए ? सामायिक में समता भाव पाने के लिए सामायिक की विधि में दो अत्यंत शास्त्रीय परमखोज की स्टेपस् (पगडंडिया) बताए गए हैं। प्रथम स्टेप है- काउसग्ग याने के कायोत्सर्ग दूसरा स्टेप है - धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान - समता भाव पाने के लिए (याने कि सभी प्राणिमात्रों की चेतनासमान हैं) यह जानने के लिए सर्वप्रथम हमे खुद की अंदरूनी चेतना का ज्ञान होना चाहिए, खुद की चेतना को समझना तथा अनुभव करना Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए । खुद की चेतना समझेंगें तभी सभी प्राणिमात्र उसी तरहकी समान चेतना को समझ सकते हैं। इसलिए महावीर प्रभू ने कहा है, "जे एणं जाणइ, से सब जाणइ । जे सत्व जाणइ, से एगंजाणइ।" अर्थात- जो एक को (खुद को) जान लेना है । वह सबको जान लेना है, और जो सबको जान लेता है वही एक को (परमात्मा को) जानता है तो खुद की चेतना को जानने की विधि है , कायोत्सर्ग और बाद में खुदकी चेतना को सभी प्राणिमात्रोंकी चेतना के समान है,यह समता की अनुभूति लेते हुए , जीवन मे समताभाव उतारकर, कर्म बंधनोंकी निर्जरा करने के लिए अगली विधि है धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान (६-अ) कायोत्सर्ग (काउसग्ग) क्या है? कायोत्सर्ग = काया +उत्सर्ग काया = शरीर उत्सर्ग = छोड देना ,त्याग करना काया का उत्सर्ग करना याने की अविनाशी आत्मा को, चेतना को विनाशी शरीर से अलग करना । इसेही सामायिक मे कहते हैं , “आप्पाणं वोसिरामी" आप्पाण-आत्मा को , . वोसिरामी - पृथक करता हूँ,अलग करता हूँ (शरीर से ) हम खुद को शरीर के माध्यम से ही समझते है। शरीर के रंग रूप से ही हमे हमारी पहचान होती है। पर यह शरीर विनाशी है, मरणधर्मा है। इस शरीर के कण कण में भरी हुइ चेतना, आत्मा अविनाशी है। वही आत्मा ही मै हूँ,मैं शरीर नही हूँ, इसे समझकर यानपूर्वक उसकी अनुभूति लेना ही कायोत्सर्ग है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग की विधि से हमे अपने खुद की अविनाशी चेतना का ज्ञान होता है - विनाशी शरीर मे बसे हुए अविनाशी आत्मा की अनुभूति से शरीर आत्मा का भेदविज्ञान का हमे पता चलता है। हम खुद को जान लेते है (जो एणंजाणइ) इसलिए कायोत्सर्ग यह बहुतही कीमती,अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है। (६ - ब) धर्मध्यान क्या है? धर्मध्यान = धर्म +ध्यान धर्म = धर्म का अर्थ है जो जैसा है उसको वैसे जानना याने कि हर चीज के गुणधर्मों को समझना - याने कि आत्मस्वरूप को समझना ध्यान = साक्षीभाव से मन को एकाग्र करना, सभी विचारों से तथा विकारों से दूर करना। . "एकाग्र चिन्ता निरोधो ध्यानमा" अर्थात- एकाग्रता पूर्वक सभी विचारोंका निरोध करना ही ध्यान है। तत्वानुशासन मे एक अवलंबन मे चित्त को स्थिर करने को ध्यान कहा गया है। "चित्तरसेगग्गया हवई झाणं।" (आवश्यक नियुक्ति १४५६) अर्थात - चित्त को एकाग्र करना ही ध्यान है। ध्यान करने के लिए ध्यान मुद्रा का स्वरूप नीचे दिए हुएश्लोक मे बताया हुआ है "अनेश्चेतो बहिश्चक्षु रथःस्थाप्य सुखासनम। समत्वंच शरीरस्य ध्यान मुद्रेति कथ्यते॥" (गोरक्षाशतक ६५) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात - चित्तको अंतर्मुखी बनाकर, दृष्टि को नीचे की ओर नासाग्रपर स्थापित करके, सुखासनमें बैठना, तथा शरीर को सीधा रखना, ध्यानमुद्रा कहलाता है । ध्यान में मन को स्थिर करने के लिए अनेक प्रकार के आलंबन (सहारा) आवश्यक होते है । जैसे - श्वास, नासिका का अग्रभाग ह्रदय, मुख, नैन, नाभीकमल, ललाट, कर्ण, तालू, भौं, जीभ, मस्तक, इ. ये शरीर के ११ स्थानोंम से किसी एक पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है । तो धर्मध्यान की व्याख्या हम इसप्रकार कर सकते है । धर्मध्यान- "आत्मस्वरूप को समझने के लिए साक्षी भाव से मनको एकाग्र, निर्विचार तथा निर्विकार करना " | धर्मध्यान मे चित्तवृत्ति मुख्यरूपसे आत्मोन्मुखी हो जाती है और आत्मदर्शनही जीवनका प्रमुख लक्ष्य बनता है । शुक्लध्यान - यह धर्मध्यान की अत्यंत विशुध्द तथा परमोच्च अवस्था है । " ध्यानानलेन दहयते कर्म:।" याने कि ध्यानरूपी अग्नि मे कर्मो का नाश होता है । जैसे जैसे आदमी धर्मध्यान करते जाएगा, वैसे वैसे समताभाव उसके अंतरबाहय जीवनमें उतरता जाएगा, वैसे वैसे -मन राग व्देषसे परे होता जाएगा और ध्यान मे शुध्द आत्मदर्शन होकर विशुध्द आत्मवृति प्रकट होगी । ऐसे पवित्र निर्मल ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं ॥ धर्मध्यान १) यह चित्त विशुद्धि का प्रारंभिक अभ्यास है । २) धर्मध्यान मे बाहय साधनों का, आलंबनो का आधार होता है । ९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३) धर्मध्यान मे चित्तवृत्ति आत्मोन्मुखी हो जाती है। ४) चतुर्थगुण स्थान से सप्तम् गुणस्थान तक धर्मध्यान का अधिकारी माना गया है। शुक्लध्यान १) शुक्लध्यान मे वित्तविशुध्दि का अभ्यास परिपक्व हो जाता है। फलिभूत हो जाता है। २) शुक्लध्यान मे सिर्फ आत्मा का ही आलंबन होता है। ३) शुक्लध्यान मे रागद्वेष से परे होकर आत्मा विशुध्द रूप मे प्रकट __हो जाता है। ४) सप्तम गुणस्थान से १४ वे गुणस्थान तक शुक्लध्यान ही होता है ध्यान का महत्व १) बिना ध्यान के आत्मदर्शन नही होता। ध्यान से ही आत्मा का शुध्द प्रतिभास होता है। (ज्ञानसागर :३६) २) ध्यानाभ्यास के बिना बहुतसे शास्त्रों का पठण और नानाविध आचारों का पालन व्यर्थ है। (आचार्य कुंदकुंद लिखित मोक्षपाहूड गा २३-१००) - इसतरह समताभाव पाने के लिए और उसे जीवन उतारने के लिए सामायिक मे दो महत्वपूर्ण विधियाँ दी हैं . १) काउसण (कायोत्सर्ग) २) धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान (६-क) कायोत्सर्ग और धर्मध्यान करने से समताभाव कैसे प्राप्त होता है? जब हम कायोत्सर्ग करने से शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान जान १० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेते है,और उसकी वजह से शरीर के ममत्व से छूटने लगते है और अंदरूनी अविनाशी चेतना की प्रचिती लेते है। धर्मध्यान मे आगे हम इसी विषयपर चिंतन करते हुए ध्यानपूर्वक यह भी अनुभूति लेते है कि, मेरे अंदर जो चेतना भरी है वैसी ही चेतना सभी प्राणिमात्रोंमे भरी है - शरीर के स्तरपर हम भले ही अलग अलग दिखाई देते होंगे -पर चेतना के स्तरपर सभी प्राणिमात्रा समान है। यह हुआ समताभाव। यह समताभाव धर्मध्यान के व्दारा हमारे अंतर बाहय जीवन में उतरता है। और इसी समताभाव के अत्युच्च शिखर पर चढकर हम शुक्ल ध्यान के व्दारा -परमात्मा पद तक पहुँचते है। यह कैसे घटित होता है यह हम बाद में "सामायिक से लाभ" इस प्रकरणमे अधिक स्पष्टता से देखेंगे। इसतरह सामायिक मे कायोत्सर्ग और धर्मध्यान इन दो विधियों से हम समताभाव प्राप्त करते हैं। इसलिए हम सामायिक को कायोत्सर्ग ध्यान , धर्मध्यान, या समतायोग भी कह सकते हैं। तो कैसे करे यह धर्मध्यान, यह कायोत्सर्ग ध्यान, यह सामायिक ? इसकी विधि क्या है ? इसे समझनेके पहले हमे प्रचलित पारंपारिक सामायिक की विधि में जो त्रुटियाँ लगती है उन्हें समझ लेना जरूरी है। ७) प्रचलित सामायिक की टियाँ १) पाटियोंकीभाषा-प्रचलित सामायिक के विधि मे अर्धमागधी भाषा मे कही जानेवाली पाटियों का अर्थ नब्बे प्रतिशत लोग नही जानते फिर भी तोते की तरह रटकर बोलते रहते है। जिससे साधना कैसे हो ?वास्तविक इन पाटियोंका प्रत्येक शब्द का ठीक अर्थ समझकर ११ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमे बोलना चाहिए । अर्थ से ही तो सही भाव हृदय में उतरेगा अन्यथा मुश्किल है। ढाई हजार साल पहले लोगों की जो बोलीभाषा थी उसी भाषा में इन पाटियोंकी रचना करने का सूत्रकारों के उद्देश के पीछे यही उपरोक्त भावना थी । पर अब अर्धमागधी बोली भाषा नही रही, उसका कुछ भी व्यावहारिक उपयोग नही रहा, इसलिए जैन पंडितों के तथा अभ्यासकों के अलावा इस भाषा का अभ्यास कोई नही करता इसलिए सामान्य आदमी को पाटियों के शब्दों का सही उच्चारण तथा सही अर्थ दोनो ही अगम्य लगते हैं। इसपर दो ही उपाय है - एक तो हम इन पाटियों का ठीकसे अर्थ समझकर उन्हे कहे या दूसरा उपाय यह है कि, हम उनका प्रचलित बोली भाषा में अनुवाद करें, जो सूत्रकारों ने ढाई हजार वर्ष पूर्व किया था । आज लाख समझाने के बावजूद, सभी सार्थ किताबे मौजूद होने के बावजूद, गुरूओं के बारबार समझाने के बावजूद, ९० प्रतिशत लोग सामायिक की पाटियाँ बिना अर्थ समझे कहते है। जो १० प्रतिशत पंडित अर्थ जानते है, उनमे से शायद ५० प्रतिशत ही सही मायने मे अर्थ जानते होंगे । अन्यथा एक एक शब्द का अलग अलग अर्थ निकालकर यह एक वादविवाद बन जाता है। तो हमे यह प्रशस्त लगता है कि सही जानकारोंने, गुरूओ ने, पाटिया को प्रचलित बोली भाषा में रूपांतरित करके श्रावकों को देना चाहिए। इसमे मूल को कही ठेस नही पहुँचती ना कि हम मूल को भूला देंगे। गीता के भाषांतर कई भाषाओमें हुए। फिर भी मूल गीता तो मूल स्वरूप में है ही। वैसे ही पाटियोंका भाषांतर १२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने से मूल पाटियाँ जो अर्धमागधी मे है, वैसी ही रहेगी और वे धर्म अभ्यासकों के लिए तथा मूनियों के लिए पर्याप्त रहेंगी। हमने यहाँ सामायिक का विधि देते हुए -पाटिओंका अर्थ तथा उद्देश ध्यान मे लेकर संक्षिप्त मे हिंदी मे पाटियाँ दी है। सही धर्मध्यान सिखाने के लिए यह एक नम्र प्रयास है। वैसे भी पाटियाँ कहना सही सामायिक नही है। पाटियाँ सामायिक के लिए क्षेत्रशुध्दी तथा भावशुद्धि का काम करती हैं। सामायिक तो "करेमी भंते" के पाठ कहने के बाद शुरू होती है। ... . . २) अबजब सामायिक शुरू होती है तो सामायिक के अंदर -४८ मिनट के लिए स्वाध्याय , धर्मचर्चा, धर्मकथा सुनना,जाप, अनापूर्वी , भक्तामर स्तोत्र या ध्यान करने को कहा है। इसमें कोई भी कृति सामायिक मे करने से समताभाव सामायिक मे कैसे प्राप्त हो सकता है, इसके बारे मे प्रचलित सामायिक मे कोइ मार्गदर्शन नहीं है। ३) कायोत्सर्ग जो सामायिक की सही आत्मा है , उसे कोइ ठीक से नही समझता । एक तो कायोत्सर्ग सामायिक लेने के पहले- या सामायिक पारने के समय किया जाता है। उसे सामायिक मे स्थान नही। दूसरा- इतने महत्व की विधि लेकिन उसके लिए समय बहुत ही कम दिया जाता है। तीसरी बात - काउसव्ग मे ध्यानवस्था मे बैठकर इच्छाकारेणं या लोगस्स का पाठ बोलते है । इच्छाकारेणं इर्यापथिकी का पाठ है और लोगस्स चौबीस तीर्थंकरोकी स्तुति है, इनके कहनेसे कायोत्सर्ग याने के शरीर को आत्मा से अलग करना कैसे साध्य होगा?कायोत्सर्ग की इस प्रचलित विधि के बारे मे उपाध्याय अमरमुनिजी म.सा.ने अपना सामायिक सूत्र इस किताब में भी अपनी अस्वस्थता प्रकट की है। १३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - । वे कहते हैं, "इर्यापथिक का पाठ ध्यान मे कहने के संबंध मे एक अडचन है कि जब एक बार ध्यान करने से पहले ही इर्यावहि सूत्र पढ लिया गया, तब उसे दुबारा ध्यान मे पढने की आवश्यकता क्या है? ध्यान तो चिंतन के लिए है। मिच्छामि दुक्कडं के लिए नही। एक बात और भी है ध्यान मे प्रार्थना या स्तुति नही की जाती । इस दृष्टि से लोगस्स के गाथा के अवशिष्ट तीन चरण ध्यान मे पढना उचित नहीं मालूम पड़ता क्योंकि वह प्रार्थना का भाग है।मनोविज्ञान के दृषट से भी ध्यान और खुले रूप मे पढने का कुछ अंतर होना चाहिए विद्वानों ने इस संबंध मे अधिक विचार करने की प्रार्थना है " (प्रकरण २७ - लोगस्स ध्यान-सामायिक सूत्र __- उपाध्याय अमरमुनिजी) ४) कायोत्सर्ग के लिए ध्यान करना आवश्यक है। तस्स उत्तरी के पाठ के अंतमे हम कहते है "ताव कायं ठाणं,मोणेणं झाणे आप्पाणं वोसियमी" . यह प्रत्यक्षात कायोत्सर्ग करने के लिए मार्गदर्शन है। इसमे शरीर को स्थिर करके, मौन होकर,ध्यानपूर्वक आत्मा को शरीर से अलग करने को कहा है। परशरीर स्थिर करके मौन होकर बाद में यह ध्यान कैसे किया जाए इसके बारेमे प्रचलित सामायिक मे कोई मार्गदर्शन नही है। . ५) सामायिक में जब चार ध्यान का पाठ बोलते है, उसमे हम कहते हैं ,"ध्यान में मनवचन काया चलित हुई हो आर्तध्यान,रौद्रध्यान ध्याया हो,धर्मध्यान,शुक्लध्यान न ध्याया हो तस्समिच्छामि दुक्कडम्" । यह केवल कहना है,पर प्रत्यक्षात यह धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान सामायिक में कैसे करे इसके बारे में प्रचलित . १४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक में कोई मार्गदर्शन नही है। ६) अज्ञान वशात हमने सामायिक को ठीक से समझा नही। उसकी आत्मा हमने खो दी है। और खाली ढाँचे को पकडकर चल रहे हैं। हम आपको प्रचलित सामायिक मे लगनेवाली त्रुटियाँ टालकर और उसके ढाँचे में ही उसकी आत्मा डालकर एक सम्यक सामायिक की विधि देना चाहते है। ... ७) कई संतो के साथ चर्चा में ऐसा विचार व्यक्त हुआ कि, सामान्य आदमी को एकदम से ध्यान मे बिठाना मुश्किल है। शुरूशुरू मे उसे जाप,धर्मकथा,धर्मचर्चा, अनापूर्वी,भक्तामर,या स्वाध्याय ही ठीक है। पर सब मानते है कि ये शुरुशुरू के आलंबन है , साधन है। जैसे बच्चे को शुरू शुरू मे उँगली पकडकर चलना पडता है , वैसे ये साधन है। लेकिन बाद मे यह ऊँगली छोडकर उसे खुद अपने पैरों पर चलना चाहिए। सब गलती यही होती है ,एक तो हमने उसे गलत उँगली पक्रडवा दी और अब है के वो जिंदगीभर उँगली पकडकर ही चल रहा है । आगे जाकर अपने बल पर कैसे चले इसका उसे कोई मार्गदर्शन नही। .. . हम चाहते है कि,अनावश्यक आलंबनो का सहारा धर्मध्यान मे लेना ही गलत उँगली पकडवाना है। इस गलती के कारण असंख्य साधक जो आज इतनी श्रध्दा से सामायिक मे बैठते है,सालोसाल रोजाना सामायिक करते है। उनकी उर्जा साधना के सही मार्गपर नही जा रही । इसी कारण उनमे उतनी आध्यात्मिक प्रगति नही दिखाई पडती। इसके लिए गलत मार्गदर्शन ही कारणीभूत है। हम चाहते है कि, इस गलती को ठीक किया जाए , साधक को सही मार्गदर्शन मिले । उसके हाथमे सही उँगली दी जाए, जिससे बाद मे वह पूर्णतया खुद के पैरों पर बगैर सहारे ,खुद की साधना खुद करसके. १५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और यह साधना इतनीशुध्दशास्त्रीय और सहज है कि, इसे निष्ठापूर्वक करनेवाला साधक जरूर ही बहुत ज्यादा अध्यात्मिक प्रगति बहूत कम समयमे कर जाएगा । उसका जीवन बदलने लगेगा । इसका हमे शतप्रतिशत विश्वास है। यही एक व्रत नैया पार लगाने के लिए काफी है। कोई धर्मपंडित बननेकि जरूरत नही। इस साधना के साथ अगर अलग से स्वाध्याय करे ,धर्मशास्त्र जाने , तो सोने पे सुहागा है । पर वह अत्यावश्यक नही । क्योंकि सारे धर्मसूत्रोंका सार इस साधना के व्दारा आपतक पहूँच जाता है। तो आइए देखते है कैसे कर यह सामायिक का महान व्रत। ८) एक आदर्श सामायिक की विधि (समय-४८ मिनट) १) मन - प्रसन्न हो , मन मे शुभ भावना हो, संसार के सभी पदार्थों से निवृत्तिभाव धारण करे याने कि सामायिक के आवश्यक उपकरणो के अलाव किसी भी चीज को छुना तक नही। मिटटी,पानी पुष्प ,फल, धान्य, वनस्पति अग्नि आदि वस्तुओं से अलग रहे। २) उपकरण-१) आसन - एकपूट सूती या उनी आसन २) श्वेत मुखवास्त्रिका - अपनी अपनी परंपरा नुसार मुखवस्त्रिका का वापर कीजिए। ३) पूँजनी - अत्यावश्यक नही। पूँजनी न हो तो हलके साफ धुले हुये रूमाल आदि से भी भूमि को साफ कर सकते है। . . ४) धार्मिक किताबें - पाटियाँ अगर मुखोद्गत न . १६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो तो किताब रखें अन्यथा किताबों की भी जरूरत नही । "सामायिक समभाव की अपेक्षा रखता है। वह मुखवस्त्रिका, पूँजनी, विशिष्ट आसन आदि की अपेक्षा नही रखता। ये सब चीजे. 'समभाव के अभ्यास के साधनमात्र है। यदि ये चीजे समभाव के अभ्यास मे हमे उपयोगी न हो सकी तो परिग्रह मात्र है, आडंबर मात्र है ” । ( सामायिक सूत्र - उपाध्याय अमरमुनि) ३) स्थान पौषधशाला, उपाश्रय, स्थानक, घर या कोई भी शांत, एकांत तथा सुरक्षित स्थान । आभूषण न पहने, वस्त्र सीधे सादे स्वच्छ और ढीले ४) वस्त्र हो। तंग या कसकर वस्त्र न पहने । दैनंदिन गृहस्थी के वस्त्र न हो तो और भी अच्छा । श्वेत वस्त्र हो तो और भी अच्छा । - - ५) आसन पूँजनी से या स्वच्छ धुले रूमाल से भूमि को हल्के से साफ करके एक पूट उनी या सूती आसन बिछाकर अगर मुखवस्त्रिका प्रयोग करना चाहते हो, उसे मुहँपर बांधे | उसके बाद अगर साधु साध्वी हो तो उन्हे वंदना कर सामायिक ग्रहण करने की आज्ञा ले । अगर साधु साध्वी न हो तो पूर्व, उत्तर या इशान्य दिशा की ओर मुँह करके किसी भी सुलभआरामदायी आसन में बैठ जाइए | अगर पद्मासन या सिध्दासन में बैठ सकते हो और भी अच्छा पर वह सुलभ (comfortable) होना चाहिए । नही तो हमेशा की तरह सुखासन में बैठ जाइए - इसे पर्यकासन भी कहते । अगर किसीको शारिरीक बिमारियों की वजह से बैठनेमें तकलिफ हो तो वे कुर्सीपर भी बैठ सकते हैं । फिर दोनो हाथ जोडकर नमस्कार की स्थिति मे बैठो। अं) रीढ की हडडी बिलकुल सीधी रहे । १७. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब) पाँव से लेकर सिरतक पूरा शरीर शिथिल ( relax ) करो । क) पूरे शरीर की शिथिलता महसूस करो । ड) फिर ३ - ४ दीर्घश्वसन लेकर, आँखे मूंदकर, मन को स्थिर करके । ६) नवकार मंत्र कहिए ७) बाद में गुरु वंदना - निम्न हिंदी रूपांतरित अथवा तिखुत्तो का पाठ पूर्ण अर्थ समझकर कहिए । गुरु वंदना - बादमे - ८) इरियावहिया का पाठ (आलोचना सूत्र ) कहिए नीचे सारांश रूपमे हिंदी में दिया है । आते जाते दैनंदिन के कार्य मे, 66 "ज्ञानरूप, कल्याणरूप, मंगलरूप हो आप | मार्गदर्शक हे गुरू, देव रूप हो आप ॥ वंदन करता हूँ त्रिवार झुकाकर यह शीष । ज्ञान दर्शन चारित्र और मिले आपका आशीष || | ८८ दुख पहुँचाया हो जीवों को जाने या अनजाने में, दुष्कृत मिथ्या हो सकल आज के इस साधना मे । " ९) फिर नीचे दिया हुआ सामायिक संकल्प कीजिए या "करेमी भंते ” का पाठ पूर्ण अर्थ समझकर कहिए । राग व्देष तज, संकल्प कर, समता रस पान । एक मुहुर्त स्थिर हो करू कायोत्सर्ग का निधान || सुमौन एकाग्र ध्यान मे भुलू देहका भान । आत्म जीवन से हठाउँ कर्मोका व्यापार ॥ यह संकल्प करके बाद में ध्यान शुरू होता है । १८ " Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) कायोत्सर्ज तथा धर्मध्यान दाहिनी हथेली को बाएँ हथेली पर रखकर मौन हो जाए । आँखे बंद या अर्धोन्मिलित रखे। रीढ की हड्डी फिरसे सीधी करे । पाँव से लेकर सिरतक पूरे शरीर को शिथिल करे । बाद में ३-४ लंबी श्वास ले और छोडे । बाद में मनको आते जाते श्वास की तरफ देखने को कहिए । साँसजैसे नैसर्गिकरित्या आ रही है और जा रही है, उसको वैसेही देखतेरहना । श्वास के स्पर्श की अनुभूति लेना । मन को यही एक काम करने को कहना है कि, श्वास की तरफ देखता रहे, कोई विचार न करे । फिरभी मन मे विचार और उनके साथ विकार भी आएंगे। उन विचारों को तथा विकारों क साक्षीभाव से देखते जाइए विचारोंसे या विकारोंसे कोइ लडाइ नही, खाली साक्षीभाव रखना । धीरे धीरे मन श्वास पर केंद्रित होते हुए निर्विचार तथा निर्विकार होता जाएगा । मन मे एक अपूर्व शांति प्रकट होगी। करीबन १०-१५ मिनट इस क्रिया को दो । बाद मे मन का लक्ष श्वास से हटाकर आज्ञाचक्रपर यानेकि दोनो भृकुटियोंके बीच में केंद्रित करो । आँखें बंद या अर्धोन्मिलीत रखते हुए तीसरी आँख को दोनो भुकुटियों के बीचमे देखते जाइए। साक्षीभावके साथ मन को पुरी सावधानतासे समग्रता से तीसरी आँखपर एकाग्र कीजिए जैसे ही मन अच्छा एकाग्र हो गया, निर्विचार तथा निर्विकार हो गया उसी वक्त मनमे भावना १९ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाइएं" मै शरीर नही हूँ, मै आत्मा हूँ, मै चेतना हूँ। जो चेतना मुझमे है वैसी ही चेतना जगके सभी प्राणीमात्रोंमे है। चेतना के स्तर पर जगके सभीप्राणीमात्र एक समान है । चेतना के स्तर पर जगके सभी सजीव एक समान है | चेतना के स्तरपर मै और सभी जीव एक समान है। मैं शरीर नही हूँ। मै आत्मा हूँ। कर्मोकी निर्जरा करके, षडविकारोंकों दूर करके, राग द्वेष को जीतकर, यही आत्मा परमात्मा बनेगी । यही मेरा ध्येय है। मै शरीर नही हूँ मै आत्मा हूँ ।" ऐसा चिंतन करते हुए, धीरे धीरे अपने शरीर मे विचरण करते हुए चेतना के प्रवाह के बारे मे जागृत हो जाइए, हाथोंमें, उंगलियोंमे, पावोंमे पूरे शरीर मे जहाँ भी महसूस हो चेतना के प्रवाह को महसूस करते जाइए जैसे ही इस चेतना की अनुभूति होती है, तो महसूस कीजिए, सोचिए मैंयही चेतना हूँ। मैं शरीर नही हूँ । धीरे धीरे शरीर हलका होता जाएगा और चेतना के प्रवाह के प्रति आप अधिकाधिक सजग होते जाएंगें। तब भी सोचना यही चेतना मैं हूँ ऐसी चेतना जग के सभी प्राणियों मे है चेतना के स्तरपर हम सब समान है । धीरे धीरे शरीर हलेका लगते जाएगा, चेतना का प्रवाह बढता जाएगा, बाद मे ऐसा लगने लगता है कि, शरीर का कुछ हिस्सा लुप्त हो गया है, या पूरा शरीर लुप्त हो गया है । + इस अनुभूति का आनंद लेते हुए आप बैठे रहे स्थिर एकाग्र मौन । ऐसी अवस्था का वर्णन करते हुए सूत्रो मे कहा गया है, मा चिठठ्ह, मा जपह, मा चिन्तह किंवी जेण होई थिरो अप्पा अप्पामि रओ इणमेव परं हवे झाणं ॥ ૨૦ ( बृहद द्रव्य संग्रह - ५६) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ- हे श्रावक इस शरीर की कोइ हलचल न होने दे, कोइ जाप मत कर, कोइ विचार मत कर (अर्थात काया, वचन, और मन पूर्णत: स्थिर कर) जिससे आत्मा स्थिर होगा । अर्थात अपने स्वभाव मे रहेगा | इसतरह आत्मा आत्मामे ही स्थिर हो जाना सर्वश्रेष्ठ ध्यान है । यह हुआ कायोत्सर्ग ध्यान, धर्मध्यान बीच में एकाध बार आँख खोलकर समय का अंदाजा लो फिर लगे रहो ध्यान में । इस क्रिया को करीबन ३० मिनट दो । जैसे ही सामायिक का समय पूरा होने को आता है, फिर शरीर के प्रति सजग हो जाओ । ११) फिर समाप्ति सूत्र कहो ( एयस्स नवमस्स) या समाप्ति सूत्र का सारभूत अर्थ निम्नलिखित हिंदी मे कहो "आदेशवत् समभाव का पालन नही हुआ हो कभी प्रभो, इस साधना के दोष निष्फळ हो सभी । " १२ ) फिर एक बार नवकार मंत्र कहिए और उठ जाइए । ९) कुछ प्रश्न इस नये सामायिक के विधि के बारेमें प्रश्न १- ध्यान मे बैठने के बाद शुरूआत मे साँस की तरफ मन को एकाग्र करने से क्या लाभ ? उत्तर- श्वास एक बहुत ही आसान सा, सहज आलंबन है । यह हमारे प्राणोंसे भी जुड़ा है, इसलिए मनपर काबू पाकर अंतर्मन मे प्रवेश करने का यह एक महत्वपूर्ण आलंबन है । शुरू मे मन एकाग्र करने के लिए इससे आसानी होती है। इसमे हम मनको स्वाभाविकता से आते जाते श्वास की तरफ देखने को कहते है । २१. • Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस वक्त मन को यह भी कहते है कि हे मन तुझे केवल श्वास ही तरफ देखने का काम करना है और इसके अलावा कुछ भी काम नही करना। फिर भी मन मे विचार तो आएंगे, और विचारों के अनुसार विकार भी आएंगे। फिर हम मन को विचारोंसे दूर करके श्वास की तरफ लगाएंगे। इसतरह हम खुद ही खुद के विचारों को देखने लग जाते है याने उनके साक्षी बन जाते है। इसेही साक्षीभाव कहते है। साक्षीभावके कारण हम विचारोसे या विकारोंसे उलझते नही ,उनसे कोई लडाई नही, कोई दमन नही ,केवल देखते है। इससे मन धीरे धीरे निर्विचार तथा निर्विकार होते जाता है। हम विचारों का निरोध करने की कला सीख लेते है और एकाग्र होने लगते हैं। यही एकाग्रता ध्यान के लिए अत्यावश्यक है। प्रश्न २ - निर्विचार मन को आज्ञाचक्र पर एकाग्र करके बाद मन में विशिष्ट भावना लानेका क्या कारण है? .. उत्तर - यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण योगिक क्रिया है। ऐसा कहा गया है कि, आज्ञाचक्रपर मन को पूर्ण तया केंद्रित करके जैसी भावना मन मे लाते है , वैसी सिध्दी होती है। (यादृशी भावना यस्य सिध्दी भवती तादृशीतस्य)याने कि जब हम आज्ञाचक्र पर एकाग्र होकर मन मे भाव लाते है कि ,मै शरीर नही हूँ,मै आत्मा हूँ, चेतना हूँ, तो यह भाव बहुत प्रखरता से मन मे उतरता है । इसी अवस्था मे जब हम समता भाव मन मे लाते है तो ये भावनाएँ अपने चेतन मनसे (from concious mind)अचेतन मे (to subconcious mind)उतर जाती है। और अचेतन मन से ये भावनाए हमारे दैनदिन जीवन पर असर करने लग जाती है। जैसे दवाकी एक गोली या एक इंजेक्शन एक ही बार लेनेसे दिनभर उसका असर रहता है ,वैसे ही यह दो घडीकी ૨૨ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक हमारे चौबीसों घंटोपर असर करने लगती है। यह समताभाव हमारे नित्य प्रतिके व्यवहार में उतरने लगता है। हमारा जीवन बदलने लगता है । एक धार्मिक क्रांति घटित होने लगती है, और सामायिक का सही उददेश साध्य होने लगता है। प्रश्न ३ - इस नए सामायिक की विधि मे लोगरस और नमोत्थुणं ये दोनो अतिमहत्व की पाटियाँ कैसे नही? उत्तर - लोगस्स और नमोत्थुणं ये दोनो पाटियोंके बारे मे हमारे मन मे नितांत श्रध्दा है,क्योकिं उसमे चौबीस तीर्थकरोकी तथा नमोत्थुणंमे अरिहंतो की स्तुति की है । ये एक प्रकारकी प्रार्थनाएँ हैं । सामायिक एक ध्यान है । एक विशिष्ट समता का ध्यान | ध्यान मे प्रार्थना या स्तुति करना हमे उचित नही लगता । प्रार्थना किसी और वक्त जरूर कर सकते हैं पर ध्यान में नही । कहते है ध्यान करना और करते है स्तुति या प्रार्थना, तो उचित नही लगता। फिरभी कोई अति श्रध्दासे सामायिक के पहले, या अंत मे पूर्ण अर्थ समझकर कहे तो अच्छा ही है |वास्तविक सामायिकका ध्येय ही तो अरिहंत बनना है। वे ही तो हमारे आदर्श है। और उनके मार्गदर्शनसे ही तो हमे यह सामायिका का व्रत मिला है। इसलिए तो हम सामायिक के शुरू में और अंत मे नवकार मंत्र कहकर हम उन्हे भावभीनी वंदना देते है। सामायिक मे बारबार पाटिया दोहराने मे वक्त जाया न करते हमने अधिकाधिक समय अत्यंत महत्वपूर्ण क्रियाएँ कायोत्सर्ग और धर्मध्यान के लिए दिया है। यह सही तरीके से करने से ही अरिहंत सही मानोंमे प्रसन्न होंगे उसका असर उनकी स्तुति पाठसे भी अधिक होगा। अगर दो शिष्य है - एक गुरू के सदा गुण गाता रहता है दूसरा गुरू के प्रति पूर्ण श्रध्दा मनमे लिए हुए गुरू के बनाए हुए मार्गपर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे बढनेकी कोशिश दिलोजानसे करता है। तो सच्चे सुगुरू को कौन सा शिष्य अधिक पसंद होगा? दूसरा ही । - जैसे दिन रात नारायण नारायण जाप करनेवाले नारद से दिनभर कष्ट करनेवाला किसान जो दिन मे एकही बार नारायण का नाम लेता है, वही भगवान को ज्यादा प्रिय है। वैसे ही साधना मे प्रार्थना या स्तुति से ध्यानमार्ग का ही महत्ता अधिक है। प्रश्न ४ - सामायिक ४८ मिनट की ही क्यों ? उत्तर - सूत्रकारोंने सामान्य आदमी की मानसिक शक्ति का जरूर अभ्यास किया है। उनका निरीक्षण है कि, मनुष्य का मन किसी एक विचार मे, एक संकल्प में, एक भाव मे, एक ध्यान में, एक मुहूर्त से ज्यादा देर नही रह सकता। एक मुहूर्त(४८ मि.) के बाद विचारोंमे परिवर्तन आ जाएगा। इसलिए उन्होंने कहा है, "अंतोमुहुर्त काल चित्तसेगग्गया हवई झाणं" (आवश्यक मलयगिरी ४/४३) इसलिए सामायिक का समय एक मुहूर्त याने ४८ मिनट कहा गया है | अडतालीस मिनटसे एक सेकंद भी कम हो तो उसे अन्तमुहूर्त कहते है। १०) सामायिक से लाभ सामायिक को शिक्षाव्रत कहा है। इसका मतलब है इसे अभ्यासपूर्वक सीखना होगा । एक ही बार सामायिक करनेसे कोइ उपलब्धि नही होगी। जैसे कोई भी विषय बार बार दोहराने से हमे उसपर मास्टरी हो जाती है। वैसे ही सामायिक नित्यनियम से करने से.धीरे धीरे कुछ ૨૪ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनोंके बाद सही मानोंमे जमती जाएगी। एक बार सामायिक परिपूर्णता से आने लगी, ध्यान ठीक से लगने लगा, मन को एकाग्र करने की कला आ गई, शरीर मे विचारण करते चेतना की प्रचिती आने लगी, कायोत्सर्ग और समता की अनुभूति ठीक से आने लगी, फिर धीरे ध धीरे रोजाना सामायिक का हर पहलू आपको कुछ ना कुछ नयी अनुभूति देता जाएगा। आपका आध्यात्मिक अनुभव बढता जाएगा | आपके जीवन मे एक धार्मिक क्रांति घटित होना शुरू हो जाएगी। आपका जीवन बदलने लगेगा । रोजाना आज्ञाचक्र पर मन को साक्षीभावसे एकाग्र करके कायोत्सर्ग भाव, समता भाव मन मे लाने से ये भाव चेतन मन से (from concious mind) अचेतन मन मे (to subconcious mind) गहराई से उतरते जाएंगे । और धीरे धीरे ये भावनाएँ आपके व्यक्तित्व का हिस्सा होने लग जाएगी । व्यक्तित्व का हिस्सा बनी समता का असर अपने मन, वचन काया, कुटूंब दैनंदिन व्यवहार इन सबमे दिखाई देना शुरूहोगा । इस धर्माचरण का प्रतिबिंब हमारे नित्यप्रति के व्यवहाराचरण मेउतरना शुरू होगा । संक्षेप मे शुध्द और सत्य व्यवहार का नाम ही तो धर्म है जब हम समझते है कि, व्यवहार अलग बात है, व्यवहाराचरण धर्माचरण से सर्वथा अलग है। यही सबसे बड़ी गलती है । फिर यह धर्माचरण केवल एक पाखंडी कर्मकांड बन कर रहता है । और सच्ची सामायिक यह गलती होने ही नही देती । वह तुम्हारा धर्माचरण व्यवहार उतार के ही रहेगी । यह सामायिक की बहुत बडी उपलब्धि है । तो आइए देखते है इस सामायिक का, इस समता का हमारे मन वचन काया, कुटूंब और समाज पर क्या असर होता है । २५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ) मन- समता के कारण मन एक सखोल शांति का अनुभव सातत्य से करने लगता है। इसलिए तनाव (stress)कम होने लगता है। हमारी आत्मशक्ति बढने से कोई भी तनावपूर्ण स्थिति पैदा हो तो हम अपना संतुलन बिना खोए शांति,और धीरज के साथ उसका हल ढूँढकर उसका निवारण कर लेते हैं । सुख दुख दोनो मे हम स्थितप्रज्ञ होना सीख लेते हैं । साक्षीभाव के कारण हम काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर आदि विकारोंपर धीरे धीरे काबु पाना सीख लेते है। हर संकट का सामना हम आत्मशक्ति से करते है। और एक चिरस्थायी मानसिक शांती प्राप्त होने लगती है। ब- वचन - समता के कारण पैदा होनेवाले प्रेमभाव,मैत्रीभाव, करूणाभाव, माध्यस्थभाव आदि के कारण हमारे वचन,अपने आपही मृदु, प्रेमभरे , सौम्य , और शीतकारी बनने लगते है । . . क-काया मन और शरीर का गहरा संबंध है। मनशांति का असर हमे हमारे शरीरपर दिखाई देने लगता है । मनशांती से - शरीर की रोगप्रतिकार शक्ति बढ़ जाती है। जिससे छोटी मोटी बीमारियाँ आना कम हो जाता है। बहुत सारी बीमारीयाँ, जो मानसिक तनाव से पैदा होती है , जैसे हृदय विकार, ब्लडप्रेशर, पेप्टीक अल्सर , कुछ त्वचा विकार,अस्थमा, थॉयरॉइड,की बीमारियाँ इ. ये बीमारियाँ पहले से ही हो तो कम से कम दवाइयो मे नियंत्रण मे आ जाती है। और अगर ये बीमारियाँ न हो, तो भविष्य मे कभी निर्माण होने की संभावना कम हो जाती है। इसतरह समता से शरीर स्वास्थ का लाभ होता है। दूसरी बात - समता योगी समझता है कि, "शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम् "शरीर माध्यम है इसलिए समतायोगी कभी शरीर की तरफ दुर्लक्ष नही करेगा ,न कि शरीर से २६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घृणा करेगा, या शरीर को पीडा देगा, न कि शरीर को गंदा समझेगा, या दुर्बल बनाएगा । वह शरीर को आत्मा की सेवा मे लगाने हेतु स्वस्थ सशक्त और सक्षम रखेगा और उसी निरोगी शरीर के माध्यम से शरीर मे विराजीत आत्मदेवता को जानने पहचानने और विकसित करनेपर अधिक ध्यान देगा और इसतरह से प्राप्त शारीरिक और आध्यात्मिक दोनो शक्तियाँ आत्मप्रगति के साथ साथ सामाजिक उल्थान के लिए भी उपयोग में लायेगा । बेटे इ. ड - कुटुंब - समतायोगी घर में पिता, माता, भाई, बहन, बहू, सभी स्वजनों के साथ अत्मवत् व्यवहार करेगा । यदि कभी अज्ञान मोह या लोभ के कारण कोई पारिवारिक झगडा खडा होने की संभावना हो तो वह समभावसे अपना कर्तव्य सोचेगा और शांति से उसमे हल निकालने की कोशिश करेगा। परिवार जन्य भेदों को लेकर वह संघर्ष, झगडा आसक्ति या व्देष नही करेगा क्योंकि वह समझता है कि, ये भेद शरीर को लेकर बने है। आत्मा को लेकर नही । इसका मतलब ये भी नही कि समतायोगी निश्चेष्ट मूक उदासीन या तटस्थ होकर चुपचाप बैठ जाएगा। वह अपनी मर्यादा मे जो भी अच्छी प्रवृत्तियाँ होंगी उन्हे अधिकाधिक अच्छी तरह करेगा । उपनी क्षमतानुसार निर्वाह का जो भी साधन उसने अपनाया होगा। चाहे वह कोई व्यापारी हो, इंजीनीयर, या डॉक्टर हो, नोकरी करनेवाला हो या कोई दर्जी, चमार हो वह अपने कार्यमे उत्तमोत्तम होने की कोशिश करेगा । वह अपना काम हमेशा समता मे रहकर ज्यादा से ज्यादा समाजोपयोगी करेगा फ- समाज हर एक समता योगी चाहेगा, प्रयत्न करेगा कि मेरे जैसे सभी समतायोगी बने। सब समतायोगी अपना अपना काम ईमानदारी से निभाकर समाज का भला चाहेंगे । सामाजिक भेदों से २७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याने कि जातीयवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद राष्ट्र वाद, इनसे समतायोगी हमेशा दूर रहेंगे क्योंकि वे जानते हैं ये भेद शरीर से लेकर है, आत्मा से लेकर नही । इससे सामाजिक उत्थान को ही मदद होगी । ज- सामायिक और भौतिक लाभ सामायिक करके प्रतिफल मे किसी पदार्थ, ऐश्वर्य, वैभव, भोग, पुत्र, धन कीर्ति या राज्य ऐसे भौतिक लाभों की अभिलाषा रखना याने कि भगवान का दिया हुआ यह अमृत कलश कोडियों के दाम बेचने जैसा है । सामायिक कोइ भौतिक लाभ के लिए नही की जाती । सामायिक का सबसे महत्वपूर्ण लाभ है - आध्यात्मिक लाभ | तो देखते हैं, ह - सामायिक के अध्यात्मिक लाभ सामायिक का सबसे महत्व का लाभ है, अंतर्बाहय समता की प्राप्ति । यही समता हमारे जीवन मे आध्यात्मिक क्रांति की शुरूवात है । समता के कारण हमारा मन सभी जीवोंके प्रति प्रेमभावना और करुणासे भर जाता है । सब जीवोंसे एक मैत्रीभावना पैदा होती है। इस वजह से हम सही मानो मे अहिंसक बनने लग जाते हैं, हमें हितकारी सत्य बोलनेकी प्रेरणा मिलती है। अस्तेयता अपनेआप जीवन मे उतर जाती है । शरीर के सबंधित वस्तुए धन मकान स्त्री आदि के आकर्षण समतायोगी को कम प्रलोभित करते हैं। इस वजह से वह संयमी तथा अपरीग्रही बनने लगता है। साधक जब किसी दुखीपीडितों को देखता है। तो दया से भर जाता है और उन्हे शांति पहुँचाने के लिए प्रयत्न करता है इसतरह करूणभाव पैदा होत है। ૨૮ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब साधक किसी अयोग्य,कूर निंदक, विश्वासघाती निर्दयी कुकर्मी को देखता है ,तो भी उसके मनमे व्देष या क्रोध पैदा नही होता और वह उन्हे धर्मपथपर लाने की कोशिश करता है । और इस प्रयत्न मे भी वह असफल हुआ तो उसका मन उब्दिग्न नही होता इसतरह से साधक माध्यस्थ भावना को प्राप्त करता है। जब साधक किसी समताभावी धर्मात्मा को पहचान लेता है। तब उसका मन उनके प्रति आनंद प्रेम और श्रध्दासे भर जाता है। इस तरह से प्रमोदभावना पैदा होती है। जैसे जैसे साधक यह अनुभव करता जाएगा कि, मै शरीर नही हूँ। शरीर और शरीर को सुखमय लगनेवाली चीजे अनित्य है। आत्मा अविनाशी है , नित्य है, तो वह अनित्य भाव को प्राप्तकरेगा अपशब्दोंका, शस्त्रोंका प्रहार होने पर भी वह समता मे रहकर सोचेगा कि, आघात मेरे शरीरपर हो रहे है , आत्मापर नही । वह मृत्यु का स्वागत भी हँसते हँसते करता है। क्यो कि उसे पता है कि, फटे वस्त्र की तरह जीर्ण शरीर छूट रहा है। जब भी शरीर या मन, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, मत्सर आदि विकारों के चंगुल में फंसने लगता है। तब वह साक्षीभाव से सावध न होकर उनसे दूर रहने की और आत्मभाव मे रमण करने की कला सीख लेता है। इसतरह साधकधीरे धीरे षडरिपुओंपर काबू पाना सीख लेता है। इसतरह समतायोगी साधक धीरे धीरे अनंत शक्ति संपन्न आत्मा को जागृत एवम् विकसित करता है और समताभाव अंतर बाहय जीवनमे पूर्णतया अपनाने की कोशिश करते हुए धीरे धीरे अपने कर्मबंध नोंका क्षय करने लगता है। कर्मबंधनोंसे मुक्ति ही वास्तवमे परमात्मा बन जाना है। आत्मा को परमात्मा बनाने की क्रिया को ही २९ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक भाषामें योग कहते हैं। जैसे ऋण और धन दोनों विद्युत धाराएँ मिलकर अद्भुत विद्युत शक्ति निर्माण होती है और उसके द्वारा अनोखे कार्य संपन्न होते हैं। वैसे ही आत्मा परमात्मा को मिलने से(आत्मा परमात्मा बननेसे ) अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती है। इसकी अनुभूति केवल समता के शिखर पर पहुँचा हुआ साधक ही ले सकता है । ऐसा साधक एक देहातीत जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त करता है और अपने स्वभाव मे स्थिर हो जाता है। यही मोक्षप्राप्ति है। यही सामायिक का अंतिम ध्येय है। यही सामायिक का परमोच्च लाभ है। इसलिए भगवति सूत्र मे सामायिक क्या है ? इसका उत्तर इसी आध्यात्मिक भावना की अंतिम सीमा पर पहुंचकर किया गया है । उत्तर है "आया सामाइए,आया सामाइयस्स अटठे"। अर्थात - आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का-अर्थ (फल) है। ११) जैनेतर धर्मो मे समताभाव की मान्यता अ) भगवद् गीतामे समताभाव का महत्व वर्णन किया गया है। १) “समत्वंयोग उच्यते" - समता को योग कहते है। २) समं सर्वेषु भुतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। विनश्यत्स्वविनश्यतं यः पश्याति स पश्याति || १३-२८ अर्थात - सब जीवोंमे समभाव मे स्थित परमात्मा को जो देखता है, विनाशी चीजों मे अविनाशी परमात्मा को देखता है, वही सचमुच देखता है। ३० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३) विद्या विनय संपन्ने, बाघ्नणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिनः । ५-१८ अर्थात - जो विद्वान ,ब्राम्हण, गाय, हाथी, कुता तथा चांडाल इन सबको समदृष्टिसे देखता है वही महात्मा है वही ज्ञानीपुरूष है। ४) इहैव तैर्जित: सर्गोयेषांसाम्ये स्थितं मनः। निर्दोष हि समंब्रहनतस्माद्ब्रहमणितेस्थिताः॥५-१९ अर्थात - जिनका मन समतामे स्थित है, उन्होने जीते जी सारे संसार को जीत लिया अर्थात वे जीते जी इस संसार से मुक्त हो गए क्योंकि परमात्मा समतामे स्थित है। इसलिए वे उसी परमात्मा मे स्थित है ऐसा समझना चाहिए। ५) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योर्जुन । सुखं या यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः। ६-३२ अर्थात - ज्यो साधक आत्मवत् भावसे (समताभाव से ) सभी प्राणियों के सुख दुख को आत्मसम देखता है, वही परमयोगी माना गया है। ६) गीता के इस श्लोक मे सामायिक का विधी अप्रत्यक्ष रूपेण बताया गया है। शनै: शनै: रूपरेमदबुध्दया धृतिगृहितया ___ आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत ॥६-२५ अर्थात - धीरे धीरे निश्चयी और विवेक बुद्धि से मन को सब विषयोंसे निवृत्त करते हुए, मन को निर्विकार करके आत्मस्वरूप मे लीन हो जाइए। यही तो सामायिक है। ३१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुध्द धर्ममे समता भाव हालाँकि बुध्द धर्म मे आत्मा परमात्मा की मान्यता नही है । फिर भी बुध्द को सभी प्राणिमात्रोंमे समानता देखनेवाला उपदेशक कहा जाता है | भगवान बुध्द ने समता का ही प्रसार किया मानव मानव मे ही नही बल्कि मनुष्य और पशु इनकी विषमता का भी उन्होंने निषेध किया, और सब जीव समान है ऐसा उपदेश किया। इसतरह बुध्द समता के महान उपदेशक थे । ( भगवान बुध्द आणि त्यांची शिकवण - स्वामी विवेकानंद ) ख्रिश्चन धर्म मे समता भाव क) ईश्वरनिर्मित सृष्टि मे स्थित समताभाव आचरण मे लाने से सृष्टि शांतता से तथा आनंदसे भर जाएगी । यही येशु ख्रिस्त का आचरण विषयक सूत्र था । ड) वैदिक धर्म मे कायोत्सर्ग भाव जिस क्षण इंद्रिय याने के सर्वस्व नही, ऐसी साधक की धारणा पक्की होती है | जिस क्षण यह जड देह शाश्वत आत्मानंद के आगे कुछ भी नही, इसका उसे पता चलता है । उस क्षण से वह आत्मानंद का अनुभव पाने तक बेचैन हो उठता है । यह बेचैनी, यह तीव्र तृष्णा, यह उन्माद, इसेही धार्मिक जागृति कहते है और उसी वक्त आदमीके अध्यात्मिक जीवन को आरंभ होता है । ( आत्मसाक्षात्कार - साधना व सिध्दी - स्वामी विवेकानंद ) ૨ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) सामायिक एक वैश्विक साधना - एक साधना समुचे मानव जाति के लिए हमने यहाँ जो सामायिक की साधना विधि दी है, वह संपूर्ण मानवजाति के लिए है । जो भी आदमी नर से नारायण की ओर प्रवास करना चाहता है, उसके लिए सामायिक यह एक जलद रामबाण साधना है । यह साधना किसी धर्म, जात, पंथ या वंश तक ही सीमित नही। किसी भी धर्मपंथ का आदमी, जो जलद, इसी जन्म मे नैया पार करने की तीव्र प्यास दिल मे लिए हुए है। उसके लिए यह साधना उपयुक्त है। क्योंकि इस सामायिक की विधि में किसी धर्म या पंथ का नाम नही है । न किसी विशिष्ट भगवान का नाम है | इसमे न महावीर का नाम है, न ऋषभदेव का, न बुध्द का नाम है, न नानक का, न रामकृष्ण है न ब्रम्हा विष्णू । फिर भी ये सब महात्मा एक ही मंत्रोच्चारण मे आ गए है, वो है नवकार मंत्र (नमस्कार मंत्र) । जिसमे अरिहंतों को, सिध्दो 'को, आचार्यो को उपाध्याय को तथा सभी साधुसंतो को साधना के शुरू मे ही नमस्कार -वंदन किया जाता है । जग मे आज तक जो भी अरिहंत, सिध्द, आचार्य, उपाध्याय, या साधु बने भले वो किसी भी धर्मपंथ के हो उन सबको हम नमन करते है । इसलिए यह साधना समुचे मानवजाति के लिए है। किसी भी धर्मपंथ का आदमी इस साधना से विमुक्त हो सकता है । आत्मा से परमात्मा तक पहुँच सकता है । केवल श्रध्दा, लगन, साधना मे सातत्य, पूर्णता से सहभाग और मुक्ति की तीव्र प्यास आवश्यक है । ३३ **** Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३) सामायिक - सूत्र (मूल पाठ) नवकार मंत्र णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं णमो उवज्झयाणं 1 णमो लोएसव्वसाहूणं || एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो मंगलाच सव्वेसिं पढमं हवई मंगलं ॥ 1 गुरुवंदन का पाठ तिवखुतो, आयाहिणं पयाहिणं करेमि वन्दामि णमंसामि सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं मंगलं देवयं, चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण वन्दामि || तीन तत्व का पाठ अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं इय सम्मत्तं मए गहियं ॥ गुरुगुण का पाठ पंचिंदियसंवरणो, तहणवविह - बंभचेर गुत्तिधरो । चउब्विह- कसायमुक्को, अठ्ठारस गुणेहि संजुत्तो ||१|| पंच- महव्वय जुत्तो, पंच - विहायार पालण समत्यो । पंच-समिइ-तिगुत्तो, छत्तीस गुणो गुरू मज्झ ॥२॥ ३४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावहि का पाठे इच्छा कारेण संदिसह भगवं / इरियावहियं पडिक्कमामि, इच्छं इच्छामि पडिक्मिउंइरियावहियाए विराहणाए गमणगमणे पापक्कमपेबीयक्कममेहरीयक्कमपे,ओसा-उत्तिंग-पपग-दग-मट्टी-मक्कडा संताणा संकमणे / जे मे जीवा विराहिया, एगंदिया बेइन्दिया, तेइन्दिया, चउरिदिया, पंचिदिया, अभिहया वत्तिया लेसिया संघाइया, संघट्टिया, परियाविया किलामिया उद्दविया ठाणाओ ठाणं संकामिया जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छामि दुक्क्डं ||5|| तस्स उत्तरी का पाठ तस्स उत्तरी करणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहिकरणेणं, विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं,निग्घायणट्ठाए ठामि काउसगं, अन्नत्थ उसासिएणं, निससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डूएणं, वायणिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए ,सुहुमेहि अंगसंचालेहि, सुहुमेहि खेलसंचालेहि, सुहुमेहि दिट्ठिसंचालेहि, एवमाइए हिं आगारेहि अभग्गो, अविराहिओहुज्ज मे काउसगो, जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, णमोक्कारेणं, न पारेमि, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसरामि // चउवीसत्थव का पाठ लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे | अरिहंते कित्तेइस्सं, चउवीसंपि,केवली // 1 // उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइंच / पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वन्दे // 2 // 35 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहिं च पुप्फदंतं ,सीयल - सिज्जंस-वासुपुज्जं च / विमलमणंतं च जिणं धम्म संतिं च वंदामि ||3|| कुन्थु अरं च मल्लिं, वन्दे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च / वंदामि रिटेठनेमिं , पासंतह वद्धमाणं च ||4|| एवं मए अभित्थुआ,विहुयरयमला पहीणजरमरणा / चउवीसं पि जिणवरा , तित्थयरा मे पसीयतुं // 5 // कित्यि-वंदियमहिया , जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरूग्ग-वोहि लाभं , समाहिवरमुत्तम दिंतु // 6|| चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु||७|| सामायिक लेने का पाठ करेमि भन्ते / सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, जाव नियमं पज्जुवासामि, दुविहं, तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कामामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि // णमोत्थुणं का पाठ णमोत्थुणं अरिहंताणं भगवन्ताणं, आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुण्डरियाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोकपज्जोयगराणं, अभयदयाणं चक्द याणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मवर चाउरंतचक्कवटटीणं दीवोत्ताणं सरणगइपइट्ठाणं अप्पडिहयवरणाणंदंसणधराणं 26 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियट्टछरमाणं जिणाणं, जावयाणं तिण्णणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं, सव्वन्नूण सव्वदरिसीणं सिवमयलमरूअमणंत मक्खय मव्वाबाहमपुणरावित सिद्धिगइनामद्येयं ठाणं संपत्ताणंणमो जिणाणं जिय भयाणं / (दूसरे में) ठाणं संपाविउ कामाणं णमो जिणाणं जिय भयाणं.। (तीसरे में) णमोत्थुणं मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसयस्स अणेणगगुणसंजुत्तस्स जाव संपाविउकामस्स | सामयिक पारने का पाठ एयस्स नवमस्य सामाइयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायारियव्वा तं जहा - ते आलोउं, मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइ अकरणयाए, सामाइयस्स अणवठिठयस्स करणयाए, तस्स मिच्छमि दुक्कडं। सामाइयं सम्मं काएणं न फासियं, न पालियं, न सोहियं, न तीरियं, न किटिटयं, न आराहियं, आणांए अणुपालियं न भवइ, तस्स मिच्छमि दुक्कडं। पडिक्कमामि आहारसन्ना, भयसन्ना,मेहुणसन्ना, / परिग्गहसन्ना एयाचउसत्रा कया तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / पडिक्कमामि चउण्हं विकहा-इत्थिकहा, भत्त-कहा,देसकहा, रायकहा चउ विकहा कया तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / 37 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14) पारंपारिक सामायिक की विधि 1- धर्मस्थान तथा एकांत स्थान 2- भूमि को पूंजनी से साफ कर आसन बिछाना। 3- मुँहपत्ति मुँहपर बांधे। 4- फिर साधु साध्वीजी होवे तो उनको और वे न होवे तो पूर्व ___ उत्तर या ईशान दिशा की तरफ “गुरू वंदना' का पाठ कहते हुए तीन बार नमस्कार करे। 5- फिर बैठकर 6- प्रथम नवकार मंत्र 7- फिर तीन तत्व का पाठ 8- फिर गुरू गुण का पाठ 9- फिर इरियावहि का पाठ 10- फिर तस्स उत्तरी का पाठ 11- फिर कायोत्सर्ग करना कायोत्सर्ग मे मन मे इरिआवहि का पाठ कहना।उसमे मिच्छामि दुक्कडं नही देना / एक नवकार मंत्र कहकर कायोत्सर्ग पालना 12- फिर चार ध्यान का पाठ कहना। 13- फिर लोगस्स का पाठ कहना। 14- फिरसे साधुजी या साध्वीजी को या पूर्व, उत्तर या इशान दिशाकी तरफ मुँह करके भगवान को वंदना करना / 15- फिर करेमि भंते का पाठ कहना / 16- फिर दाए घुटने को नीचे दाब, बायाँ घुटना खडा रख, बैठकर दोनों हाथ जोड मस्तक पर चढा, दो वक्त नमोत्थुणं का पाठ 38 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहना। 17- फिर ज्ञान, ध्यान, व्याख्यान, श्रवण, धर्मपुस्तक पठनादि मे सामायिक का काल व्यतित करना / 18- सामायिक का काल खत्म होते ही सामायिक पालने की विधि करना वह इसप्रकार है। अ- इरिआवहि का पाठ ब तस्स उत्तरी का पाठ कायोत्सर्ग करना कायोत्सर्ग मे लोगस्स का पाठ कहना / एक नवकार मंत्र कहकर कायोत्सर्ग पालना। चार ध्यान का पाठ कहना। फिर लोगस्स का पाठ कहना। फिर दाया घुटना नीचे दबा बाया घुटना खडा कर बैठना हाथ जोड नमोत्थुणं दो बार पूरा कहना। सामायिक पारने का पाठ पूर्ण कहना। तीन नमोक्कार मंत्र कहना उठ जाना / - ญ ญ ! ซี 39 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अभिप्राय 1) प.पु. विनोदमुनि म .सा(अहमदनगर) सामायिक के संबन्ध मे आपने अपना चिन्तन-मनन प्रस्तुत किया।सामायिक का स्वरूप और विधि की प्रक्रिया का भी उल्लेख किया / यह एक अच्छी बात है / किसी भी बात को या विचार को मानने के पूर्व उसपर गहराई से चिन्तन-मनन करना तत्पश्चात उसे मान्यता देना और प्रयोग की भूमिपर उसे उतारना, यह एक बहुत सुंदर पध्दति है। सामायिक साधना जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। इसकी साधना से मनुष्य चरमोत्कर्ष की भूमिका को प्राप्त कर सकता है / जिन जिन महानोंने साध्य सिध्दी उपलब्ध की है वह इसी के द्वारा की है। सामायिक का मूल व उसका उपादान समत्व भाव मे ही है। यह आत्मा का निज गुण है, स्वाभाविक गुण है। आपने जो सामायिक की विधि लिखी है , वह प्रारंभिक स्थिति वालों के लिए उपयोगी है। लक्ष्य तो सहज सामायिक का हो / तभी आगे बढा जा सकेगा। आपने सामायिक को जानने समझने तथा उसे क्रियात्मक रूप देने का जो श्रम परिश्रम किया है , वह सुंदर है। अभ्यास करते जाइये और सामायिक साधना में निरंतर आगे से आगे बढते जाएं। यही हमारी मंगल भावना है। विनोदमुनि 40 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) शास्त्रज्ञ प. पू. श्री. गौतममुनि म.सा "प्रथम" गुरुभ्राता श्री. डॉ.सुभाष लुंकडजी एक सरलमना, सुयोग्य श्रावक रत्न है। आपके मन में एक अभिलाषा है, कि आत्मिक भावों में रमण करना है , तो शुध्द सामायिक की आवश्यकता है। . आपने जो सामायिक में अनुभूति की है उसे अपने शब्दोंमें जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे है। द्रव्य-भाव सामायिक का अर्थ आपने अपनी अनुभूति के द्वारा जाना और जनता भी जाने इस भावना से इस पुस्तिका द्वारा अपने भाव प्रस्तुत कर रहे है। द्रव्य और भाव दोनों सामायिक का अन्तर आपने लिखा है। आपकी यह कृति जन-जनमे प्रिय बने, प्रत्येक श्रमणोपासक द्रव्य सामायिक सें भाव सामायिक में रमण करे ऐसी मेरी शुभ कामनाएँ है। आपका गुरुप्रताप शि. गौतममुनि "प्रथम" 22/5/2001 सादडीसदन पुणे 41 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3) उपप्रवर्तक प. पू. श्री. सुरेशमुनि म.सा आदरणीय धर्मनिष्ठ, सुश्रावक डॉ. सुभाष लुंकडजी, आपने धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि का समन्वय सामायिक के रूप में करके अपने विचार प्रेषित किए। यह पढकर ऐसा लगा कि, यह लेखन शरीर को एक उर्जा प्रदान कर रहा है। शरीर में नई चेतना पैदा हो रही है। ___ जब इसका ध्यान के रूप में,मेडिटेशन के रूप में ,अंगीकार करेंगे तो शरीर मे एक अलग तरह की घटना घटने लगेगी। आप इसे आगे बढाएँ। आपका प्रयास सफल हो / ये अति उपयोगी सूत्र है। ये आपके विचार कई लोगों को नई दिशा देनेवाले है। इस भौतिकवादी जीवन मे ये सूत्र एक अमृत के समान काम करेगा। . - आपजगह जगह इस का प्रचार प्रसार करें। जगह जगह शिबिरों का आयोजन करें। ये जीवनके लिए अति महत्वपूर्ण है / ये आत्मा में शुध्द स्वरूप नई क्रांति के सूत्रपात है। मेरी यही कामना है कि, आप इसका विस्तार करें उपप्रवर्तक सुरेशमुनि 24/5/2001 लुंकड हॉस्पिटल,येरवडा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4) वाणीभूषण प.पू.श्री.प्रीतिसुधाजी म.सा डॉ. लुंकड ने भगवान महावीर के 'सामायिक' इस महत्वपूर्ण विषय पर गहरा चिंतन करके उसके मूल स्वरूप को कायम रखते हुए उसे सरल एवं सर्वोपयोगी बनाने का प्रयास किया है। जिंदगी के चढाव-उतार देखने के बाद संसार की असारता ध्यान में आ ही जाती है। सुख वस्तु से या व्यक्ती से मिल नही सकता ऐसा बोध हो जाने के बाद अपने आपमें झाकने का भाव जागृत होता है। अपने आपसे समझौता करने के लिए सर्व श्रेष्ठ उपाय है 'सामायिक'। बचपन से सिखाई गई या सुनी हुई सामायिक याने 48 मिनट की फॉरमेलिटी नहीं है, बल्कि समय से आत्मा का तालमेल बिठाने की एक श्रेष्ठ तम उपलब्धि है - जिंदगी की फलावरिंग है सामायिक एकांत मांगती है किन्तु अकेलापन महसूस नही होने देती। सामायिक सायन्स है, जीवन की कला का उत्कृष्ट विज्ञान है , ये अंधश्रध्दा का विषय नही है। इसे समझाने की डॉक्टर साहब ने पूरी कोशिश की है - एतदर्थ हर पाठक की ओर से तथा हम साध्वी मंडळ 15 की ओर से इनका जितना अभिवादन करे उतना कम है / - साध्वी प्रीतिसुधा 15 43 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5) प.पु.साध्वी श्रीअर्चनाजी म.सा श्री सुभाषजी सा- आपने सामायिक साधना के विषय पर मूल पाठ के साथमें रख जो सुंदर हिंदी में रूपांतरण करनेंका सहज प्रयास किया वह अति स्तुत्य हैं। साथमें व्यवहार सामायिक एवं निश्चय सामायिक को समझ उसके गहरे भाव जो दिये है वह भी अति सुंदर है। ___ आम जनता सामायिक को अभी तक ठीक से समझ न पायी। मात्र करते रहे। समझ न पाये कि, सामायिक का अर्थ क्या है, राज क्या है। उसे समझाने हेतु अपने डॉक्टरी व्यवसायसे भी समय निकालकर कडी लगन और मेहनत के साथ इस पुस्तिका का निर्माण किया अत: अति साधुवाद के पात्र है। इसीके साथ भविष्यमें आपसे इसी स्तुत्य उपक्रम की काफी अपेक्षाएँ रखते है। इन्ही मंगलमैत्री के साथ श्रमणी अर्चना 'मीरा',दापोडी 6) प.पु.साध्वी अनोखाकँवरजी म.सा (आ. नानालालजी म.सा.) सामायिक विषयक आपका पुरुषार्थ उत्तम एवं श्रेयस्कर है। कर्म निर्जरा का सुलभ उपाय है। मेरी दृष्टि से आपको आत्मीय भाव पर एक सुझाव है ,आपने जो प्रचलित सामायिक के दोषों का उल्लेख किया है, इसको गौण रखकर गुणात्मक सामायिक का प्रतिपादन करेंगे तो विशेष हितकारी, उपकारी, श्रेयस्कारी होगा | आपकी आत्मीय शोध के प्रति आकर्षण को बहुत बहुत धन्यवाद ! Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7) प्राचार्य श्री.शिवाजीराव भोसले डॉलुंकड यांनी केलेली सामायिक मीमांसा कौतुकास्पद आहे.शुध्द आत्मतत्वाचे ध्यान हाच खरा योग .पण हे ध्यान सहज करता येत नाही. त्याला कधी आर्तध्यानाची तर कधी रौद्रध्यानाची अवकळा येते. या ध्यान प्रक्रियेचे शुध्दिकरण घडावे व धर्मध्यानातून शुक्लध्यानात ते विकसित व्हावे ही अपेक्षा असते. कायोत्सर्ग व धर्मध्यान हाच साम्यवस्थेचा मार्ग आहे अशी डॉक्टरांची धारणा आहे.. पारंपरिक व प्रचलित सामयिक पध्दतीचा परामर्श घेउन , पंचमकालात वाढीस लागलेल्या काही त्रुटिंकडे डॉक्टर लुंकड यांनी लक्ष वेधले आहे. ही लहानशी पुस्तिका हा सामायिकाचा सुलभ अन्वयार्थ आहे. - शिवाजीराव भोसले फलटण Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन सभी जिज्ञासु साधकों को, धर्मप्रेमियों कों, विद्वज्जनों को तथा वंदनीय साधु-साध्वियों को नम्र निवेदन है कि, -- इस पुस्तिका के बारें में अपने अभिप्राय खुले दिल से लिखकर भेजें। इस साधना को और भी ज्यादा शास्त्रसंगत तथा और भी सुंदर कैसे बनाया जाएँ? इसके बारे में सुझाव भेजें। -- इस पद्धति से साधना करते हुए, कोई समस्या, शंका, अडचन या दिक्कत हो तो उसके समाधान के लिए आस-पास में जो भी साधु-साध्वी हो उनसे मार्गदर्शन लीजिए। अथवा इस पते पर पत्र व्यवहार कीजिए। - -पताडॉ.सुभाष लुंकड लुंकड हॉस्पिटल, A/3, इंदिरा पार्क, नगर रोड, येरवडा, पुणे-४११००६ दूरभाष 020-6683970 46 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभेच्छा सामायिक अनुभुति का विषय है, सामायिक के बारे में कितना ही लिख पाए, पूर्ण अभिव्यक्ति नही हो पाती। भाषा की अपनी सीमा होती है। सामायिक असीम का साक्षात्कार है। शुभेच्छक - श्रीमान बिरदीचंदजी, नेनसुखजी, पोपटलालजी बन्सीलालजी, केशरचंदजी, घनशाम-एवम् नवलखा परिवार, शिवाजी नगर, पुणे. सामायिक जीवन विमुखता नही - वरन् जीवन अभिमुख होकर जीने का मार्ग है। शुभेच्छक -लुंकड डेव्हलपर्स, पुणे चेतना की गति समय में है, इसलिए चेतना की गति ठहर जाने का नाम सामायिक है। शुभेच्छक -हिरालालजी पन्नालालजी लुंकड, पुणे सामायिक का अर्थ है स्वभाव में ठहर जाना / शुभेच्छक - श्री मीश्रीलालजी लोढा, कोथरुड, पुणे सामायिक का अर्थ है वर्तमान मे समता के साथ जिना। * शुभेच्छक - श्री विलासकुमार पालरेशा येरवडा "समता के साथ जिए जन-स्वर्ग धरापर आ जाए।" * शुभेच्छक - श्री विजयकुमारजी देसर्डा, जळगांव Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमापना निज पर का सब भेद भुलाके विश्व-भाव की ज्योति जगा ले। कटुता कल्मष, वैर भाव के, अंतर-मल को आज मिटा ले // हो जाए यदि भूल भाई से, आत्म-धर्म की भूल भ्रमों से | स्नेह-छांव फिर भी दे, उर लेक्षमापना का अमिय पिला दें। -उपाध्याय अमरमुनि धर्म न हिंदू बौद्ध है, सिक्ख न मुस्लिम जैन | धर्म चित की शुद्धता, धर्म शंति सुख चैन || सम्प्रदाय ना धर्म है, धर्म ना बने दिवार | धर्म सिखाये एकता, धर्म सिखाये प्यार ||