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उस वक्त मन को यह भी कहते है कि हे मन तुझे केवल श्वास ही तरफ देखने का काम करना है और इसके अलावा कुछ भी काम नही करना। फिर भी मन मे विचार तो आएंगे, और विचारों के अनुसार विकार भी आएंगे। फिर हम मन को विचारोंसे दूर करके श्वास की तरफ लगाएंगे। इसतरह हम खुद ही खुद के विचारों को देखने लग जाते है याने उनके साक्षी बन जाते है। इसेही साक्षीभाव कहते है। साक्षीभावके कारण हम विचारोसे या विकारोंसे उलझते नही ,उनसे कोई लडाई नही, कोई दमन नही ,केवल देखते है। इससे मन धीरे धीरे निर्विचार तथा निर्विकार होते जाता है। हम विचारों का निरोध करने की कला सीख लेते है और एकाग्र होने लगते हैं। यही एकाग्रता ध्यान के लिए अत्यावश्यक है। प्रश्न २ - निर्विचार मन को आज्ञाचक्र पर एकाग्र करके बाद मन में विशिष्ट भावना लानेका क्या कारण है? .. उत्तर - यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण योगिक क्रिया है। ऐसा कहा गया है कि, आज्ञाचक्रपर मन को पूर्ण तया केंद्रित करके जैसी भावना मन मे लाते है , वैसी सिध्दी होती है। (यादृशी भावना यस्य सिध्दी भवती तादृशीतस्य)याने कि जब हम आज्ञाचक्र पर एकाग्र होकर मन मे भाव लाते है कि ,मै शरीर नही हूँ,मै आत्मा हूँ, चेतना हूँ, तो यह भाव बहुत प्रखरता से मन मे उतरता है । इसी अवस्था मे जब हम समता भाव मन मे लाते है तो ये भावनाएँ अपने चेतन मनसे (from concious mind)अचेतन मे (to subconcious mind)उतर जाती है। और अचेतन मन से ये भावनाए हमारे दैनदिन जीवन पर असर करने लग जाती है। जैसे दवाकी एक गोली या एक इंजेक्शन एक ही बार लेनेसे दिनभर उसका असर रहता है ,वैसे ही यह दो घडीकी
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