________________
अर्थात - चित्तको अंतर्मुखी बनाकर, दृष्टि को नीचे की ओर नासाग्रपर स्थापित करके, सुखासनमें बैठना, तथा शरीर को सीधा रखना, ध्यानमुद्रा कहलाता है ।
ध्यान में मन को स्थिर करने के लिए अनेक प्रकार के आलंबन (सहारा) आवश्यक होते है ।
जैसे - श्वास, नासिका का अग्रभाग ह्रदय, मुख, नैन, नाभीकमल, ललाट, कर्ण, तालू, भौं, जीभ, मस्तक, इ. ये शरीर के ११ स्थानोंम से किसी एक पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है । तो धर्मध्यान की व्याख्या हम इसप्रकार कर सकते है ।
धर्मध्यान- "आत्मस्वरूप को समझने के लिए साक्षी भाव से मनको एकाग्र, निर्विचार तथा निर्विकार करना " |
धर्मध्यान मे चित्तवृत्ति मुख्यरूपसे आत्मोन्मुखी हो जाती है और आत्मदर्शनही जीवनका प्रमुख लक्ष्य बनता है ।
शुक्लध्यान - यह धर्मध्यान की अत्यंत विशुध्द तथा परमोच्च अवस्था है । " ध्यानानलेन दहयते कर्म:।" याने कि ध्यानरूपी अग्नि मे कर्मो का नाश होता है । जैसे जैसे आदमी धर्मध्यान करते जाएगा, वैसे वैसे समताभाव उसके अंतरबाहय जीवनमें उतरता जाएगा, वैसे वैसे -मन राग व्देषसे परे होता जाएगा और ध्यान मे शुध्द आत्मदर्शन होकर विशुध्द आत्मवृति प्रकट होगी । ऐसे पवित्र निर्मल ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं ॥
धर्मध्यान
१) यह चित्त विशुद्धि का प्रारंभिक अभ्यास है ।
२) धर्मध्यान मे बाहय साधनों का, आलंबनो का आधार होता है ।
९