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३) विद्या विनय संपन्ने, बाघ्नणे गवि हस्तिनि
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिनः । ५-१८ अर्थात - जो विद्वान ,ब्राम्हण, गाय, हाथी, कुता तथा चांडाल इन सबको समदृष्टिसे देखता है वही महात्मा है वही ज्ञानीपुरूष है। ४) इहैव तैर्जित: सर्गोयेषांसाम्ये स्थितं मनः।
निर्दोष हि समंब्रहनतस्माद्ब्रहमणितेस्थिताः॥५-१९ अर्थात - जिनका मन समतामे स्थित है, उन्होने जीते जी सारे संसार को जीत लिया अर्थात वे जीते जी इस संसार से मुक्त हो गए क्योंकि परमात्मा समतामे स्थित है। इसलिए वे उसी परमात्मा मे स्थित है ऐसा समझना चाहिए। ५) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योर्जुन ।
सुखं या यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः। ६-३२ अर्थात - ज्यो साधक आत्मवत् भावसे (समताभाव से ) सभी प्राणियों के सुख दुख को आत्मसम देखता है, वही परमयोगी माना गया है। ६) गीता के इस श्लोक मे सामायिक का विधी अप्रत्यक्ष रूपेण बताया गया है।
शनै: शनै: रूपरेमदबुध्दया धृतिगृहितया ___ आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत ॥६-२५ अर्थात - धीरे धीरे निश्चयी और विवेक बुद्धि से मन को सब विषयोंसे निवृत्त करते हुए, मन को निर्विकार करके आत्मस्वरूप मे लीन हो जाइए।
यही तो सामायिक है।
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