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। वे कहते हैं, "इर्यापथिक का पाठ ध्यान मे कहने के संबंध मे एक अडचन है कि जब एक बार ध्यान करने से पहले ही इर्यावहि सूत्र पढ लिया गया, तब उसे दुबारा ध्यान मे पढने की आवश्यकता क्या है? ध्यान तो चिंतन के लिए है। मिच्छामि दुक्कडं के लिए नही। एक बात और भी है ध्यान मे प्रार्थना या स्तुति नही की जाती । इस दृष्टि से लोगस्स के गाथा के अवशिष्ट तीन चरण ध्यान मे पढना उचित नहीं मालूम पड़ता क्योंकि वह प्रार्थना का भाग है।मनोविज्ञान के दृषट से भी ध्यान और खुले रूप मे पढने का कुछ अंतर होना चाहिए विद्वानों ने इस संबंध मे अधिक विचार करने की प्रार्थना है " (प्रकरण २७ - लोगस्स ध्यान-सामायिक सूत्र
__- उपाध्याय अमरमुनिजी) ४) कायोत्सर्ग के लिए ध्यान करना आवश्यक है। तस्स उत्तरी के पाठ के अंतमे हम कहते है "ताव कायं ठाणं,मोणेणं झाणे आप्पाणं वोसियमी" . यह प्रत्यक्षात कायोत्सर्ग करने के लिए मार्गदर्शन है। इसमे शरीर को स्थिर करके, मौन होकर,ध्यानपूर्वक आत्मा को शरीर से अलग करने को कहा है। परशरीर स्थिर करके मौन होकर बाद में यह ध्यान कैसे किया जाए इसके बारेमे प्रचलित सामायिक मे कोई मार्गदर्शन नही है। . ५) सामायिक में जब चार ध्यान का पाठ बोलते है, उसमे हम कहते हैं ,"ध्यान में मनवचन काया चलित हुई हो आर्तध्यान,रौद्रध्यान ध्याया हो,धर्मध्यान,शुक्लध्यान न ध्याया हो तस्समिच्छामि दुक्कडम्" । यह केवल कहना है,पर प्रत्यक्षात यह धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान सामायिक में कैसे करे इसके बारे में प्रचलित
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