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________________ हमे बोलना चाहिए । अर्थ से ही तो सही भाव हृदय में उतरेगा अन्यथा मुश्किल है। ढाई हजार साल पहले लोगों की जो बोलीभाषा थी उसी भाषा में इन पाटियोंकी रचना करने का सूत्रकारों के उद्देश के पीछे यही उपरोक्त भावना थी । पर अब अर्धमागधी बोली भाषा नही रही, उसका कुछ भी व्यावहारिक उपयोग नही रहा, इसलिए जैन पंडितों के तथा अभ्यासकों के अलावा इस भाषा का अभ्यास कोई नही करता इसलिए सामान्य आदमी को पाटियों के शब्दों का सही उच्चारण तथा सही अर्थ दोनो ही अगम्य लगते हैं। इसपर दो ही उपाय है - एक तो हम इन पाटियों का ठीकसे अर्थ समझकर उन्हे कहे या दूसरा उपाय यह है कि, हम उनका प्रचलित बोली भाषा में अनुवाद करें, जो सूत्रकारों ने ढाई हजार वर्ष पूर्व किया था । आज लाख समझाने के बावजूद, सभी सार्थ किताबे मौजूद होने के बावजूद, गुरूओं के बारबार समझाने के बावजूद, ९० प्रतिशत लोग सामायिक की पाटियाँ बिना अर्थ समझे कहते है। जो १० प्रतिशत पंडित अर्थ जानते है, उनमे से शायद ५० प्रतिशत ही सही मायने मे अर्थ जानते होंगे । अन्यथा एक एक शब्द का अलग अलग अर्थ निकालकर यह एक वादविवाद बन जाता है। तो हमे यह प्रशस्त लगता है कि सही जानकारोंने, गुरूओ ने, पाटिया को प्रचलित बोली भाषा में रूपांतरित करके श्रावकों को देना चाहिए। इसमे मूल को कही ठेस नही पहुँचती ना कि हम मूल को भूला देंगे। गीता के भाषांतर कई भाषाओमें हुए। फिर भी मूल गीता तो मूल स्वरूप में है ही। वैसे ही पाटियोंका भाषांतर १२
SR No.007120
Book TitleSamayik Ek Adhyatmik Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Lunkad
PublisherKalpana Lunkad
Publication Year2001
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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