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और अन्तरात्मा में समभाव न हो, राग-द्वेष की परिणति न्यूनतम न हो, तब तक उग्र-तप एवं दीर्घ जप आदि की साधना निरन्तर एवं कितनी ही क्यों न की जाए, उससे आत्मिक विशुध्दि और आत्मिक विकास नही हो सकता है। वस्तु वृत्या समग्र -व्रतों में "सामायिक" ही मुक्ति-प्राप्ति का प्रधान एवं अभिन्न अंग है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय प्रभृति एकादशव्रत इसी समभाव के द्वारा जीवित है, मूल्यवान है और अर्थवान् है। श्रावक जीवन में प्रतिदिन अभ्यास की दृष्टि से दो घडी तक यह सामायिक व्रत अंगीकृत किया जाता है और श्रमण जीवन में यह यावज्जीवन के लिए हरण कर लिया जाता है। "समता" लक्षण ही सामायिक का एक ऐसा विशिष्ट लक्षण है जिसमें समग्र लक्षण का सहजत: समावेश हो जाता है। समत्वयोग ही ध्यान साधना का मौलिक आधार है। जब मन समत्व की साधना में स्थिर एवं स्थित होगा, तभी साट कि ध्यान योग का अचिन्त्य आनंद प्राप्त कर सकेगा । इसलिए समभाव एवं ध्यान साधना का अन्योन्याश्रय संबंध है, ये दोनों एक दूसरे के पूरक ही नहीं है, अपितु घटक भी है। चित्त-वृत्ति का प्रशोधन, उदात्तीकरण एवं चेतना प्रकाश का केन्द्रीकरण यह सब ध्यान साधना के अन्तर्गत है। इसी दृष्टि से सामायिक साधना भी ध्यान योग का सर्वथा सक्षम पक्ष है। किंबहुना सामायिक आध यात्मिक अनुष्ठान है, पर-परिणति नही, किंतु आत्म-परिणति है, दुध्यनि का विर्सजन है, सुध्यान का प्रवर्तन है और मुक्ति प्राप्ति का अधिकार पत्र है। धर्मप्रिय सेवाशील डॉ. सुभाष जी लुंकड ने “सामायिक-एक आध यात्मिक प्रयोग" शीर्षक सत्कृति की रचना
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