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3000000000000000000
00000 * श्री सिद्धायनमः ॐ
प्रातः स्मरणीय न्यायाचार्य पूज्य पंडित गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा लिखित समाधिमरण पत्र पुंज
श्रुत पंचमी के उपलक्ष्य में भेट शास्त्र सभा में श्रवण करने, कराने योग्य ।
000000000000000000000000000000000000
8000000000000000000000000000000908
सिं० कस्तूरचन्द नायक,
जबलपूर ।
वीर नि० सं० २१६मूल्य भेदविज्ञान
प्रथमावत्ति १५००
द्वारा समाधि प्राप्ति इन ज्ञानमय पत्रों को स्वतः पढ़कर व दूसरों को पढ़ने । को देकर उपयोग में लाइये व व्यर्थ यहां वहां
डाल कर पाप के भागी न बनिये। 10000000000000000000000
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शुयशुद्धिपत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्धि प्रस्तावना ७ ९ उपदेश को उपदेशके, ग्रन्थ २ १० ज्योत ज्योति २ ११ मे तु समुल्लसति ये तु समुल्लसंति २ ११ पृथग्लक्षणाः पृथग्लक्षणा२ १६ ये मेरे भिन्न लक्षण ये जो भिन्न लक्षण वाले नाना भाव वाले नाना प्रकार के
भाव २ १७-१८ मेरे भाव परद्रव्य हैं परद्रव्य हैं । ३ ८ कहा है। कहा है३ ११ मप्पणे परिगहं तु मप्पणे णो परिगहंतु ४ १० छिज्जदु छिजदु वा ६ ८ ऐसा मरण ऐसे मरण ६ ९ मातास्तन मातास्तन्य ६ १३ मात्र भी अपेक्षा मात्र भी आप अपेक्षा ६ १६ करना है। अब उसी करना उचित है । तथा
ज्ञान शास्त्र उसी ज्ञान शस्त्र ७ ४ निमित्त बली तर्क निमित्ति को प्रधान
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द्वारा
मानने वाले तर्क द्वारा ९ ३ शरीर भी परद्रव्य है शरीर परद्रव्य है ९ १२ स्वयं को करना स्वयं को ही करना ९ १५ ही, है
ही है। ९ २०-२१ जाओ और बाह्य जाओ । बाहा १० ६ अभ्यंतर
आभ्यंतर १० ७ वृद्धिपूर्वक
बुद्धिपूर्वक १० १५ सास्वत
शास्वत १० १९ उपदेश कर उपदेश करना कि ११ ९ शतसः
शतशः १२ ३ करा देती है करा देता है १३ ८ अद्भुति उद्भूति १४ ४ वह अभी वह अभी १४ ७ प्रानुसंगिक आनुषंगिक १४ ९ कृषता कर कृशताकर १४ १२ चाहिये
चाहिये। १४ १३ अागमज्ञान ही प्रागमज्ञान की १४ १५ महत्
महान् १४ १७ यावान
यावान् १५ ७ बाह्म
बाह्य १५ ११ करना । यद्यपि करना यद्यपि
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( ३ )
१५ १६ क्षमा की प्रादुर्भूति क्षमा की अप्रादुर्भूति
१५ १७ कैसे व्यक्त है
कैसे व्यक्त हो । तत्वज्ञान, सो तो ये पत्र विद्वत्ता,
१५ १९ तो तत्वज्ञान सोतो १७५ ये विद्वत्ता,
१७ १४ कहा है ।
१८ १५ निवृत्ति
१८ २० इसके विना स्याद्वाद इसके विना, स्याद्वाद
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२३ १ वह
२३ २ हो जाते है ?
२३ ३ अध्यवसान में
२३ ११ क्षीणता यदि २३ २० ज्ञान जाने
१९ १० तावदेव
२१ ११ त्याग ही श्रेयोमार्ग
२२ १८ सत्ता परमार्थ की परमार्थ तत्व की
२४ १४ अतः अब तमो २६ ५ दुःखसीद
२८ ११ गर्दा करता, २८ १३ तभी संबंध हो ।
२९९ सूर
२९ १८ ततः इतो
कहा हैप्रवृत्ति
भावयेद्
त्याग है वहां श्रेयो मार्ग
वे
हो जाते हैं ?
अध्यवसान द्वारा क्षीणता यद्यपि ज्ञानी जाने ।
अतः अब दीपसे तमो
दुःखसीर
गर्हा करता है । संबंध न भी हो ।
शूर
तत इतो
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४२ १८-१९ समवशरण ४४ ७ गणेशप्रसाद वर्णी
ज्ञान
आपका शु. चिं.गणेशप्रसाद वर्णी पृथक् हो रहा है। स्वात्मानुभव
४६ ५ उठ रहा है ४६ ९ ब्रह्मानुभव
- निवेदन -
पाठक वृन्द !
कई एक कारणों से उपरिलिखित अशुद्धियां हो गई हैं उनको आप पढ़ने के पहिले शुद्ध करके पढ़ें। जिससे यथार्थ ज्ञान लाभ से वंचित न रहना पड़े।
शुद्ध ज्ञान प्राप्ति का इच्छुकसिं. कस्तूरचंद नायक
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|| श्रीवीतरागाय नमः ॥
प्रातः स्मरणीय परमपूज्य सर्व गुणालंकृत पंडितप्रवर श्री माननीय न्यायाचार्य पं. गणेशप्रसाद जी वर्णी के चरण कमलों में सादर समर्पित
1010101010180*
श्रद्धाञ्जलि
*500008000aner
गुरुवर्य ! इस अपार संसाररूपी जलनिधि में, क्रोधमानादिक कषायरूपी बलवती तरंगें, मोहरूपी मगरमच्छादिक जलचर एवं मिथ्यात्व कुदेवादिक रूपी बडवानल हैं, जिसमें से प्राणियों को तारने वाली दर्शनरूपी नौका के पतवार ! इस पंच परावर्तन संसाररूपी महागहन अंधकारमय अटवी में भटकने वाले प्राणियों को ज्ञानरूपी सूर्य ! चतुर्गति भ्रमणरूपी दुःखदावानल को चारित्ररूपी महामेघ ! कल्याणमंदिर की शांतिमय शिखर ! वर्तमान दुःखमय संसार
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के सर्वोपरि भावज्ञानी और निष्कारण जगत् के बंधु ! ऐसे आपके मेरुसदृश उत्तुंगगुणसंपन्न चरणकमलों को
संसार दुःख से भयभीत, श्रेयस्पद का इच्छुक, ह्रस्व अवगाहना का धारक, बालक स्पर्शकर पवित्र होना चाहता है । सो कठिन है। अतः दरसे ही भक्ति पूर्वक श्रद्धांजलि समर्पित करता है।
आशा है आप इस सेवक को चरणों की शरण में लेकर कृपादृष्टि रखकर कृतार्थ करेंगे।
"आपको मेरे सदृश हैं अनेक" "आप तो मेरे लिये हैं सुएक"
आपके चरण कमलों का भ्रमरमिती-ज्येष्ठ शुक्ला ) सि०कस्तरचंद नायक, पंचमी ।
जवाहरगंज, श्री. वीर. नि० सं० २४६४ )
जबलपूर ।
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ॐ श्री जिनायनमः
प्रस्तावना सुहृद् पाठक वृंद,
हम ऐसे अमूल्य ज्ञान रूपी हार को प्रकाशित कर रहे हैं जिसका गुंथन श्री शांतिगुणनिधि ज्ञानगुणाकर प्रातः स्मरणीय पूज्य पं. गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा हुआ है
गुरुवर्य ! आपकी चिरकाल की ज्ञान उपासना रूपी
वृक्ष से जो मधुर फल प्राप्त हुआ है वह अवश्यमेव जीवों के संसार रूपी आताप को दूर कर श्रेयस्पद प्राप्त कराने में समर्थ है।
सद्गुरो ! प्रार्थना है कि व्यक्तिगत के लिये लगाया हुआ ज्ञानरूपी वृक्ष से जो मधुरफल प्राप्त हुआ है जिसका कण २ जीवों को अपूर्व सुखास्पद है फिर क्या सर्व जीवों के हितार्थ ज्ञानरूपी बगीचा निर्माण किया जावे तो अद्वितीय शांति प्रदायक
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सच्चा पथप्रदर्शक अनुपम स्थान नहीं होगा ? अवश्यमेव होगा। अतः हमारा बारंबार नम्र निवेदन है कि हमारे पुण्योदय से जब तक इस नश्वर शरीर में ज्ञानमय ज्योति विद्यमान है तय तक अवश्यमेव दो शब्दरूपी अमररस अपने ज्ञानसिंधु से प्रदान करें ताकि हम सदृश अज्ञानी जीवों को थोड़ही में भेद विज्ञान ज्योति से अपना वास्तविक कल्याण मार्ग प्रगट होता रहे ऐसी मेरी हार्दिक भावना है और आशा करता हूं कि यह मेरी सच्ची भावना "कोयल का मधुर स्वर बसंतऋतु में आम्र मौर के निमित्त सदृश" आपको लिग्वने के लिये वाचाल करेगी।
विशेष कारण- उदासीन ब्र० मथुरालाल जी इन्दौर
वालों ने शांति सिंधु गजट में वर्णी मौजीलाल जी के समाधिलाभार्थ पत्रों को प्रकाशित किया ऐसे निमित्तभूत ब्रह्मचारी जी को कोटिशः धन्यवाद है कि जिनने मेरे उत्साह के लिये अपूर्व विगुल बजाई जिससे ज्ञान स्फूर्ति आत्मा में हुई।
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कारण में कारण- सिंघई कुंवरसेन जी दिवाकर सिवनी महोदय ने अहमदाबाद से वर्णी दीपचंद जी के समाधिलाभार्थ पत्र मंगाने में धर्म निमित्त उत्साह बतलाया है तथा इनके प्रकाशित कराने की भी प्रेरणा की है, जिसके लिये आपको कोटिशः धन्यवाद है।
हर्ष की बात- स्व० हजारीलाल जी के आत्मज
खूबचंद जी की धर्मपत्नी सौ. राधाबाई ने ५०० प्रतियां और स्व. चौधरी नंनेलाल जी की धर्मपत्नी खिलौना बाई ने २५० प्रतियां इन ज्ञानसुधामय पत्रों की छपा कर समाज हितार्थ वितरण कराने की उदारता दिखलाई है जो कि स्त्रीसमाज के लिये एक आदर्श कार्य है। आगामी अन्य महिलायें भी ऐसे महत् पुण्यकार्य के करने में अनुकरण करेंगी ऐसी आशा है अतः उपरोक्त बाईयों को कोटिशः धन्यवाद है।
हर्ष में हर्ष- उपरोक्त ज्ञानमय पत्रों की उपयोगिता
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देखकर स० सिं० छिकोड़ीलालजी के आत्मज स० सिं० दमड़ीलाल जी ने ५०० प्रतियां और श्रीयुत् लालचंद जी के आत्मज पन्नालाल जी ने २५० प्रतियां छपाकर और भो वितरण कराने की उदारता प्रगट की है अतः उपरोक्त महानुभाव विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। धर्म सहानुभूति- इन अनुपम ज्ञानपुंज पत्रों को
छपाने में पंडित शिखरचंद जी ने बहुत कुछ अपना अमूल्य समय व्यतीत किया है। जहां तहां श्लोकों का भी अर्थ लिखा है। इसके लिये
आपको भी कोटिशः धन्यवाद है। प्रबल इच्छा- जिस दिन से शांतिसिन्धु गजट में इन ज्ञानरत्न पत्रों को पढ़ा उसी दिन से भावज्ञान का हिंडोला मेरे हृदय में झूलता रहता है । भेद विज्ञान को प्रगट कर शरीरादिक परद्रव्यों में निष्पृहता, अपने स्वरूप में लीनता और कषायों की मंदता आदि गुणों की ओर आत्मा सतत् व्यापार करने की चेष्टा करता रहता है।
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अंतिम निवेदन- अंतमें निवेदन यह है कि जब
गृहस्थ व्रतों को धारण करते हुये अंत में सल्लेखना करते हैं और जिननें पूर्व में व्रत भी धारण नहीं किये यदि उन जीवों को भी मरण के समय समाधि का लाभ हो जावे तो वे अवश्य सद्गति को प्राप्त करते हैं । इसीलिये पूज्य पंडित जी ने उपरोक्त महानुभावों को लक्ष्यकर सर्व साधारण के कल्याण के लिये समाधिमरण का उपदेश दिया। परन्तु इस अमूल्य अनुपम उपदेश को मुनिश्रावक और सामान्य गृहस्थ भी, ज्ञान रहस्य मय शब्दों को पठनकर, अपना आत्म कल्याण कर सकते हैं तथा जिनको वर्तमान दुःखमय संसार में ऐसे महान भावज्ञानी पुरुष का दर्शन दुलभ हो अवश्य उनके रामवाण तुल्य अचूक ज्ञानोपदेश वचन पठनकर वास्तविक प्रत्यक्ष सुखामृत पान कर सकते हैं और अंत में समाधि का लाभ उठा सकते हैं।
अतः इस बालक की यही प्रबल इच्छा हुई कि ये पत्र छपाये जावें तो अवश्यमेव सर्व जीव चकोरों
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को मेरे समान पूज्य पंडित जी के मुखेन्दु से निकली हुई वाग्चन्द्रिका पान करते हुये ही तत्काल आल्हादित करेगी। ऐसी मुझे पूर्ण आशा है ।
___ अंत में एक बार उन्हीं सद्गुरु को प्रणाम कर यह प्रस्तावना पूर्ण करता हूं क्योंकि उनकी मूर्ति मेरे हृदय में सदा विराजमान रहती है।
प्रातः स्मरणीय ज्ञानशिरोमणि
पूज्य पं० जी का भक्त, कस्तूरचंद जैन नायक,
जबलपूर ।
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ॐ
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* श्री जिनाय नमः
ये पत्र स्व० उदासीन ब्र० मौजीलालजी सागर निवासी वालों के समाधिलाभार्थ उनके प्रत्युत्तर में पूज्य पं० गणेशप्रशादजी वर्णी के द्वारा लिखे गये हैं। एक एक पंक्ति में आत्मरसिकता झलक रही है । अतः जब कभी मन स्थिर हो शान्तिपूर्वक प्रत्येक वाक्य का परिशीलन करके उसके मंतव्य को हृदयंगत करना चाहिये । ( पत्र नहीं, ये मोक्षमार्ग में प्रवेश करने के लिये वास्तविक रत्न हैं ।)
पत्र नं. १
योग्य शिष्टाचार !
सत्यदान तो लोभ का त्याग है । और उसको मैं चारित्र का अंश मानता हूं । मूर्छा की
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( २ )
निवृत्ति ही चारित्र है । हमको द्रव्यत्याग में पुण्य बंध की ओर दृष्टि न देना चाहिये, किन्तु इस द्रव्यसे ममत्वनिवृत्तिद्वारा शुद्धोपयोगका वर्धक दान समझना चाहिये | वास्तविक तत्व ही निवृत्तिरूप है। जहां उभयपदार्थ का बंध है वही संसार है। और जहां दोनों वस्तु स्वकीय २ गुणपर्यायों में परिणमन करते हैं वही निवृत्ति है यही सिद्धांत है । कहा भी है- श्लोक - सिद्धांतोऽयमुदात्त चित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां । शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमज्योतिस्सदैवास्म्यहम् ॥ एते मे तु समुल्लसति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाः । स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥
अर्थ-यह सिद्धांत उदार चित्त और उदारचरित्रवाले मोक्षार्थियों को सेवन करना चाहिये कि मैं एक ही शुद्ध (कर्मरहित) चैतन्य स्वरूप परम ज्योतिबाला सदैव हूं । तथा ये मेरे भिन्नलक्षणवाले नाना भाव प्रगट होते हैं । वे मैं नहीं हूं क्योंकि वे संपूर्ण मेरे भाव परद्रव्य हैं ।
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इस श्लोक का भाव इतना सुन्दर और रुचिकर है जो हृदय में आते ही संसारका अाताप कहां जाता है पता नहीं लगता। आप जहां तक हो अब इस समय शारीरिक अवस्था की ओर दृष्टि न देकर निजात्मा की ओर लक्ष्य देकर उसीके स्वास्थ्य की
औषधिका प्रयत्न करना। शरीर परद्रव्य है, उसकी कोई भी अवस्था हो उसका ज्ञाता दृष्टा ही रहना। सो ही समयसार में कहा है।
- गाथा - "को णाम भणिज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं ॥ अप्पाणमप्पणे परिगहंतु णियदं वियाणंतो॥ भावार्थ-यह परद्रव्य मेरा है ऐसा ज्ञानी पंडित नहीं कह सकता। क्योंकि ज्ञानी जीव तो आत्मा को ही स्वकीय परिग्रह मानता या समझता है ।
यद्यपि विजातीयदो द्रव्यों से मनुष्य पर्याय की उत्पत्ति हुई है किन्तु विजातीय २ दो द्रव्य मिलकर सुधाहरिद्रावत् एकरूप नहीं परिणमे हैं। वहां तो वर्णगुण दोनों का एकरूप परिणमना कोई आपत्ति जनक नहीं है किन्तु यहां पर एक चेतन और अन्य
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( ४ )
अचेतन द्रव्य हैं । इनका एकरूप परिणमना न्याय प्रतिकूल है । पुल के निमित्त को प्राप्त होकर आत्मा रागादिकरूप परिणम जाता है । फिरभी रागादिक भाव औदयिक हैं अतः बंधजनक हैं आत्मा को दुःख जनक हैं अतः हेय हैं परंतु शरीर का परिणमन आत्मा से भिन्न हैं । अतः न वह हेय है और न वह उपादेय है । इसही को समयसार में श्री महर्षि कुंदकुंदाचार्य ने निर्जराधिकार में लिखा है ।
-
गाथा
विज्जदु भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं ॥ जम्हा तम्हा गच्छदु तहवि गहु परिग्गहो मज्झ ॥
( अर्थ - यह शरीर छिद जावो अथवा भिदजावो अथवा निर्जरा को प्राप्त हो जावो अथवा नाश हो जावो जैसे तैसे हो जावो तो भी यह मेरा परिग्रह नहीं है । )
इसीसे सम्यग्दृष्टी के परद्रव्य के नानाप्रकार के परिणमन होते हुवे भी हर्ष विषाद नहीं होता । अतः आपको भी इस समय शरीर की क्षीण अवस्था होते हुवे कोई भी विकल्प न कर तटस्थ ही रहना हितकर है
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चरणानुयोग में जो परद्रव्यों को शुभाशुभ में निमित्तत्व की अपेक्षा हेयोपादेय की व्यवस्था की है। वह अल्प प्रज्ञके अर्थ है। आप तो विज्ञ है। अध्यवसान को ही बंधका जनक समझ उसीके त्याग की भावना करना और निरंतर " एगो मे सासदो आदा णाणदंसणलक्षणो” अर्थात् ज्ञानदर्शनात्मक जो प्रात्मा है वही उपादेय है। शेष जो बाह्य पदार्थ हैं वे मेरे नहीं हैं।
मरण क्या वस्तु है ? आयुके निषेक पूर्ण होने पर मनुष्य पर्याय का वियोग तथा आयुके सद्भाव में पर्यायका संबंध सो ही जीवन । अब देखिये जैसे जिस मंदिर में हम निवास करते हैं उसके सद्भाव असद्भाव में हमको किसी प्रकार का हानिलाभ नहीं, तब क्यों हर्ष विषाद कर अपने पवित्र भावों को कलुषित किया जावे । जैसे कि कहा है।
- श्लोक - प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं सत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ॥ अस्यातो मरणंन किंचिद् भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥
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(अर्थ-प्राणों के नाश को मरण कहते हैं। और प्राण इस आत्मा का ज्ञान है। वह ज्ञान सत् रूप स्वयं ही नित्य होने के कारण कभी नहीं नष्ट होता है । अतः इस आत्मा का कुछ भी मरण नहीं है तो फिर ज्ञानी को मरण का भय कहां से हो सकता है। वह ज्ञानी स्वयं निःशङ्क होकर निरंतर स्वाभाविक ज्ञान को सदा प्राप्त करता है।)
इस प्रकार आप सानन्द ऐसा मरण का प्रयास करना जो परंपरा मातास्तन पान से बच जावो! इतना सुन्दर अवसर हस्तगत हुवा है, अवश्य इससे लाभ लेना।
मात्मा ही कल्याण का मंदिर है अतः परपदार्थों की किंचित् मात्र भी अपेक्षा न करें। अब पुस्तक द्वारा ज्ञानाभ्यास करने की आवश्यकता नहीं। अब तो पर्याय में घोर परिश्रम कर स्वरूप के अर्थ मोक्षमार्ग का अभ्यास करना है। अब उसी ज्ञान शास्त्र को रागद्वेषशत्रुओं के ऊपर निपात करने की आवश्यकता है। यह कार्य न तो उपदेष्टा का है और न समाधिमरण में सहायक पंडितों का है । अयतो
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अन्य कथाओं के श्रवण करने में समय को न देकर उस शत्रु सेना के पराजय करने में सावधान होकर यत्न पर हो जावो।
यद्यपि निमित्त बली तर्क द्वारा बहुतसी आपत्ति इस विषय में ला सकते हैं। फिर भी कार्य करना अंत में तो आपही का कर्तव्य होगा। अतः जब तक आपकी चेतना सावधान है, निरंतर स्वात्मस्वरूप चिंतवन में लगादो ।
श्री परमेष्ठीका भी स्मरण करो किन्तु ज्ञायक की ओर ही लक्ष्य रखना क्योंकि मैं "ज्ञाता दृष्टा" हूं, ज्ञेय भिन्न हैं, उसमें इष्टानिष्ट विकल्प न हो यही पुरुषार्थ करना और अंतरंग में मूर्छा न करना तथा रागादिक भावों को तथा उसके वक्ताओं को दूरही से त्यागना। मुझे आनंद इस बात का है कि आप निःशल्य हैं। यही आपके कल्याण की परमौषधि है।
॥ इति ॥
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6930
पत्र नं.२
Gece:ee:geeed महाशय योग्य शिष्टाचार
आपके शरीर की अवस्था प्रत्यहं क्षीण हो रही है । इसका ह्रास होना स्वाभाविक है। इसके ह्रास
और वृद्धि से हमारा कोई घात नहीं, क्योंकि आपने निरंतर ज्ञानाभ्यास किया है अतः आप इसे स्वयं जानते हैं अथवा मान भी लो शरीर के शैथिल्य से तद् अवयवभूत इंद्रियादिक भी शिथिल होजाती हैं तथा द्रव्येंद्रिय के विकृत भाव से भावेन्द्रिय स्वकीय कार्य करने में समर्थ नहीं होती है किन्तु मोहनीय उपशम जन्य सम्यक्त्व की इसमें क्या विराधना हुई। मनुष्य शयन करता है उसकाल जाग्रत अवस्था के सदृश ज्ञान नहीं रहता किन्तु जो सम्यग्दर्शन गुण संसार का अंतक है उसका अांशिक भी घात नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन माना है जहां केवल तैजस कार्माण शरीर और उत्तर कालीन शरीर की पूर्णता भी नहीं तथा आहारादि वर्गणा के अभाव में भी सम्यग्दर्शन का सद्भाव
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रहता है। अतः आप इस बात की रंचमात्र प्राकुलता न करें कि हमारा शरीर क्षीण हो रहा है क्योंकि शरीर भी पर द्रव्य है उसके संबंध से जो कोई कार्य होने वाला है वह हो अथवा न हो परंतु जो वस्तु मात्मा ही से समन्वित है उसकी क्षति करने वाला कोई नहीं, उसकी रक्षा है तो संसार तट समीप ही है। विशेष बात यह है कि चरणानुयोग की पद्धति से समाधि के अर्थ बाहा संयोग अच्छे होना विधेय है किन्तु परमार्थ दृष्टि से निज प्रवलतम श्रद्धान ही कार्य कर है। आप जानते हैं कि कितने ही प्रबल ज्ञानियों का समागम रहे किन्तु समाधिकर्ता को उनके उपदेश श्रवणकर विचार तो स्वयं को करना पड़ेगा। जो मैं एक हूं चैतन्य हूं रागादिक शून्य हूं यह जो सामग्री देख रहा हूं पर जन्य है, हेय है, उपादेश निज ही, है परमात्मा के गुणगान से परमात्मा द्वारा परमात्म पद की प्राप्ति नहीं किन्तु परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलने से ही उस पद का लाभ निश्चित है अतः सर्व प्रकार के झंझटों को छोड़कर भाई साहब ! अब तो केवल बीतराग निर्दिष्ट पथ पर ही आभ्यंतर परिणाम से आरूढ़ हो जाओ और बाह्य त्याग की वहीं तक मर्यादा है जहां तक निज भाव में बाधा न पहुंचे । अपने परिणामों के परिणमन
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( १० ) को देखकर ही त्याग करना क्योंकि जैन सिद्धांत में सत्य पथ मूर्छा त्याग वाले को ही होता है अतः जो जन्म भर मोक्षमार्ग का अध्ययन किया उसके फलका समय है इसे सावधानतया उपयोग में लाना। यदि कोई महानुभाव अंत में दिगंबर पद की सम्मति देवे तब अपनी अभ्यंतर विचारधारा से कार्य लेना। वास्तव में अंतरंग वृद्धिपूर्वक मूर्छा न हो तभी उस पद के पात्र बनना। इसका भी खेद न करना कि हम शक्तिहीन हो गये अन्यथा अच्छी तरह से यह कार्य सम्पन्न करते । हीन शक्ति शरीर की दुर्बलता है। आभ्यंतर श्रद्धा में दुर्बलता न हो। अतः निरंतर यही भावना रखना। " एगोमेसासदो आदाणाण दंसण लक्षणो सेमामे बाहिरा भावा सब्वे मंजोग लकावणा" (अर्थ-एक मेरी सास्वतात्मा ज्ञान दर्शन लक्षणमयी है शेष जो बाहिरी भाव है वे मेरे नहीं हैं, सर्व संयोगी भाव हैं।")
अतः जहां तक बने स्वयं आप समाधान पूर्वक अन्य को समाधि का उपदेश कर समाधिस्थ आत्मा अनंत शक्तिशाली है तब यह कौन सा विशिष्ट कार्य है । वह तो उन शत्रुओं का चूर्ण कर देता है जो अनंत संसार के कारण हैं। इति
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පපය: කපපපපපශු
पत्र नं.३ ieee:ee:geeos
इस संसार समुद्र में गोते खाने वाले जीवों को केवल जिनागम ही नौका है। उसका जिन भव्य प्राणियों ने आश्रय लिया है वे अवश्य एक दिन पार होंगे। आपने लिखा कि हम मोक्ष मार्ग प्रकाश की दो प्रति भेजते हैं सो स्वीकार करना, भला ऐसा कौन होगा जो इसे स्वीकार न करे। कोई तीव्र कषायी ही ऐसी उत्तम वस्तु अनंगीकार करे तो करे परंतु हमतो शतसः धन्यवाद देते हुये आपकी भेंट को स्वीकार करते हैं। परंतु क्या करें निरंतर इसी चिन्ता में रहते हैं कि कब ऐसा शुभ समय आवे जो वास्तव में हम इसके पात्र हों अभी हम इसके पात्र नहीं हुये अन्यथा तुच्छ सी तुच्छ बातों में नाना कल्पनायें करते हुये दुखी न होते । अब भाई साहब जहां तक बनें हमारा और आपका मुख्य कर्तव्य रागादिक के दूर करने का ही निरंतर रहना चाहिये। क्योंकि आगम ज्ञान और श्रद्धा से बिना संयतत्व भाव के मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं अतः सब प्रयत्न
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का यही सार होना चाहिये जो रागादिक भावों का अस्तित्व आत्मा में न रहे । ज्ञान वस्तु का परिचय करा देती है अर्थात् अज्ञान निवृत्ति ज्ञान का फल है किन्तु ज्ञान का फल उपेक्षा नहीं, उपेक्षाफल चारित्र का है। ज्ञान में भारोप से वह फल कहा जाता है जन्म भर मोक्ष मार्ग विषयक ज्ञान संपादन किया अब एकबार उपयोग में लाकर उसे प्रास्वाद लो आज कल चरणानुयोग का अभिप्राय लोगों ने पर वस्तु के त्याग और ग्रहण में ही समझ रक्खा है सो नहीं। चरणानुयोग का मुख्य प्रयोजन तो स्वकीय रागादि के मेंटने का है परंतु वह पर वस्तु के संबंध से होते हैं अर्थात् पर वस्तु उसका नो कर्म होती है अतः उसको त्याग करते हैं मेरा उपयोग अब इन वाह वस्तुओं के संबंध से भयभीत रहता है । मैं तो किसी के समागम की अभिलाषा नहीं करता हूं। आपको भी सम्मति देता हूं कि सब से ममत्व हटाने की चेष्टा करो यही पार होने की नौका है जब परमें ममत्व भाव घटेगा तब स्वयमेव निराश्रय अहंबुद्धि घट जावेगी क्योंकि ममत्व और अहंकार का अविनाभावी संबंध है एक के बिना अन्य नहीं रहता। बाईजी के बाद मैंने देखा कि अब तो स्वतंत्र है
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दान में सुख होता होगा इसे करके देखू ६०००) रुपया मेरे पास था सर्व त्याग कर दिया परंतु कुछ भी शांतिका अंश न पाया। उपवासादिक करके शांति न मिली, पर की निंदा और आत्मप्रशंसा से भी आनंद का अंकुर न हुआ भोजनादि की प्रक्रिया से भी लेश शांति को न पाया। अतः यही निश्चय किया कि रागादिक गये बिना शांति की अद्भूति नहीं अतः सर्व व्यापार उसी के निवारण में लगा देना ही शांति का उपाय है वाग्जाल के लिखने से कुछ भी सार नहीं।
॥ इति ॥
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( १४ )
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पत्र नं. ४
८
मैं यदि अन्तरङ्ग से विचार करता तो जैसा आप लिखते हैं मैं उसका पात्र नहीं, क्योंकि पात्रता का नियामक कुशलता ताका अभाव है । वह अभी कोसों दूर है। हां यह अवश्य है यदि योग्य प्रयास किया जावेगा तब दुर्लभ भी नहीं, वक्तृत्वादि गुण तो आनुसंगिक हैं । श्रेयोमार्ग की सन्निकटता जहां जहां होती है वह वस्तु पूज्य है अतः हम और आप को बाह्य वस्तु जातमें मूर्छा की कृषताकर आत्म तत्त्व को उत्कर्ष बनाना चाहिये । ग्रन्थाभ्यास का प्रयोजन केवल ज्ञानार्जन ही तक अवसान नहीं होता साथ ही में पर पदार्थों से उपेक्षा होनी चाहिये आगमज्ञान ही प्राप्ति और है किन्तु उसकी उपयोगिता का फल और ही है। मिश्री की प्राप्ति और स्वादुता में महत अन्तर है यदि स्वाद का अनुभव न हुआ तब मिश्री पदार्थ का मिलना केवल अन्धे की लालटेन के सदृश है अतः अब यावान पुरुषार्थ है वह इसी में afear होकर लगादेना ही श्रेयस्कर है । जो आगम
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( १५ ) ज्ञान के साथ २ उपेक्षा रूप स्वाद का लाभ हो जावे। आप जानते ही हैं मेरी प्रकृति अस्थिर है तथा प्रसिद्ध हैं परंतु जो अर्जित कर्म है उनका फल तो मुझे ही चरखना पड़ेगा अतः कुछ भी विषाद नहीं।
विषाद इस बात का है जो वास्तविक आत्म तत्व का घातक है उसकी उपक्षीणता नहीं होती। उसके अर्थ निरंतर प्रयास है। बाह्म पदार्थ का छोड़ना कोई कठिन नहीं। किन्तु यह नियम नहीं क्योंकि अध्यवसान के कारण छूटकर भी अध्यवसान की उत्पत्ति अन्तस्तल वासना से होती है। उस वासना के विरुद्ध शस्त्र चलाकर उसका निपात करना । यद्यपि उपाय निर्दिष्ट किया है। परंतु फिर भी वह क्या है केवल शब्दों की सुन्दरता को छोड़कर गम्य नहीं। दृष्टांत तो स्पष्ट है अग्निजन्य उष्णता जो जल में है उसकी भिन्नता तो दृष्टि विषय है। यहां तो क्रोध से जो क्षमा की प्रादुर्भूति है वह यावत् क्रोध न जावे तब तक कैसे व्यक्त है । ऊपर से क्रोध न करना क्षमा का साधक नहीं। प्राशय में वह न रहे यही तो कठिन बात है। रहा उपाय तो तत्वज्ञान सो तो हम आप सर्व जानते ही हैं किन्तु फिर भी कुछ गूढ़ रहस्य है जो महानुभावों के समागम की अपेक्षा रखता है,
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यदि वह न मिले तब आत्मा ही प्रात्मा है उसकी सेवा करना ही उत्तम है उसकी सेवा क्या है "ज्ञाता दृष्टा" और जो कुछ अतिरिक्त है वह विकृत जानना।
॥ इति ॥
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maSaaaaaaaam DB श्री जिनाय नमः
UEDIOSERau ये पत्र स्व० उदासीन ब्र. दीपचंद जी वर्णी के समाधिलाभार्थ उनके प्रत्युत्तर में पूज्य पं० गणेश प्रसाद जी वर्णी के द्वारा लिखे गये हैं। उपरोक्त पत्रों से ये विद्वत्ता, भावपूर्ण, सारगर्भित और विशेष ज्ञान ज्योति के जाग्रत करने वाले हैं।
गाचचचचचार
पत्र नं. १
लालजलाचचचचचचार श्रीमान् वर्णी जी-योग्य इच्छाकार !
पत्र न देने का कारण उपेक्षा नहीं किन्तु अयोग्यता है। मैं जब अंतरङ्ग से विचार करता हूं तो उपदेश देने की कथा तो दूर रही। अभी मैं सुनने
और बांचने का भी पात्र नहीं। वचन चतुरता से किसी को मोहित कर लेना पाण्डित्य का परिचायक नहीं। श्री कुंदकुंदाचार्य ने कहा है।
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( १८ ) किं काहदि वणवासो कायकिलेमोविचित्त उववासो॥ अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ॥ अर्थ-समता के बिना वननिवास और काय क्लेश तथा नाना उपवास तथा अध्ययन मौन अादि कोई उपयोगी नहीं। अतः इन बाह्य साधनों का मोह व्यर्थ ही है। दीनता और स्वकार्य में अतत्परता ही मोक्षमार्ग का घातक है । जहां तक हो इस पराधीनता के भावों का उच्छेद करना ही हमारा ध्येय होना चाहिये। विशेष कुछ समझ नहीं आता। भीतर बहुत कुछ इच्छा लिग्वन की होती है परंतु जब स्वकीय वास्तविक दशापर दृष्टि जाती है तब अश्रुधारा का प्रवाह बहने लगता है। हा अात्मन् ! तूने यह मानव पर्याय को पाकर भी निजतत्व की
ओर लक्ष्य नहीं दिया। केवल इन बाह्य पंचेद्रिय विषयों की निवृत्ति में ही संतोष मानकर संसार को क्या अपने स्वरूप का अपहरण करके भी लज्जित न हुआ।
तद्विषयक अभिलाषा की अनुत्पत्ति ही चारित्र है। मोक्षमार्ग में संवरतत्व ही मुख्य है। निर्जरा तत्व की महिमा इसके बिना स्याद्वाद शून्यागम अथवा जीवन शन्य शरीर अथवा नेत्रहीन मुख की
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( १९ ) तरह है। अतः जिन जीवों को मोक्ष रुचता है उनका यही मुख्य ध्येय होना चाहिये कि जो अभिलाषाओं के उत्पादक चरणानुयोगों की पद्धति प्रतिपादित साधनों की ओर लक्ष्य स्थिर कर निरंतर स्वात्मोत्थ सुखामृत के अभिलाषी होकर रागादि शत्रुओं की प्रबल सेना का विध्वंस करने में भागीरथ प्रयत्न कर जन्म सार्थक किया जावे किन्तु व्यर्थ न जावे इसमें यत्नपर होना चाहिये । कहांतक प्रयत्न करना उचित है ? जहांतक पूर्ण ज्ञान की पूर्णता न होय । “ तावदेव भेद विज्ञान मिदमच्छिन्न धारया । यावत्तावत्पराव्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितम् ॥” (अर्थ-तब तक ही यह भेद विज्ञान अखंडधारा से है कि जब तक परद्रव्य से रहित होकर ज्ञान ज्ञानमें (अपने स्वरूपमें) ठहरता है।
क्योंकि सिद्धि का मूलमंत्र भेद विज्ञान ही है। वही श्री आत्मतत्व रसास्वादी अमृतचंद्र सूरिने कहा है“भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ॥ तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥"
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( २० ) अर्थ-जो कोई भी सिद्ध हुये हैं वे भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुये हैं और जो कोई बंधे हैं वे भेदविज्ञान के न होने से ही बंध को प्राप्त हुये हैं।
अतः अब इन परनिमित्तक श्रेयोमार्ग की प्राप्ति के प्रयत्न में समयका उपयोग न करके स्वावलंबन की ओर दृष्टि ही इस जर्जरावस्था में महती उपयोगिनी रामवाण तुल्य अचूक औषधि है । तदुक्तम् - इतो न किंचित् परतो न किंचित् यतो यतो यामि ततो न किंचित् ॥ विचार्य पश्यामि जगन्न किंचित् स्वात्मावबोधादधिकं न किंचित् ॥ अर्थ-इस तरफ कुछ नहीं है और दूसरी तरफ भी कुछ नहीं है तथा जहां जहां मैं जाता हूं वहां वहां भी कुछ नहीं है । विचार करके देखता हूं तो यह संसार भी कुछ नहीं है। स्वकीय आत्मज्ञान से बढ़कर कोई नहीं है।
इसका भाव विचार स्वावलंबन का शरण ही संसारबंधन के मोचन का मुख्य उपाय है। मेरी तो यह श्रद्धा है जो संवर ही सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का मूल है।
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( २१ ) मिथ्यात्वकी अनुत्पत्तिका नाम ही तो सम्यग्दर्शन है। और अज्ञान की अनुत्पत्तिका नाम सम्यग्ज्ञान तथा रागादिक की अनुत्पत्ति यथारव्यात चारित्र और योगानुत्पत्ति ही परम यथारव्यात चारित्र है । अतः संवर ही दर्शनज्ञानचारित्राराधना के व्यपदेश को प्राप्त करता है तथा इसी का नाम तप है । क्योंकि इच्छा निरोध का नाम ही तप है।
मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जो इच्छाका न होना ही तप है। अतः तप आराधना भी यही है। इस प्रकार संवर ही चार आराधना है अतः जहां पर से श्रेयोमार्ग की आकांक्षाका त्याग ही श्रेयोमार्ग है।
अापका शु. चिं.गणेशप्रसाद वर्णी
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( २२ )
पत्र नं. २
श्रीयुत महानुभाव पं. दीपचंद जी वर्णीइच्छाकार ! कारणकूट अनुकूल के असद्भाव में पा नहीं दे सका । क्षमा करना आपने जो पत्र लिखा वास्तविक पदार्थ ऐसा ही है। अब हमें आवश्यकता इस बात की है कि प्रभू के उपदेश के अनुकूल प्रभू की पूर्वावस्थावत् आचरण द्वारा प्रभुइव प्रभुता के पात्र हो जावें यद्यपि अध्यवसान भाव पर निमित्तक हैं । यथान जातु रागादिनिमित्त भावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः ॥ तस्मिन् निमित्तं पर संग एव वस्तु स्वभावोऽयमुदति तावत् ॥ आत्मा, प्रात्मा संबंधी रागादिक की उत्पत्ति में स्वयं कदाचित् निमित्तता को प्राप्त नहीं होता है अर्थात् आत्मा स्वकीय रागादिक के उत्पन्न होने में अपने आप निमित्त कारण नहीं है किन्तु उनके होने में परवस्तु ही निमित्त है जैसे अर्ककान्त मणि स्वयं अग्निरूप नहीं परणमता है किन्तु सूर्य किरण उस परिणमन में कारण है। तथापिसत्ता परमार्थ की
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( २३ ) गवेषणा में वह निमित्त क्या बलात्कार अध्यवसान भाव के उत्पादक हो जाते है ? नहीं; किन्तु हम स्वयं अध्यवसान में उन्हें विषय करते हैं। जब ऐसी वस्तु मर्यादा है। तर पुरुषार्थकर उस संसार जनक भावों के नाश का उद्यम करना ही हम लोगों को इष्ट होना चाहिये । चरणानुयोग की पद्धति में निमित्त की मुख्यता से व्याख्यान होता है। और अध्यात्म शास्त्र में पुरुषार्थ की मुख्यता और उपादान की मुख्यता से व्याख्यान पद्धति है। और प्रायः हमें इसी परिपाटी का अनुसरण करना ही विशेष फलप्रद होगा । शरीर की क्षीणता यदि तत्त्वज्ञान में बाह्यदृष्टि से कुछ बाधक है तथापि सम्यग्ज्ञानियों की प्रवृत्ति में उतना बाधक नहीं हो सकती। यदि वेदना की अनुभूति में विपरीतता की कणिका न हो तब मेरी समझ में हमारी ज्ञान चेतना की कोई क्षति नहीं हैं।
विशेष नहीं लिख सका। आजकल यहां मलेरिया का प्रकोप है। प्रायः बहुत से इसके लक्ष्य हो चुके हैं। आप लोगों की अनुकंपा से मैं अभी तक तो कोई आपत्ति का पात्र नहीं हुअा। कल की दिव्य ज्ञान जाने अवकाश पाकर विशेष पत्र लिखने की चेष्टा करूंगा।
प्रा. शु. चिं.गणेशप्रसाद वर्णी.
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( २४ )
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० पत्र नं. ३
श्रीयुत महाशय दीपचंद जी वर्णी-योग्य इच्छाकार ! आपका पत्र आया । आपके पत्र से मुझे हर्ष होता है और आपको मेरे पत्र से हर्ष होता है । यह केवल मोहज परिणाम की वासना है । आपके साहस ने आपमें अपूर्व स्फूर्ति उत्पन्न कर दी है । यही स्फूर्ति आपको संसार यातनाओं से मुक्त करेगी । कहने और लिखने और वाक् चातुर्य में मोक्ष मार्ग नहीं । मोक्षमार्ग का अंकुर तो अंतःकरण से निज पदार्थ में ही उदय होता है । उसे यह परजन्य मन, बचन, काय क्या जानें। यह तो पुद्गल द्रव्य के विलास हैं जहां पर इन पुद्गल की पर्यायों ने ही नाना प्रकार के नाटक दिखाकर उस ज्ञाता दृष्टा को इस संसार चक्र का पात्र बना रक्खा है । अतः अब तमोराशि को भेदकर और चन्द्र से परपदार्थ जन्य ताप को शमन कर सुधा समुद्र में अवगाहन कर वास्तविक सच्चिदानंद होने की योग्यता के पात्र बनिये । वह पात्रता आपमें है । केवल साहस करने का विलंब है । अब इस अनादि संसार जननी कायरता को- दग्ध करने से
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( २५) ही कार्य सिद्धि होगी। निरन्तर चिन्ता करने से क्या लाभ- लाभ तो आभ्यन्तर विशुद्धि से है। विशुद्धि का प्रयोजन भेद ज्ञान है। भेद ज्ञान का कारण निरन्तर अध्यात्मग्रन्थों की चिन्तना है। अतः इम दशा में परमात्म प्रकाशग्रन्थ आपको अत्यन्त उपयोगी होगा। उपयोग सरल रीति से इस ग्रन्थ में संलग्न होजाता है। उपक्षीण काय में विशेष परिश्रम करना स्वास्थ्य का बाधक होता है अतः आप सानन्द निराकुलता पूर्वक धर्मध्यान में अपना समय यापन कीजिये। शरीर की दशा तो अब क्षीण सन्मुख हो रही है। जो दशा आपकी है वही प्रायः सर्व की है। परंतु कोई भीतर से दुःखी है तो कोई बाह्य से दुःखी है। आपको शारीरिक व्याधि है जो वास्तव में अघाति कर्म असाताकर्म जन्य हैं । वह आत्मगुण घातक नहीं। आभ्यंतर व्याधि मोह जन्य होती है। जोकि आत्म गुण घातक है। अतः आप मेरी सम्मति अनुसार वास्तविक दुःख के पात्र नहीं-अतः आपको अब बड़ी प्रसन्नता इस तत्त्व की होनी चाहिये जो मैं आभ्यंतर रोग से मुक्त हूं।
मा. शु. चिं. गणेशपसाद वर्णी.
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( २६ )
पं. छोटेलाल से दर्शन विशुद्धि । भाई सा० एक धर्मात्मा और साहसी वीर हैं उनकी परिचर्या करना वैयावृत्य तप है । जो निर्जरा का हेतु है । हमारा इतना शुभोदय नहीं जो इतने धीर वीर वरवीर दुग्वसीद बन्धु की सेवा कर सकें ।
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( २७ )
पत्र नं. ४
बरुत्रासागर (झांसी) श्रीयुत् वर्णी जी-योग्य इच्छाकार
पत्र मिला मैं बराबर आपकी स्मृति रखता हूं किन्तु ठीक पता न होने से पत्र न दे सका। क्षमा करना । पैदल यात्रा श्राप धर्मात्मात्रों के प्रसाद तथा पार्श्वनाथ प्रभु के चरण प्रसाद से बहुत ही उत्तम भावों से हुई। मार्ग में अपूर्व शांति रही। कंटक भी नहीं लगा। तथा प्राभ्यन्तर की भी अशान्ति नहीं हुई। किसी दिन तो १९ मील तक चला । खेद इस बात का रहा कि श्राप और बाबा जी साथ में न रहे। यदि रहते तो वास्तविक आनंद रहता । इतना पुण्य कहां-बन्धुवर ? श्राप श्री मोक्षमार्ग प्रकाश और समाधिशतक समयसार का ही स्वाध्याय करिये । और विशेष त्याग के विकल्प में न पड़िये । केवल क्षमादिक परिणामों के द्वारा ही वास्तविक आत्मा का हित होता है । काय कोई वस्तु नहीं तथा पापही स्वयं कृश हो रही है। उसका क्या विकल्प । भोजन स्वयमेव न्यून होगया है जो कारण बाधक है आप
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( २८ ) बुद्धिपूर्वक स्वयं त्याग रहे हैं। मेरी तो यही भावना है- प्रभु पार्श्वनाथ आपकी आत्माको इस बंधन के तोड़ने में अपूर्व सामर्थ्य दें। आपके पत्र से आपके भावों की निर्मलता का अनुमान होता है । स्वतंत्र भाव ही आत्म कल्याण का मूल मंत्र है। क्योंकि आत्मा वास्तविक दृष्टि से तो सदा शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव वाला है। कर्म कलंक से ही मलीन हो रहा है। सो इसके पृथक् करने की जो विधि है उस पर आप आरूढ़ हैं। बाह्य क्रिया की त्रुटि अात्म परिणाम का बाधक नहीं और न मानना ही चाहिये । सम्यग्दृष्टि जो निन्दा तथा गर्दा करता, वह अशुद्धोपयोग की है न कि मन, वचन, काय के व्यापार की। इस पर्याय में हमारा आपका तभी संबंध हो । परंतु मुझे अभी विश्वास है कि हम और आप जन्मान्तर में अवश्य मिलेंगे। अपने स्वास्थ्य संबंधी समाचार अवश्य एक मास में १ वार दिया करेंमेरी आपके भाई से दर्शन विशुद्धि ।
चैत्र सुदी १ संवत् १९९३
प्रा. शु. चिं. गणेशप्रसाद वर्णी
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( २९ ) बालबाट
पत्र नं.५
श्रीयुत पं. दीपचंद जी धर्मरत्न-इच्छामि ।
पत्र पढ़कर सन्तोष हुअा। तथा आपका अभिप्राय जितनी मण्डली थी सबको श्रावण प्रत्यक्ष करा दिया। सर्व लोक अापके आंशिक रत्नत्रय की भूरिशः प्रसंशा करते हैं।
__आपने जो पं. भूधरदास जी की कविता लिखी सो ठीक है। परन्तु यह कविता आपके ऊपर नहीं घटती। श्राप सूर हैं। देहकी दशा जैसी कविता में कवि ने प्रतिपादित की है तदनुरूप ही है परन्तु इसमें हमारा क्या घात हुआ? यह हमारी बुद्धिगोचर नहीं हुा । घट के घात से दीपक का घात नहीं होता। पदार्थ का परिचायक ज्ञान है। अतः ज्ञान में ऐसी अवस्था शरीर की प्रतिभासित होती है एतावत् क्या ज्ञान तद्रूप हो गया।
- श्लोक - पूर्णेकाच्युत शुद्ध बोध महिमा बोधो न बोध्यादयम् ॥ पायाकामपि विक्रियां ततः इतो दीपः प्रकाश्यादपि॥
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( ३० ) तद्वस्तुस्थिति बोध बन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो॥ रागद्वेषमपि भवन्ति सहजा मुंवत्युदासीनताम् ॥
पूर्ण अद्वितीय नहीं च्युत है शुद्ध बोध की महिमा जाकी ऐसा जो बोध है वह कभी भी बोध्य पदार्थ के निमित्त से प्रकाश्य (घटादि) पदार्थ से प्रदीप की तरह कोई भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता है। इस मर्यादा विषयक बोध से जिसकी बुद्धि बन्ध्या है वे अज्ञानी हैं। वे ही रागद्वेषादिक के पात्र होते हैं और स्वाभाविक जो उदासीनता है उसे त्याग देते हैं। आप बिज्ञ है कभी भी इस असत्य भाव को आलम्बन न देवेंगे । अनेकानेक मर चुके तथा मरते हैं और मरेंगे। इससे क्या आया। एक दिन हमारी भी पर्याय चली जावेगी । इसमें कौनसी आश्चर्य की घटना है इसका तो आपसे विज्ञ पुरुषों को विचार कोटि से प्रथक् रखना ही श्रेयस्कर है। जो यह वेदना असाता के उदय आदि कारण कूट होने पर उत्पन्न हुई और हमारे ज्ञान में आयी । क्या वस्तु है ? परमार्थ से विचारा जाय तो यह एक तरह से सुख गुण में विकृति हुई वह हमारे ध्यान में आयी । उसे हम नहीं चाहते । इसमें कौन सी विपरीतता हुई । विपरीतता तो जब होती है जब हम उसे निज
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( ३१ ) मानलेते। विकारज परिणति को प्रथक् करना अप्रशस्त नहीं, अप्रशस्तता तो यदि हम उसी का निरंतर चितवन करते रहें और निजत्व को विस्मरण हो जावें तब है।
अतः जितनी भी अनिष्ट सामग्री मिले, मिलने दो। उसके प्रति आदर भाव से व्यवहार कर ऋण मोचन पुरुष की तरह आनंद से साधु की तरह प्रस्थान करना चाहिये । निदान को छोड़कर आतंभय षष्ठम् गुणस्थान तक होते हैं। दूसरे क्या वह गुणस्थान पलायमान हो गया। थोड़े समय तक अर्जित कर्म आया, फल देकर चला गया। अच्छा हुआ आकर हलकापन कर गया । रोग का निकलना ही अच्छा है। मेरी सम्मति में निकलना, रहने की अपेक्षा प्रशस्त है। इसी प्रकार आपकी असाता यदि शरीर की जीर्ण शीर्ण अवस्था कर निकल रही है तब आप को बहुत ही आनंद मानना चाहिये । अन्यथा यदि वह अभी न निकलती। तब क्या स्वर्ग में निकलती? मेरी दृष्टि में केवल असाता ही नहीं निकल रही साथ ही मोह की अरति आदि प्रकृतियां भी निकल रही हैं। क्योंकि आप इस असाता को सुख पूर्वक भोग रहे हैं। शांति पूर्वक कर्मों के रस को भोगना आगामी दुखकर नहीं।
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( ३२ )
बहुत कुछ लिखना चाहता हूं परंतु ज्ञान की न्यूनता से लेखनी रुक जाती है । बन्धवर ? मैं एक बात की आपसे जिज्ञासा करता हूं जितने लिखने वाले और कथन करने वाले तथा कथन कर बाहा चरणानुयोग के अनुकूल प्रवृत्ति करनेवाले तथा आर्ष वाक्यों पर श्रद्धालु यावत् व्यक्ति हुये हैं । अथवा हैं तथा होंगे । क्या सर्व ही मोक्ष मार्गी हैं ? मेरी तो श्रद्धा नहीं । अन्यथा श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने लिखा है । हे प्रभो ! " हमारे शत्रु को भी द्रव्यलिंग न हो" इस वाक्य की चरितार्थता न होती तो काहे को लिखते । अतः पर की प्रवृति देख रंचमात्र भी विकल्प को आश्रय न होना ही हमारे लिये हितकर है। आपके ऊपर कुछ भी आपत्ति नहीं, जो आत्महित करने वाले हैं वह शिर पर आग लगाने पर तथा सर्वांग अग्निमय आभूषण धारण कराने पर तथा यंत्रादिद्वारा उपद्रित होने पर मोक्ष लक्ष्मी के पात्र होते हैं। मुझे तो इस आपकी असाता और श्रद्धा देखकर इतनी प्रसन्नता होती है । प्रभो ? यह अवसर सर्व को दे। आपकी केवल श्रद्धा ही नहीं । किन्तु आचरण भी अन्यथा नहीं ! क्या मुनि को जब तीव्र
१ घानी, कोल्हू
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( ३३ )
व्याधि का उदय होता है। तब बाह्य चरणानुयोग आचरण के असद्भाव में क्या उनके षष्ठम गुणस्थान चला जाता है ? यदि ऐसा है तब उसे समाधिमरण के समय हे मुने ? इत्यादि सम्बोधन करके जो उपदेश दिया है वह किस प्रकार संगत होगा । पीड़ा आदि में चित्त चंचल रहता है इसका क्या यह आशय है पीड़ा का वारंवार स्मरण हो जाता है। हो जाओ स्मरण ज्ञान है और जिसकी धारणा होती है उसका बाह्य निमित्त मिलने पर स्मरण होना अनिवार्य है । किन्तु साथ में यह भाव तो रहता है। यह चंचलता सम्यक् नहीं परंतु मेरी समझ में इस पर भी गंभीर दृष्टि दीजिये । चंचलता तो कुछ बाधक नहीं । साथ में उसके अरति का उदय और असाता की उदीरणा से दुखानुभव हो जाता है । उसे पृथक करने की भावना रहती है । इसी से इसे महर्षियों ने आर्तध्यान की कोटि में गणनाकी है । क्या इस भाव के होने से पंचमगुणस्थान मिट जाता है । यदि इस ध्यान के होने पर देशवृत के विरुद्ध भाव का उदय श्रद्धा में न हो तब मुझे तो दृढ़तम विश्वास है गुणस्थान की कोई भी क्षति नहीं । तरतमता ही होती है वह भी उसी गुणस्थान में । ये विचारे जिन्होंने कुछ नहीं जाना कहो जायेंगे कहीं जाओ हमें इसकी मीमांसा से क्या
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( ३४ ) लाभ। हम बिचारे इस भाव से हम कहां जावेंगे इस पर ही विचार करना चाहिये।
आपका सच्चिदानंद जैसा आपकी निर्मल दृष्टि ने निर्णीत किया है द्रव्य दृष्टि से वैसा ही है। परंत द्रव्य तो भोग्य नहीं, भोग्य तो पर्याय है अतः उसके तात्विक स्वरूप के जो साधक हैं उन्हें पृथक् करने की चेष्टा करना ही हमारा पुरुषार्थ है।
चोर की सजा देखकर साधु को भय होना मेरे ज्ञान में नहीं आता। अतः मिथ्यात्वादि क्रिया संयुक्त प्राणियों का पतन देख हमें भय होने की कोई भी बात नहीं- हमको तो जब सम्यक रत्नत्रय की तलवार हाथ में आगई है और वह यद्यपि वर्तमान में मौथरी धारवाली है। परंतु है तो असि । कमधन को धीरे २ छेदेगी । परंतु छेदेगी ही बड़े अानंद से । जीवनोत्सर्ग करना, अंस मात्र भी आकुलता श्रद्धा में लाना प्रभु ने अच्छा ही देखा है । अन्यथा उसके मार्ग पर हम लोग न आते । समाधिमरण के योग्य द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव क्या पर निमित्त ही हैं ? नहीं।
जहां अपने परिणामों में शांति आई । आई। वहीं सर्व सामग्री है।
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( ३५ ) अतः हे भाई। ग्राप सर्व उपद्रवों के हरण में समर्थ और कल्याण पथ के कारणों में प्रमुख जो आपकी दृढ़तम श्रद्धा है वह उपयोगिनी कर्म शत्रु वाहिनी को जयनशीला तीक्ष्ण असिधारा है । मैं तो आपके पत्र पढ़कर समाधिमरण की महिमा अपने ही द्वारा होती है।
निश्चय कर चुका हूं। क्या आप इससे लाभ न उठावेंगे । अवश्य ही उठावेंगे।
आ० शु० चि० बाबाजी का इच्छाकार गणेशप्रसाद वर्णी ।
श्रा० व० १ सं: ९४ । नोट-मैं विवश होगया । अन्यथा अवश्य आपके
समाधिमरण में सहकारी हो पुण्यलाभ करता। आप अच्छे स्थान पर ही आवेंगे । परन्तु पंचम काल है । अतः हमारे सम्बोधन के लिये आपका उपयोग ही इस ओर न जावेगा। अथवा जावेगा ही। तब कालकृत असमर्थता बाधक होकर आपको न शांति देगा। इससे कुछ उत्तरकाल की याचना नहीं करता।
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चालकलाकार
पत्र नं.६
श्रीयुत महाशय पं. दीपचंद जी वर्णी-योग्य इच्छाकार!
__बन्धुवर ! आपका पत्र पढ़कर मेरी आत्मा में अपार हर्ष होता है कि आप इस रुग्णावस्था में हदश्रद्धालु हो गये हैं। यही संसार से उद्धार का प्रथम प्रयत्न है। कायकी क्षीणता कुछ अात्मतत्व की क्षीणता में निमित्त नहीं। इसको आप समीचीनतया जानते हैं। वास्तव में आत्मा के शत्रु तो राग द्वेष
और मोह हैं। जो उसे निरंतर इस दुःस्त्रमय संसार में भ्रमण करा रहे हैं । अतः आवश्यकता इसकी है कि जो रागद्वेष के आधीन न होकर स्वात्मेत्थ परमानंद की ओर ही हमारा प्रयत्न सतत रहना ही श्रेयस्कर है।
औदयिक रागादि होवें इसका कुछ भी रंज नहीं करना चाहिये । रागादिकों का होना रुचिकर नहीं होना चाहिये। बड़े बड़े ज्ञानी जनों के राग होता है। परन्तु उस राग में रंज के अभाव से अग्रे उसकी परिपाटी रोधका आत्मा को अनायास अवसर मिल जाता है। इस प्रकार औदयिक रागादिकों की संतान का अपचय होते होते एक दिन समूलतल से
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( ३७ ) उसका अभाव होजाता है और तब आत्मा अपने स्वच्छ स्वरूप होकर इन संसार की वासनावों का पात्र नहीं होता। मैं आपको क्या लिखू । यही मेरी सम्मति है-जो अब विशेष विकल्पों को त्यागकर जिस उपाय से रागद्वेष का प्राशय में अभाव हो वही आपका व मेरा कर्तव्य है। क्योंकि पर्याय का अवसान है। यद्यपि पर्याय का अवसान तो होगा ही किन्तु फिर भी सम्बोधन के लिये कहा जाता है तथा मूढ़ों को वास्तविक पदार्थ का परिचय न होने से बड़ा आश्चर्य मालूम पड़ता है।
विचार से देखिये-तब अाश्चर्य को स्थान नहीं । भौतिक पदार्थों की परिणति देखकर बहुत से जनतुम्ध हो जाते हैं। भला जब पदार्थ मात्र अनन्त शक्तियों का पुंज है। तब क्या पुद्गल में वह बात न हो, यह कहां का न्याय है। अाजकल विज्ञान के प्रभाव को देख लोगों की श्रद्धा पुद्गल द्रव्य में ही जाग्रत हो गई है। भला यह तो बिचारिये । उसका उपयोग किसने किया। जिसने किया उसको न माननायही तो जड़भाव है।
बिना रागादिक के कार्माण वर्गणा क्या कर्मादि रूप परिणमन को समर्थ हो सकती है ? तब
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( ३८ ) यों कहिये । अपनी अनन्तशक्ति के विकाश का बाधक प्रापही मोहकर्म द्वारा करा रहा है फिर भी हम ऐसे अन्धे हैं जो मोह की महिमा आलाप रहे हैं। मोह में बलवत्ता देनेवाली शक्तिमान वस्तु की ओर दृष्टि प्रसार कर देखो तो धन्य उस अचिन्त्य प्रभाव वाले पदार्थ को कि जिसकी वक्र दृष्टि से यह जगत अनादि से बन रहा है । और जहां उसने वक्र दृष्टि को संकोच कर एक समय मात्र सुदृष्टि का अवलम्बन किया। कि इस संसार का अस्तित्व ही नहीं रहता । सो ही समयसार में कहा है
कलशाकषाय कलिरेकतः शान्तिरस्त्येकतो । भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः ॥ जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः । स्वभाव महितात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥
अर्थ। एक तरफ से कषाय कालिमा स्पर्श करती है और एक तरफ से शान्ति स्दर्श करती है। एक तरफ संसार का अघात है और एक तरफ मुक्ति है। एक तरफ तीनों लोक प्रकाशमान है और एक तरफ चेतनात्मा प्रकाश कर रहा है। यह बड़े
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( ३९ ) आश्चर्य की बात है कि आत्मा की स्वभाव महिमा विजय प्राप्त होती है। इत्यादि अनेक पद्ममय भावों से यही अन्तिम करन प्रतिमा का विषय होता है जो आत्म द्रव्य ही की विचित्र महिमा है। चाहे नाना दुःखाकीर्ण जगत में नाना वेष धारण कर नटरूप बहुरूपिया बने । चाहे स्वनिर्मित सम्पूर्ण लीला को सम्बरण करके गगन वत् पारमार्थिक निर्मल स्वभाव को धारण कर निश्चल तिष्ठे। यही कारण है। "सर्वं वै खाल्विदं ब्रह्म” अर्थ-यह संपूर्ण जगत् ब्रह्म स्वरूप है। इसमें कोई सन्देह नहीं, यदि वेदान्ती एकान्त दुराग्रह को छोड़ देवें । तब जो कुछ कथन है अक्षरशः सत्य भासमान होने लगे। एकान्तदृष्टि ही अन्धदृष्टि है। आप भी अल्पपरिश्रम से कुछ इस ओर आईये। भला यह जो पंच स्थावर और त्रस का समुदाय जगत दृश्य हो रहा । क्या है ? क्या ब्रह्म का विकार नहीं ? अथवा स्वमत की ओर कुछ दृष्टि का प्रसार कीजिये । तब निमित्त कारण की मुख्यता से ये जो रागादिक परिणाम हो रहे हैं। उन्हें पौद्गलिक नहीं कहा है । अथवा इन्हें छोड़िये । जहां अवधिज्ञान का विषय निरूपण किया है वहां क्षयोपशम भाव को भी अवधिज्ञान का विषय कहा है। अर्थात् रूपी पुद्गल द्रव्य सम्बन्धेन जायमानत्वात् क्षायोपशिक भाव भी
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( ४० ) कथंचित रूपी है केवलभाव अवधिज्ञान का विषय नहीं क्योंकि उसमें रूपी द्रव्य का सम्बन्ध नहीं। अतएव यह सिद्ध हुआ औदयिक भाववत् क्षायोपशमिक भाव भी कथंचित् पुद्गल सम्बन्धेन जायमान होने से मूर्तिमत् है न कि रूप रसादि मत्ता इनमें है। तद्वत् अशुद्धता के सम्बन्ध से जायमान होने से यह भौतिक जात भी कथंचित् ब्रह्म का विकार है। कथंचित् का यह अर्थ है
जीव के रागादिक भावों के ही निमित्त को पाकर पुद्गल द्रव्य एकेन्द्रियादि रूप परिणमन को प्राप्त है। अतः यह जो मनुष्यादि पर्याय हैं। असमान जातीय द्रव्य के संबंध से निष्पन्न हैं। न केवल जीव की है और न केवल पद्गल की है। किन्तु जीव और पुद्गल के संबंध से जायमान हैं। तथा यह जो रागादि परिणाम हैं सो न तो केवल जीव के ही हैं और न केवल पुद्गल के हैं किन्तु उपादान की अपेक्षा तो जीव के हैं और निमित्त कारण की अपेक्षा पुद्गल के हैं। और द्रव्य दृष्टि कर देखें तो न पुद्गल के है और न जीव के हैं । शुद्ध द्रव्य के कथन में पर्याय की मुख्यता नहीं रहती। अतः यह गौण हो जाते हैं। जैसे पुत्र पर्याय स्त्री पुरुष दोनों के द्वारा सम्पन्न होती है। अस्तु इससे यह निष्कर्ष निकला यह जो पर्याय है।
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वह केवल जीव की नहीं किन्तु पौद्गल मोह के उदय से आत्मा के चारित्र गुण में विकार होता है। अतः हमें यह न समझना चाहिये कि हमारी इस में क्या क्षति है ? क्षति तो यह हुई जो श्रात्मा की वास्तविक परिणति थी वह विकलता को प्राप्त हो गई । वही तो क्षति है । परमार्थ से क्षति का यह आशय है कि प्रात्मा में रागादिक दोष हो जाते हैं वह न होवें । तब जो उन दोषों के निमित्त से यह जीव किसी पदार्थ में अनुकूलता और किसी में प्रतिकूलता की कल्पना करता था और उनके परिणमन द्वारा हर्ष विषाद कर वास्तविक निराकुलता (सुख) के अभाव में आकुलित रहता था । शान्ति के प्रास्वाद की कणिका को भी नहीं पाता था। अब उन रागादिक दोषों के असद्भाव में आत्मगुण चारित्र की स्थिति अकम्प और निर्मल हो जाती है। उसके निर्मल निमित्त को अवलम्बन कर आत्मा का चेतना नामक गुण है वह स्वयमेव दृश्य और ज्ञेय पदार्थों का तद्रूप हो दृष्टा और ज्ञाता शक्तिशाली होकर आगामी अनन्त काल स्वाभाविक परिणमनशाली अाकाशादिवत् अकंप रहता है। इसी का नाम भाव मुक्ति है। अब आत्मा में मोह निमित्तक जो कलुषता थी वह
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( ४२ ) सर्वथा निर्मूल हो गई किन्तु अभी जो योग निमित्तक परिस्पन्दन है वह प्रदेश प्रकम्पन को करता ही रहता है। तथा तन्निमित्तक ईर्यापथास्रव भी साता वेदनीय का हुआ करता है । यद्यपि इसमें प्रात्मा के स्वाभाविक भाव की क्षति नहीं। फिर भी निरपवर्त्य अायु के सद्भाव में यावत् अायु के निषेक हैं नावत् भव स्थिति को मेंटने को कोई भी क्षम नहीं। तब अन्तमुहूर्त आयु का अवसान रहता है। तथा शेष जो नामादिक कर्म की स्थिति अधिक रहती है, उस काल में तृतीय शुक्लध्यान के प्रसाद से दंडकपाटादि द्वारा शेष कर्मों की स्थिति को आयु समकर चतुर्दश गुणस्थान का आरोहण कर अयोग नाम को प्राप्त करता हुआ लघु पंचाक्षर के उच्चारण के काल सम गुणस्थान का काल पूर्ण कर चतुर्थध्यान के प्रसाद से शेष प्रकृतियों को नाश कर परमयथाख्यात चारित्र का लाभ करता हुअा १ समय में द्रव्य मुक्ति व्यपदेशता को लाभकर मुक्ति साम्राज्य लक्ष्मी का भोक्ता होता हुआ लोक शिखर में विराजमान होकर तीर्थंकर प्रभु के समव शरण का विषय होकर हमारे कल्याण में सहायक हो । यही हम सबकी अन्तिम प्रार्थना है।
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( ४३ )
श्रीमान् बाबा भागीरथजी महाराज आगये उनका सस्नेह आपको इच्छाकार । खेद इस बात का विभाव जन्य हो जाता है। जो आपकी उपस्थिति यहां न हुई। जो हमें भी आपका वैयावृत्ति करने का अवसर मिल जाता परन्तु हमारा ऐसा भाग्य कहां ! जो सल्लेखना धारी एक सम्यग्ज्ञानी पंचमगुणस्थानवर्ती जीव की प्राप्ति हो सके। आपके स्वास्थ्य में आभ्यंतर तो क्षति है नहीं, जो है सो बाह्य है । उसे श्राप प्रायः वेदन नहीं करते यही सराहनीय है । धन्य है श्रापको जो इस रुग्णावस्था में भी सावधान हैं। होना ही श्रेयस्कर है । शरीर की अवस्था अपस्मार वेगवत् वर्धमान हीयमान होने से ध्रुव और शीतदाह ज्वरावेश द्वारा अनित्य है । ज्ञानी जन को ऐसा जानना ही मोक्षमार्ग का साधक है। कब ऐसा समय आवेगा जो इसमें वेदना का अवसर ही न आवे ।
आशा है एक दिन आवेगा । जब आप निश्चल वृत्ति के पात्र होवेंगे । अथ अन्य कार्यों से गौण भाव धारण कर सल्लेखना के ऊपर ही दृष्टि दीजिये और यदि कुछ लिखने की चुलबुली उठे तब उसी पर
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( ४४ ) लिखने की मनोवृत्ति की चेष्टा कीजिये । मैं आपकी प्रशंसा नहीं करता, किन्तु इस समय ऐसा भाव जैसा कि आपका है प्रशस्त है। ज्येष्ठ वदी १ से फा० सु. ५ तक मौन का नियम कर लिया है एक दिन में १ घन्टा शास्त्र में बोलूंगा।
पत्र मिल गया- पत्र न देने का अपराध क्षमा करना
गणेशप्रसाद वर्णी ।
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( ४५ )
पत्र नं. ७
श्रीयुत महाशय दीपचंद जी वर्णी साहब-योग्य इच्छाकार । पत्र से आपके शारीरिक समाचार जानेअब यह जो शरीर पर है शायद इससे अल्प ही काल में आपकी पवित्र भावनापूर्ण आत्मा का सम्बन्ध छूटकर वैक्रियक शरीर से संबंध हो जावे । मुझे यह दृढ़ श्रद्धान है कि आपकी असावधानी शरीर में होगी-न कि आत्मचिंतन में । असातोदय में यद्यपि मोह के सद्भाव से विकलता की सम्भावना है। तथापि अांशिक भी प्रबल मोह के अभाव में वह
आत्मचिंतन का बाधक नहीं हो सकती। मेरी तो दृढ़ श्रद्धा है कि आप अवश्य इसी पथ पर होंगे । और अन्त तक दृढ़तम परिणामों द्वारा इन क्षुद्र बाधाओं की ओर ध्यान भी न देंगे। यही अवसर संसार लतिका के घात का है।
देखिये जिस असातादि कर्मों की उदीरणा के अर्थ महर्षि लोग उग्रोग्रतप धारण करते २ शरीर को इतना कृश बना देते हैं। जो पूर्व लावण्य का अनुमान भी नहीं होता। परन्तु प्रास्म दिव्य शक्ति से भूषित
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( ४६ ) ही रहते हैं। आपका धन्य भाग्य है। जो बिन ही निग्रंथ पद धारण के कर्मों का ऐसा लाघव हो रहा जो स्वयमेव उदय में आकर पृथक् हो रहे हैं। इस जितना हर्षमुझे है । नहीं कह सकता, वचनातीत है
आपके ऊपर से भार उठ रहा है फिर आपके सुखकी अनुभूति तो आपही जाने । शांति का मूल कारण न साता है और न असाता, किन्तु साम्यभाव है। जो कि इस समय आपके हो रहे हैं । अब केवल ब्रह्मानुभव ही रसायन परमौषधि है। कोई कोई तो क्रम क्रम से अन्नादि का त्याग कर समाधिमरण का यत्न करते हैं। आपके पुण्योदय से स्वयमेव वह छूट गया। वही न छूटा साथ साथ असातोदय द्वारा दुखजनक सामग्री का भी अभाव हो रहा है।
अतः हे भाई! आप रंचमात्र क्लेश न करना, जो वस्तु पूर्व अर्जित है यदि वह रस देकर स्वयमेव आत्मा को लघु बना देती है। इससे विशेष और आनन्द का क्या अवसर होगा। मुझे अंतरंग से इस बात का पश्चात्ताप हो जाता है, जो अपने अंतरंग बन्धु की ऐसी अवस्था में वैयावृत्त्य न कर सका।
प्रा. शु. चिं. माघ व०१४ सं: ९४
गणेशप्रसाद वर्णी ॥ इति ॥
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(
४७ )
* उपसंहार *
लकवृन्द,
श्रापको इन ज्ञानसुधामय पत्रों को पढ़ने से जो वचनातीत आनंद प्राप्त हुआ है। उससे अवश्य आत्मलाभ लेना। यही ज्ञान समाधि की भावना जीवको परम हितकारिणी है।।
सल्लेखना धर्म गृहस्थ और मुनि दोनों का है । तथा सल्लेखना व समाधिमरण का अर्थ भी एक है । इसलिये जब शरीर किसी असाध्य रोग से अथवा वृद्धावस्था से असमर्थ हो जावे, देव मनुष्यादि कृत कोई दुर्निवार उपसर्ग उपस्थित हुवा होवे या महा दुर्भिक्ष से धान्यादि भोज्य पदार्थ दुष्प्राप्य होगये होवें अथवा धर्म के विनाश करने वाले कोई विशेष कारण आ मिले होवें तब अपने शरीर को पके हुवे पान के समान तथा तैल रहित दीपक के समान स्वयमेव विनाश के सन्मुख जान सन्यास मरण करे । यदि मरण में किसी प्रकार का संदेह हो तो मर्यादा पूर्वक ऐसी प्रतिज्ञा करे कि “जो इस उपसर्ग से मेरी प्रत्यु हो जावेगी तो मेरे आहारादिक का सर्वथा सग है और कदाचित् जीवन अवशेष रहेगा तो
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( ४८ ) आहारादिक का ग्रहण करूंगा।" क्योंकि "शरीरमाधं खलु धर्मसाधनं” इस वाक्य के अनुसार शरीर की रक्षा करना परम कर्तव्य है। धर्म का साधन शरीर से ही होता है। इसलिये रोगादिक होने पर यथाशक्ति प्रासुक औषधि सेवन करना चाहिये परन्तु जब असाध्य रोग हो जावे और किसी प्रकार के उपचार से लाभ न होवे तब यह शरीर दुष्ट संग के समान सर्वथा त्याग करते हुये इच्छित फलका देनेवाला धर्म विशेषता से पालने योग्य कहा है। शरीर मृत्यु के पश्चात् फिर भी प्राप्त होता है परन्तु धर्म धारण करने की योग्यता पाना अत्यंत दुर्लभ है । इस प्रकार विधिवत् देहोत्सर्ग में दु:ग्वी न होकर संयमपूर्वक मन, वचन और काय के व्यापार आत्मा में एकत्रित करता हुआ और "जन्म जरा और मृत्यु शरीर संबंधी है मेरे नहीं है" ऐसा चितवन कर, निर्ममत्व होकर विधिपूर्वक आहार घटा, शरीर कृशकर तथा शास्त्रामृत के पान से कषायों को कृश करते हुये चार प्रकार के संघ को साक्षी करके समाधिमरण में उद्यमवान् होकर अंतरंग ज्ञान ज्योति जागृत कर बहिरंग क्रिया करना चाहिये।।
स्नेह, वैर, सङ्ग (परिग्रह) आदि को छोड़कर शुद्धमन होकर अपने स्वजन परिजनों को क्षमा करता हुअा उनसे अपने दोषों की क्षमा करावे । कृत कारित
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( ४९ ) अनुमोदना द्वारा अपने पूर्व में किये हुये पापों की आलोचना करते हुये मरण पर्यंत महाव्रत या अणुव्रत प्रीति पूर्वक धारणकर शोक, भय, खेद, ग्लानि, कलुषता, अरति आदि भावों को त्याग कर साहस, शक्ति, उत्साह, धैर्य को प्रकट करते हुये भोजन का त्याग क्रम क्रम से करे । पश्चात् आहार का भी त्यागकर, दुग्धपान पुनः तक्रपान व उष्ण जलपान पश्चात् इसका भी त्याग कर उपवास धारण करता हुत्रा पंच परमेष्ठी का ध्यान व आत्मध्यान करते हुये णमोकार मंत्र का उच्चारण पूर्वक शरीर का सावधानी से त्याग करे।
अंतसमय जीवने की इच्छा, मरण की वांछा, मित्रों से अनुराग, पूर्व भोगों का स्मरण और आगामी भोगों की वांछा आदि दोषों को न लगावे।।
मेरी अंतिम मनोकामना है कि इस मुखप्रद सल्लेखना का लाभ सर्व जीव उठावें ।
सर्व जीवों प्रति-धर्म मैत्री का इच्छुकसि. कस्तूरचंद नायक
जवाहरगंज-जबलपूर ।। 8 समाप्त
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंघई मौजीलाल के प्रबंध से सिंघई प्रेस जबलपुर मुद्रित Serving JinShasan 093866 gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only