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( ३० ) तद्वस्तुस्थिति बोध बन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो॥ रागद्वेषमपि भवन्ति सहजा मुंवत्युदासीनताम् ॥
पूर्ण अद्वितीय नहीं च्युत है शुद्ध बोध की महिमा जाकी ऐसा जो बोध है वह कभी भी बोध्य पदार्थ के निमित्त से प्रकाश्य (घटादि) पदार्थ से प्रदीप की तरह कोई भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता है। इस मर्यादा विषयक बोध से जिसकी बुद्धि बन्ध्या है वे अज्ञानी हैं। वे ही रागद्वेषादिक के पात्र होते हैं और स्वाभाविक जो उदासीनता है उसे त्याग देते हैं। आप बिज्ञ है कभी भी इस असत्य भाव को आलम्बन न देवेंगे । अनेकानेक मर चुके तथा मरते हैं और मरेंगे। इससे क्या आया। एक दिन हमारी भी पर्याय चली जावेगी । इसमें कौनसी आश्चर्य की घटना है इसका तो आपसे विज्ञ पुरुषों को विचार कोटि से प्रथक् रखना ही श्रेयस्कर है। जो यह वेदना असाता के उदय आदि कारण कूट होने पर उत्पन्न हुई और हमारे ज्ञान में आयी । क्या वस्तु है ? परमार्थ से विचारा जाय तो यह एक तरह से सुख गुण में विकृति हुई वह हमारे ध्यान में आयी । उसे हम नहीं चाहते । इसमें कौन सी विपरीतता हुई । विपरीतता तो जब होती है जब हम उसे निज
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