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( २९ ) बालबाट
पत्र नं.५
श्रीयुत पं. दीपचंद जी धर्मरत्न-इच्छामि ।
पत्र पढ़कर सन्तोष हुअा। तथा आपका अभिप्राय जितनी मण्डली थी सबको श्रावण प्रत्यक्ष करा दिया। सर्व लोक अापके आंशिक रत्नत्रय की भूरिशः प्रसंशा करते हैं।
__आपने जो पं. भूधरदास जी की कविता लिखी सो ठीक है। परन्तु यह कविता आपके ऊपर नहीं घटती। श्राप सूर हैं। देहकी दशा जैसी कविता में कवि ने प्रतिपादित की है तदनुरूप ही है परन्तु इसमें हमारा क्या घात हुआ? यह हमारी बुद्धिगोचर नहीं हुा । घट के घात से दीपक का घात नहीं होता। पदार्थ का परिचायक ज्ञान है। अतः ज्ञान में ऐसी अवस्था शरीर की प्रतिभासित होती है एतावत् क्या ज्ञान तद्रूप हो गया।
- श्लोक - पूर्णेकाच्युत शुद्ध बोध महिमा बोधो न बोध्यादयम् ॥ पायाकामपि विक्रियां ततः इतो दीपः प्रकाश्यादपि॥
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