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पत्र नं.२
Gece:ee:geeed महाशय योग्य शिष्टाचार
आपके शरीर की अवस्था प्रत्यहं क्षीण हो रही है । इसका ह्रास होना स्वाभाविक है। इसके ह्रास
और वृद्धि से हमारा कोई घात नहीं, क्योंकि आपने निरंतर ज्ञानाभ्यास किया है अतः आप इसे स्वयं जानते हैं अथवा मान भी लो शरीर के शैथिल्य से तद् अवयवभूत इंद्रियादिक भी शिथिल होजाती हैं तथा द्रव्येंद्रिय के विकृत भाव से भावेन्द्रिय स्वकीय कार्य करने में समर्थ नहीं होती है किन्तु मोहनीय उपशम जन्य सम्यक्त्व की इसमें क्या विराधना हुई। मनुष्य शयन करता है उसकाल जाग्रत अवस्था के सदृश ज्ञान नहीं रहता किन्तु जो सम्यग्दर्शन गुण संसार का अंतक है उसका अांशिक भी घात नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन माना है जहां केवल तैजस कार्माण शरीर और उत्तर कालीन शरीर की पूर्णता भी नहीं तथा आहारादि वर्गणा के अभाव में भी सम्यग्दर्शन का सद्भाव
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