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पत्र नं. ४
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मैं यदि अन्तरङ्ग से विचार करता तो जैसा आप लिखते हैं मैं उसका पात्र नहीं, क्योंकि पात्रता का नियामक कुशलता ताका अभाव है । वह अभी कोसों दूर है। हां यह अवश्य है यदि योग्य प्रयास किया जावेगा तब दुर्लभ भी नहीं, वक्तृत्वादि गुण तो आनुसंगिक हैं । श्रेयोमार्ग की सन्निकटता जहां जहां होती है वह वस्तु पूज्य है अतः हम और आप को बाह्य वस्तु जातमें मूर्छा की कृषताकर आत्म तत्त्व को उत्कर्ष बनाना चाहिये । ग्रन्थाभ्यास का प्रयोजन केवल ज्ञानार्जन ही तक अवसान नहीं होता साथ ही में पर पदार्थों से उपेक्षा होनी चाहिये आगमज्ञान ही प्राप्ति और है किन्तु उसकी उपयोगिता का फल और ही है। मिश्री की प्राप्ति और स्वादुता में महत अन्तर है यदि स्वाद का अनुभव न हुआ तब मिश्री पदार्थ का मिलना केवल अन्धे की लालटेन के सदृश है अतः अब यावान पुरुषार्थ है वह इसी में afear होकर लगादेना ही श्रेयस्कर है । जो आगम
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